वार्षिक साहित्य समीक्षा: आलोचनाओं ने तैयार की साहित्‍य के सामाजिक सरोकार की नई जमीन

वार्षिक साहित्य समीक्षा: आलोचनाओं ने  तैयार की साहित्‍य के सामाजिक सरोकार की नई जमीन
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मधुरेश ने अपनी पुस्तक ‘मार्क्सवादी जीवन दृष्टि और रांगेय राघव’ में अब तक अनछुए रहे पक्ष को सामने लाने का प्रयास किया है।

पल-पल, दिन-दिन, सप्ताह और महीने गुजरने के साथ वर्ष 2014 भी हमसे विदा लेने को तैयार है। जिस तरह जीवन, समाज और दुनिया के हर हिस्से में बहुत कुछ अच्छा और नया सामने आने के साथ कुछ अप्रिय भी घटित हुआ, उसी तरह रचनाशीलता की दृष्टि से साहित्यिक दुनिया में जहां अनेक विधाओं में साहित्य समृद्ध हुआ वहीं आलोचना/लेख-संग्रह भी चर्चा में रहे। आलोचनात्‍मक संग्रहों और लेखों ने साहित्‍य के सामाजिक सरोकार की नई जमीन तैयार करने में अहम भूमिका निभाई।

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आलोचना/लेख-संग्रह: आलोचनात्मक कृतियों के लिहाज से भी बीत रहा वर्ष, समृद्ध कहा जा सकता है। साहित्यिक विधाओं में ही नहीं सामाजिक मुद्दों पर भी कई लेखकों और विचारकों की कई महत्वपूर्ण पुस्तकें इस वर्ष आर्इं। इस वर्ष की एक महत्वपूर्ण कृति तीन खंडों में प्रकाशित हुई, गोपाल राय की ‘हिंदी कहानी का इतिहास’ है। इसमें लेखक ने विस्तार से वर्ष 2000 तक के कहानी लेखकों की महत्ता को रेखांकित किया है। रेखा अवस्थी की पुस्तक ‘राग दरबारी: आलोचना की फांस’ इस कालजयी कृति को समझने का नया रास्ता मुहैया कराती है। फणीश्वर नाथ रेणु के कृतित्व में व्याप्त विशिष्टताओं को बहुत अलग ढंग से भारत यायावर ने रेखांकित किया पुस्तक ‘रेणु का है अंदाजे बयां और’ में।

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ललित श्रीमाली ने अपनी पुस्तक 'भूमंडलीकरण और हिंदी उपन्यास’ में कई जरूरी सवालों के जवाब आज के परिपे्रक्ष्य में खोजने की कोशिश की है। विगत वर्ष दिवंगत हुए सहजता से आलोचना का अपना पक्ष रखने वाले आलोचक परमानंद श्रीवास्तव की इस वर्ष कई पुस्तकें आर्इं। ‘आलोचना का रहस्यवाद’ पुस्तक में उन्होंने आलोचना के मानकों पर गहनता से विचार किया है। ‘समकालीन कविता: संपे्रषण का संकट’ और ‘समकालीन कविता: नए प्रस्थान’ पुस्तकों के जरिए उन्होंने कविताओं के वर्तमान स्वरूप और उसकी चुनौतियों से जुडे कई सवालों पर नए कोणों से विचार किया। ‘ग्लोबल समय में गद्य’ और ‘ग्लोबल समय में कविता’ पुस्तकों के जरिए प्रियदर्शन की परिपक्व आलोचकीय दृष्टि साबित होती है।
एक कवि होने के साथ ही समकालीन सामाजिक राजनीतिक मुद्दों पर भी गहनता से विचार करने वाले मदन कश्यप की पुस्तक ‘राष्ट्रवाद का संकट’ पठनीय है। मधुरेश ने अपनी पुस्तक ‘मार्क्सवादी जीवन दृष्टि और रांगेय राघव’ के जरिए उनके अब तक अनछुए रहे पक्ष को सामने लाने का प्रयास किया है। वष्ठि लेखक उद्भ्रांत आलोचनात्मक लेखों, समीक्षाओं और टिप्पणियों की दो पुस्तकें ‘मुठभेड़’ और ‘आलोचक के भेस में’ भी इस वर्ष प्रकाशित हुर्इं। विजय कुमार की पुस्तक ‘कविता के पते ठिकाने’ भी इस वर्ष की एक महत्वपूर्ण आलोचना पुस्तक मानी जा सकती है। मैत्रेयी पुष्पा के चर्चित उपन्यास ‘चाक’ पर कई नए पुरानेलेखकों की आलोचनात्मक लेखों की पुस्तक ‘चाक-सामाजिक विमर्श के आईने में’ विजय बहादुर सिंह के संपादन में प्रकाशित हुई।
इनके अलावा गोविंद प्रसाद की ‘आलाप और अंतरंग’, बद्री नारायण की ‘दलित वीरांगनाएं और मुक्ति की चाह’, वीरेंद्र यादव की ‘प्रगतिशीलता के पक्ष में,’ खगेंद्र ठाकुर की ‘कहानी-संक्रमणशील कला’ आलोचना पुस्तकें भी चर्चित रहीं। लेख संग्रहों की पुस्तकों में चित्रा मुद्गल की पुस्तक ‘भीतर का आयतन’ में कई ऐसे लेख मौजूद हैं, जो उनके भीतर के रचनाकार को पहचानने में बहुत मददगार हो सकते हैं। असगर वजाहत के कुछ साहित्यिक-सामाजिक लेखों का पठनीय संग्रह ‘ताकि देश में नमक रहे’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ।
पाखी के संपादक प्रेम भारद्वाज के संपादकीयों का संकलन ‘हाशिए पर हर्फ’ अपनी तरह की विशिष्ट कृति है। कथेतर गद्य पुस्तकों में पल्लव की ‘अस्सी का काशी’ और कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी का ‘रघुवीर सहाय’ पर तैयार मोनोग्राफ संग्रहणीय पुस्तकें हैं। गंभीर-विचारक प्रभाकर श्रोत्रिय के कई लेखों का संकलन ‘इस जनतंत्र में’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ। कथाकार शिवमूर्ति ने अपनी रचना प्रक्रिया को बहुत खूबसूरत अंदाज में ‘सृजन का रसायन’ पुस्तक में संजोया है।
नीचे की स्लाइड्स में जानिए, रचनाकार पंकज पराशर की नजर में वर्ष-2014 -

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