क्‍या दलि‍तों का बनेगा अलग देश? नाम होगा दलि‍तस्‍तान?

क्‍या दलि‍तों का बनेगा अलग देश? नाम होगा दलि‍तस्‍तान?
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दलित परिवारों को अपनी लड़ाई में समाज से जैसा समर्थन मिलना चाहिए था, उसका एक प्रतिशत भी नहीं मिला है।

देश में इन दिनों दलितों के साथ होने वाले अत्याचार व दुर्व्यवहार अचानक से नहीं हुआ है। उच्च और सवर्ण जाति के लोग निम्न जाति के लोगों पर अत्याचारों का इतिहास गवाह है। ब्राह्मणवादी और अपने को उच्च समुदाय के समझने वालों ने अपने हित के और शक्ति साबित करने के लिए दलितों पर अत्याचार किए है। भारत जहां तथाकथित विकास की ओर अग्रसर हो रहा है वहीं रूढ़िवादिता भी लोगों के बीच तेजी से फैल रही है। जातिवाद इसी रूढ़िवादी व्यव्यवस्था का एक भाग है। जहां सभी अपने समुदाय को जातिगत रूप से सर्वोच्च साबित करने की कोशिश कर कर रहे हैं और दलितो पर आधिपत्य जमाने के लिए दुर्घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं। जबाकि भारत का संविधान किसी भी सवर्ण को इसकी इजाजत नहीं देता। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता व छुआछूत का अंत करने की प्रतिबद्धता दी गई है लेकिन सरकार इस प्रतिबद्धता को आज तक नहीं निभा पाई है। हाल ही में हुए फरीदाबाद में दलित परिवार पर जाट समुदाय के कुछ लोगों ने जिंदा जला दिया जिसमें परिवार के दोनों बच्चों की मौत हो गई और माता-पिता बुरी तरह झुलस गए है।

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मामला सिर्फ यही तक सीमित नही हैं उत्तर प्रदेश के दनकौर की दुर्घटना में रक्षक ही भक्षक बनें। दलितों को नंगा कर पुलिस वाले उनसे बदसलूकी करते हैं और उन्ही पर आरोप लगाते हैं। हरियाणा के मिर्चपुर गांव में जाटों ने दलितों के मकानों मे आग लगा दी जिसमें 70 साल के दलित बुजुर्ग और उनकी 18 साल की विकलांग बेटी की मौत हो गई। इस हमले में 18 मकान जलकर राख हो गई। इसके करीब 150 दलित परिवार गांव छोड़कर चले गए थे। इस कांड में जाट समुदाय के 98 लोगों पर आरोप लगे हैं और अब ये सभी आरोपी बरी है। बात सिर्फ यहा तक सीमित नहीं है। हरियाणा के गोहाना में 31 अगस्त 2005 को 50 दलित के घर जाटो ने जला दिए थे, जिसके बाद वहां दंगा भड़का और दलितों ने पलायान करना प्रारंभ कर दिया था।

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महाराष्ट्र के खैरलांजी गांव में एक दलित परिवार के 4 लोगों की हत्या कर दी। इस दुर्घटना में 11 शामिल लोगों में से तीन को अदालत ने रिहा कर दिया बाकी आठ को दोषी पाया था। इस दुर्घटना का कारण मामूली जमीन विवाद से शुरू हआ था। राजस्थान में स्थित डांगावास गांव में भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी, जहां जाटों ने दलित लोगों पर जमीन और घर कब्जा करवाने का आरोप लगा कर उनसे मारपीट की और दंगा भड़का। इस दंगे में 5 दलितों की हत्या हुई और 15-20 लोगों के हाथ-पैर टूट गए थे। करीब 200 लोगों ने इस घटना को अंजाम दिया। इस मामले में पुलिस ने 12 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया जबकि 6 लोगों को तत्काल गिरफ्तार किया गया। लेकिन मामले की जांच सीबीआई अभी तक कर रही है। हरियाणा के भगाणा गांव में सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई चार नाबालिग लड़कियां। इस बलात्कार कांड को भी जाटों ने अंजाम दिया व इसका विरोध करने पर दलितों के साथ मार-पीट की। इस दुर्घटना जांच और आरोपियों के सजा दिलावने के लिए सैकड़ों दलित परिवार भगाणा से दिल्ली आकर धरना प्रदर्शन किया लेकिन इनकी आवाजें किसी से नहीं सुनी। दलित परिवारों ने गांव के सरपंच और उके साथियों को तुरंत गिरफ्तार करने की मांग की लेकिन प्रशासन पूरी तरह से खामोश था

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इन सभी पीड़ित दलित परिवारों को अपनी लड़ाई में समाज से जैसा समर्थन मिलना चाहिए था, उसका एक प्रतिशत भी नहीं मिला है। टेलीविजन चैनलों में भी सिर्फ वहीं घटनाएं जगह बना पाई जहां सिर्फ नेता लोग गए। एक-दो अखबारों को छोड़ दें तो ऐसी घटनाओं को कहीं कोई महत्त्व दिया ही नहीं गया। क्या यह शर्मनाक नहीं है? ऐसी घटनाएं हमें अपनी सारी व्यवस्था पर फिर से सोचने के लिए मजबूर कर देती?

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लोकतंत्र, प्रशासन, पुलिस, न्यायालय और इतने सख्त कानूनों के बावजूद इन सबका दलितों को कोई लाभ नहीं मिल रहा और उन पर अत्याचार जारी है—ऐसा क्यों है? क्यों हमारे राजनीतिक दल ऐसी घटनाओं पर निष्क्रिय हैं? वह सिर्फ अपने राजनीतिक रोटियां सेंकते हैं। उनके वहां जाने का भी कोई लाभ नहीं हो पाता है। यहां तक दलितों की नुमांइदगी करने वाले नेता, संगठन भी दलितों के साथ नहीं खड़ें होते। क्या दलित अपने जीवन को गरिमा के साथ नहीं जी सकतें? क्यों अपने अधिकारों के लिए दलितों को आज भी चिल्लाना पड़ता हैं, उसी व्यवस्था में जहां उसे चुनाव के दौरान नेता लोग अपना भाई, बहन, मां बताते है और उनके साथ बैठ कर खाते है। फिर भी दलित समाज में अछूते होते हैं?

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