भारत की अहमियत

भारत की अहमियत
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लगभग पिछले दस साल से अमेरिका ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ जितना संभव हो सका दुष्प्रचार किया।
दुनिया के तमाम राजनीतिक विश्लेषकों और वैश्विक विषयों के जानकारों को शायद यह उम्मीद नहीं रही होगी कि जिस अमेरिका ने 2005 में नरेंद्र मोदी को वीजा देने से इनकार कर दिया था वही अमेरिका अब उन्हें वाशिंगटन आने का निमंत्रण देगा या दूसरे शब्दों में कहें तो निवेदन करेगा। इस तरह का असर केवल अमेरिकी प्रशासन पर नहीं बल्कि अमेरिकी कॉरपोरेट और अमेरिकी मीडिया पर दिख रहा है जहां एक नरेंद्र मोदी को भारत आर्थिक परिदृश्य बदलता हुआ देख रहा है तो दूसरा उन्हें एक ऐसा नेता के रूप में देखा जा रहा है जो विश्व व्यवस्था (वर्ल्ड ऑर्डर) में बदलाव लाने की क्षमता रखता है। सवाल यह उठता है कि आखिर वह अमेरिका जिसने अब तक भारत के साथ शायद कभी भी बराबरी का व्यवहार नहीं किया बल्कि वह भारत के साथ एक वरिष्ठ सत्ताधारी की तरह पेश आता रहा, वही आज अचानक दोनों घुटने टेकने की स्थिति में क्यों दिख रहा है?
लगभग पिछले दस साल से अमेरिका ने नरेंद्र मोदी के खिलाफ जितना संभव हो सका दुष्प्रचार किया। जिसमें अमेरिकी मीडिया और तत्कालीन यूपीए सरकार ने पूरा सहयोग दिया। महत्वपूर्ण बात यह रही कि नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी प्रशासन या उसकी संस्थाओं द्वारा की गई टिप्पणियों पर प्रत्युत्तर में कोई टिप्पणी नहीं की। ऐसा उन्होंने किसी भयवश नहीं किया था बल्कि यह उनके व्यक्तित्व की उदारता थी जिसका अहसास अब अमेरिका को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को हो रहा है। कोई बात तो होगी कि सरकार बनने के दस दिन के अंदर ही अमेरिका को भारत की अहमियत का अहसास हो गया। पिछले दस वर्षों की स्थिति के यह ठीक विपरीत है क्योंकि पिछले दस वर्षों में भारत की कमजोर सरकार और बेहद कमजोर नेतृत्व ने भारत को बेहद कमजोर राष्ट्र के रूप में पेश किया। फलत: अमेरिका भारत का इस्तेमाल करता रहा। अब स्थिति बदल गई है।
अमेरिका की तरफ से मोदी को निमंत्रण देने की उत्सुकता से जुड़ी दो बातें महत्वपूर्ण लगती हैं। पहली यह कि अमेरिकी प्रशासन अब प्रायश्चित की मुद्रा में है। दूसरी-अमेरिका यह नहीं चाहता कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाला भारत अब चीन और रूस के साथ रणनीतिक साझीदारी को उस सीमा तक आगे बढ़ाए जिसमें अमेरिका हित प्रभावित हों। इसके अतिरिक्त एक बात और भी हो सकती है। 2008 के मेल्टडाउन के बाद अमेरिका और यूरोप की स्थिति बेहद खराब है और अब पूंजीवाद के गढ़ में पूंजीवाद पर ‘कैपिटलिज्म ईटिंग दिअर चिल्ड्रेंस’ जैसा आरोप लग रहा है जिससे बचने के लिए जरूरी है कि अमेरिका भारत जैसे बाजार में प्रवेश पाने के लिए भारत सरकार से अनुमति मांगकर अपने युवाओं के लिए जीविका की व्यवस्था करना आरंभ करे। हालांकि अमेरिका इनमें किसे वरीयता देना चाहेगा और भारत सरकार किसे, यह अभी सुस्पष्ट नहीं है।
चीन और रूस दो ऐसे देश हैं जो पिछले काफी समय से सामरिक या रणनीतिक मोर्चे पर कहीं भी अमेरिका को छोड़ना नहीं चाहते, फिर वह चाहे मसला ईरान का हो, फिलीस्तीन का हो, र्शीलंका का हो, सीरिया का हो या अन्य। यूक्रेन में रूसी हस्तक्षेप और दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागिरी अमेरिका के लिए अस्तित्व की चुनौती से कम नहीं है। ट्रांस-पैसिफिक क्षेत्र में तो अमेरिका की चिंता इतनी बढ़ चुकी है कि उसने जापान में ग्लोबल हॉक (अत्याधुनिक ड्रोन) तैनात कर दिए हैं और ‘शांग्रिला डायलॉग’ (सिंगापुर) में चीन पर दक्षिण पूर्व एशिया में अस्थिरता पैदा करने का आरोप भी लगाया है जो दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए किया गया है। अमेरिका ब्रिक्स के रूप में दुनिया के सबसे अधिक संभावनाओं वाले मंच अथवा रिक के रूप में भारत-रूस-चीन (रणनीतिक) त्रिकोण की संभावनाओं को बेहद गम्भीरता से देख रहा है। वह यह भी जान रहा है कि जापान भारत का स्वाभाविक मित्र बनेगा क्योंकि नरेंद्र मोदी शिंजो अबे की मित्र सूची में सबसे ऊपर हैं।
तात्पर्य यह हुआ कि बाहरी दुनिया नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत के साथ साझेदारी में बेहतर भविष्य देख रही है। भारत के पड़ोसी देशों के रवैये में बदलाव शपथ ग्रहण में शामिल होने के बाद से ही शुरू हो गया था और प्रधानमंत्री द्वारा सबसे पहले भूटान की यात्रा के निर्णय से उनमें भारत सरकार के प्रति और भी विश्वास बढ़ेगा। इसके बाद प्रधानमंत्री मोदी जापान जाएंगे, लेकिन इससे पहले चीनी विदेश मंत्री वांग यी का भारत दौरा सम्पन्न होगा। वांग की यात्रा का छुपा हुआ एजेंडा भारत-चीन मैत्रीपूर्णद आदान-प्रदान तथा भारत-चीन रणनीतिक व सहयोगपूर्ण साझेदारी की संभावनाएं तलाशना है।
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