कमजोर मानसून की चुनौती

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By - ???????????? ???? |4 Aug 2014 12:00 AM IST
मानसून की मार महंगाई पर जब पडेगी तब पड़ेगी, छोटे किसानों पर इसका असर अभी से दिखने लगा है
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मौसम विभाग दावा कर रहा है कि वर्षा सामान्य से केवल दस प्रतिशत कम रहेगी, लेकिन बुआई का कीमती समय निकल जाने की भरपाई कैसे होगी, इसका जवाब उसके पास नहीं है। मानसून की मार महंगाई पर जब पडेगी तब पड़ेगी, छोटे किसानों पर इसका असर अभी से दिखने लगा है। देश के अनेक हिस्सों में वे वैकल्पिक धंधे की खोज में गांव छोड़ने लगे हैं। यहां यह बताना जरूरी है कि भारत में 82.2 फीसदी छोटे किसान हैं जिनकी जोत का आकार औसत 0.63 एकड़ है और देश की दो तिहाई आबादी आज भी खेती पर निर्भर है।
कमजोर मानसून की मार को अब सरकार ने भी मंजूर कर लिया है। कृषि मंत्रालय ने एक जून से सत्रह जुलाई के बीच देशभर में धान, दलहन, सोयाबीन, कपास, मूंगफली आदि की बुआई का जो रकबा जारी किया है उसे देखकर लगता है कि इस बार सूखे की मार पांच बरस पहले पड़े सूखे से ज्यादा होगी। 2009 में देश ने चालीस बरस का सबसे खराब मानसून झेला था, लेकिन तब जुलाई के पहले हफ्ते से हालात सुधरने लगे थे। बारिश आ गई थी। इस बार जुलाई के दूसरे हफ्ते तक बादल रूठे रहे हैं। आसमान तकते-तकते किसानों की आंखे थक गई। अब जब बादल आए हैं तो काफी देरी हो चुकी है। बुआई का कीमती समय निकल चुका है। वर्षा ऋतु के आगमन में विलम्ब का असर कितना गहरा है, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। कृषि मंत्रालय के अनुसार अब तक सोयाबीन की बुआई महज बीस फीसदी हो पाई है। पिछले साल इस समय तक एक करोड़ हेक्टेयर जमीन में यह फसल बोई जा चुकी थी जबकि इस बार केवल 19.5 हेक्टेयर में बुआई हुई है। इस नुकसान की भरपाई कठिन है। यूं भी देरी से बुआई करने पर फसल का संभलना कठिन हो जाता है।
अब जरा खेती के प्रति सरकारी रवैये पर नजर डाल ली जाए। इस साल के बजट में सरकार ने कृषि क्षेत्र के लिए 22,652 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा है जो कुल बजट राशि का लगभग एक फीसदी है। दूसरी ओर उद्योगों को 5.73 करोड़ रुपये की रियायत दी गई हैं। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना (2007-08 से 2011-12) के दौरान कृषि विकास दर 4.1 प्रतिशत रही जिस कारण राष्ट्र के विकास को भारी संबल मिला। इन पांच साल के दौरान केन्द्र सरकार ने कृषि क्षेत्र को केवल एक लाख करोड़ रुपये दिए। हिसाब लगाये तो हर वर्ष औसत 20 हजार करोड़ रुपये दिए गए। दूसरी ओर उद्योगों को 2004-05 से अब तक यानी दस साल में 31 लाख करोड़ रुपये की छूट दी जा चुकी है। उद्योगों पर सार्वजनिक बैंकों के लगभग दस लाख करोड़ रुपये भी बकाया हैं, जिनकी वसूली की संभावना न के बराबर है। 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-13 से 2017-18) में भी खेती और किसानों के प्रति सरकार के रवैये में कोई खास बदलाव नहीं दिखता है। इन पांच साल में कृषि क्षेत्र पर 1.5 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का लक्ष्य है जो सालाना औसत तीस हजार करोड़ रुपये बैठता है। यह रकम जरूरत को देखते हुए ऊंट के मुंह में जीरे जितनी है।
