मरते हुए कुछ शब्द, दम तोड़ रहे हैं धीरे-धीरे

मरते हुए कुछ शब्द, दम तोड़ रहे हैं धीरे-धीरे
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भाषा शब्दों का ही समुच्चय है।
कहते हैं शब्द ही ब्रम्हा है। ईश्वर एक शब्द ही है। मनुष्य भाषा में अभिव्यक्त होता है। भाषा शब्दों का ही समुच्चय है। पशु, पक्षी ध्वनि में बोलते हैं। मैना और तोता वगैरह थोड़ा बहुत शब्दों के साथ खेलते हैं। एक शब्द बहुत कुछ कह देता है, मसलन मां। इस शब्द में सृष्टि, प्रजनन, स्नेह, कुर्बानी जैसी तमाम स्थितियां अंतर्निहित होती हैं। पिता शब्द में अनुशासन, रौबदाब, संरक्षण और उत्तराधिकार जैसे दृश्य दिखाई पड़ते हैं। धर्म, राजनीति, कानून, साहित्य वगैरह में कुछ शब्दों का बहुत लाभदायक उपयोग है। हिन्दुत्व, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, न्याय, नई कविता और प्रगतिशील आन्दोलन अनुयायियों की दूकान चलाते हैं। कानून की सरगनिसेनी पर चढ़कर न्याय दिया जाता है। गरीब पक्षकार को जो मिलता है वह न्याय नहीं मुकदमे का निपटारा होता है। वह उसे ही निपटा देता है। फैसले के कागज के पुरजे में फूल में महक या पंखुड़ियों की नरमी नहीं होती। प्रशासन नामक शब्द नागरिकों की मुश्कें कसता है। कहने को उसका अर्थ है सेवा, लेकिन वह यथानाम तथागुण आचरण नहीं करता। लोकसेवक नामक शब्द दबंग है। वह जनता को परलोक भेजने में नहीं हिचकिचाता। लोकसेवक को साहब नहीं कहा जाए तो वह जनता के लिए गोली, गाली, लाठी, तमाचा और कफ्यरू जैसे शब्द ढूंढ़ने लगता है। इन दिनों जांच नामक शब्द बहुत लोकप्रिय है। केदारघाटी का भयानक हादसा, सुभाषचंद्र बोस की संदिग्ध मृत्यु, पेंडारी में सरकारी नसबन्दी शिविर में चौदह गरीब महिलाओं की मौत, सुकमा के निकट चौदह सुरक्षाकर्मियों को नक्सलियों द्वारा गोलियों से भून दिया जाना और कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेताओं की नक्सलियों द्वारा हत्या की जांच की घोषणाएं हुईं।
काला धन, कोलगेट, टू जी स्पेक्टम वगैरह मामलों की जांच की ही जा रही है। कुछ निकलने वाला नहीं है। पहले भी कहां कुछ निकला है। जांच का अर्थ मामले की तह तक पहुंचना नहीं है। सरकारी अर्थ है जनता अपना मुंह बन्द करे। जनता बोलेगी तो उसकी आवाज की नसबन्दी कर दी जाएगी। गिरफ्तारी नामक शब्द तो पुलिस तक को मुंह चिढ़ा रहा है। कानूनी अर्थ है कि पुलिस किसी को अभियुक्त कहती ताकत के साथ गिरफ्त में ले लेती है। नेताओं के लिए लेकिन गिरफ्तारी शगल है। नेता पुलिस अधिकारी से ठिठोली करते साथ-साथ चाय पीते हैं। फिर खुद गिरफ्तारी देते हैं। मानो पुलिस को भीख दे रहे हों। जेल पहुंचने के पहले छोड़ दिए जाते हैं। पुलिस निजी बस ऑपरेटरों से जबरिया ली गई बसों में उन्हें बिठा देती है। यह तफ रीह है या गिरफ्तारी। माफी नामक शब्द पहले विनयशील था। माफी मांगते चेहरे पर हवाइयां उड़ती थीं। लोग आत्महत्या से बचने के लिए माफी मांगकर समाज के सामने शर्मसार होते रहते हैं। अब माफी मांगना जनता को लाठी मारना है।