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केन्द्र सरकार के इस उपेक्षापूर्ण रवैये के खिलाफ हल्ला मचने पर तर्क दिया जाता है कि कृषि तो राज्यों के अधिकार क्षेत्र का विषय है, इसलिए पैसे का प्रावधान भी उन्हीं को करना चाहिए। इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाए तो सवाल यह उठता है कि जब उद्योग भी राज्यों की विषय सूची में आते हैं, फिर दिल्ली की सरकार उन्हें क्यों अरबों रुपये की छूट देती है। वास्तविकता यह है कि 1991 में उदारीकरण की नीति अपनाने के बाद कृषि क्षेत्र सरकार की प्राथमिकता सूची से गायब हो चुका है। नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के चिंतकों का मानना है कि देश का कायाकल्प करने के लिए उद्योगों को बढ़ावा देना जरूरी है। तेज औद्योगिक विकास से रोजगार के नये अवसर सृजित होंगे और जनता खेती छोड़ उद्योगों से जुड़ेगी। आर्थिक विकास की रफ्तार बढ़ने का लाभ अंतत: गरीबों और किसानों को भी मिलेगा, लेकिन तथ्य इस बात की पुष्टि नहीं करते हैं। पिछले दस साल में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। इसके बावजूद इस क्षेत्र में केवल 1.5 करोड़ नौकरी मिली। हर साल औसत 15 लाख नौकरी। इस अवधि में गांव में रहने वाली जनता की माली हालत और खराब हुई है। अमीर-गरीब के बीच की खाई भी चौड़ी हुई है। स्थित यह है कि आज 42 प्रतिशत किसान खेती छोड़ना चाहते हैं, लेकिन उसके पास रोजगार का अच्छा विकल्प नहीं है।
रंगराजन समिति के अनुसार गांव में जिस व्यक्ति की दैनिक आय 32 व शहर में 47 रुपये से कम है, वही कंगाल (गरीबी रेखा से नीचे)की श्रेणी में आता है। नये मापदण्ड के मुताबिक अब देश की 29.5 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी के रेखा से नीचे है। इस रुपए में एक आदमी का खाने, दवा, शिक्षा, कपड़े, और स्वास्थय का खर्चा शामिल है। वहीं संयुक्त राष्ट्र के अनुसार दुनिया के 33 प्रतिशत कंगाल अकेले हिंदुस्तान में रहते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक हमारे देश में अत्यधिक गरीबों की संख्या 80 करोड़ है। यह तथ्य चौंकाता है, सरकारी दावों की पोल खोलता है। सरकारी आंकड़ों पर इसलिए भी शक होता हैक्योंकि यदि देश में कंगाल आबादी केवल 29 फीसदी है तब ताजा पारित खाद्य सुरक्षा कानून में क्यों 67 प्रतिशत लोगों को सस्ता गेंहू-चावल देने की बात कही गई है? क्या हमारी सरकार इतनी उदार है कि वह कंगाल से ऊपर की अ बादी पर सस्ता गेंहू-चावल लुटा देगी?
कंगाल और गरीबों की बात करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इंद्र देव के रऊठ जाने की मार भी सबसे ज्याटा उन पर पड़ती है। गांवों में गरीबों की स्थिति यह है किस आज देश के 60 प्रतिशत किसान रात को भूखे पेट योने को मजबूर हैं। दुःख की बात है कि देश के अन्नदाता कही जाने वाली जमात अपना और अपने बच्चों का पेट भरने की हैसियत नहीं रखती। रही-सही कसर मंहगाई ने पूरी कर दी है। सरकार ने दावा किया है कि मई के मुकाबले जून में मंहगाई घटी है, लेकिन बाजारमें खाने-पीने के समान में जिस हिसाब से आग लगी हुई है उसे देखकर कहा जा सकता है कि आगे आने वाले दिन अच्छे नहीं होंगे। फलों की कीमत में 23.17 प्रतिशत, सब्जियों में 15.27 प्रतिशत, दुग्ध उत्पादों में 11.8 फीसदी तथा मांस-मछली-अंडे में 10.11 फीसदी की वृद्धि की बात तो सर कारी आंकड़े भी स्वीकारते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की जनता को अच्छे दिनों का भरोसा दिलाया था। सत्ता संभालते ही नई सरकार को मानसून और मंहगाई से कड़ी चुनौती मिली है। इस चुनौती का सामना करने के लिए उसे अपनी प्राथमिकताओं में परिवर्तन करना पड़ेगा। अग्नीपरीक्षा में खरा उतरने पर ही भाजपा सरकार जन-विश्वास जीत सकती है।
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