साध्वी कहलाती मंत्री निरंजन ज्योति ने अश्लील और उत्तेजक भाषा में दण्ड विधान का अपराध किया। पार्टी के कहने पर उन्होंने माफी मांगने का अभिनय करते कहा कि खेद प्रकट करती हूं। चेहरा आत्मविश्वास से दमदमाता रहा। नेता पहले कहते हैं कि मेरे कहने का ऐसा आशय नहीं था। फि र भी किसी को ठेस पहुंची ही हो तो मैं माफी मांगता हूं। नौकरशाह नामक शब्द अद्भुत है। कहता है कि वह जनता का नौकर है। लेकिन होता जनता का शाह है। ये शाह मूंछों पर ताव देते जनता के पैसे की डकैती करते अरबपति होते हैं। वे करोड़पतियों को भी गरीब समझते हैं। उत्तरप्रदेश के यादव सिंह नामक इंजीनियर ने नौकरशाह नामक शब्द को सम्मानजनक अर्थ दिया। नौकरशाह विदेशी बैंकों में काला धन जमा करते हैं। अपनी अज्ञात कमाई से होटल, कारखाने, सिनेमाघर, रहायशी कॉलोनियां वगैरह बनवाते हैं। सेवा नियमों की धज्जियां उड़ाते कई शादियां भी करते हैं। माननीय मंत्री महोदय सहयोगी भी होते हैं। इनके प्रकरणों की कहने को तो जांच की जाती है लेकिन होती नहीं है। होती है तो कहीं पहुंचती नहीं है। विकास नामक शब्द सबका बाप निकला। प्रधानमंत्री बनने के लिए नारा लगा है, सबका साथ, सबका विकास। सबका शब्द के दो अर्थ हैं। एक सब वे करोड़ों हैं जिन्हें साथ देना है। दूसरे सब वे सैकड़ों हैं जिनका विकास होना है। पहले वाले सब में जनता, किसान और आदिवासी वगैरह हैं। उन्हें जमीनें छिन जाने पर भी चुप रहना है। मजदूर हैं जिन्हें तनख्वाह नहीं मिलने बल्कि नौकरी से निकाले जाने पर भी हायतौबा नहीं मचानी है। विद्यार्थी हैं जो मां के गहने और पिता के प्रॉविडेन्ट फंड की मदद से निजी संस्थाओं में दाखिला लेते हैं। युवतियां हैं जिनका बलात्कार होने पर भी उन्हें खाप पंचायतों के हुक्म से बलात्कारी से विवाह करना है। अंबानी, अदानी, पुलिस, राजनेता, लुटेरे, साधुओं, नौकरशाह, क्रिकेट खिलाड़ी, फि ल्म अभिनेता, डकैत वगैरह को यदि सबका साथ नहीं मिलेगा तो उनका विकास कैसे होगा। शहीद नामक शब्द तेजी से मर रहा है। देशभक्त पहले मरते तो उन्हें शहीद कहकर लोग कंधों पर लादते।
इतिहास में अमर हो जाते। अब देश के लिए बलिवेदी पर चढ़ने वाले को जवानों को शहीद कहकर उनके कपड़े, बेल्ट, टोपी, तमगे, जूते कुत्तों से चटवाए जाते हैं। कचरा ढोने वाली मोटरों में उनकी लाशों का पार्सल बनाकर परिवारों को भेजा जाता है। नाक नामक शब्द की तो आजादी के बाद मौत हो ही चुकी है। कुछ वर्ष पहले नेता, नौकरशाह, नगरसेठ खतरनाक कहलाते थे। हाल के वर्षों में उन्होंने अपने हाथों अपनी नाक काट ली है। अब वे केवल खतरा रह गए हैं। ईमानदारी, त्याग, सदाचार, चरित्र, नैतिकता वगैरह उनके साथ मर गए हैं। नाक पंचक में जो कटी थी।
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