अंग्रेजी हटाने से मुद्दा नहीं सुलझेगा

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By - ????? ????? |10 Aug 2014 6:30 PM
गैर-अंग्रेजी माध्यम के छात्रों की सबसे बड़ी परेशानी अनुवाद की यही अबूझ भाषा है।
संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित कराई जाने वाले सिविल सेवा परीक्षा पर जब संसद से लेकर सड़क पर सवाल उठ रहे हो तो ऐसे में सरकार द्वारा उसे मात्र दो वाक्यों के फैसले से शांत नहीं किया जा सकता। सिविल सेवा, प्ररम्भिकी परीक्षा के सीसैट पेपर के फैसले पर सरकार खुद को जितना संवेदनशील दिखा रही थी उसका फैसला उस संवेदनशीलता के एकदम उलट दिखाई दिया। अपने फैसले को संतुलित करार देते हुए सरकार ने कहा कि सीसैट में अंग्रेजी कॉम्प्रिहेंशन के आठ प्रश्नों को मेरिट का आधार नहीं बनाया जायेगा और 2011 के अभ्यर्थियों को 2015 की परीक्षा में बैठने का एक मौका और दिया जायेगा।
आश्चर्य की बात है कि सरकार इस निर्णय की देरी में जिस अरविंद वर्मा कमेटी रिपोर्ट को पढ़ने का हवाला दे रही थी, उसका इस फैसले से कोई संबंध नहीं है। उसके अनुवाद संबंधी विचार पर सरकार का कोई बयान नहीं आया जबकि अंग्रेजी को बनाए रखने की अनुशंसा को सरकार ने खारिज कर दिया। यह सही है कि कमेटी की रिपोर्ट सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है लेकिन यह भी ध्यान देने योग्य है कि यह कमेटी दीनानाथ बत्रा की पीआईएल मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश पर सीसैट के लिए नहीं, बल्कि मात्र अंग्रेजी के आठ प्रश्नों पर विचार करने के लिए बनाई गई थी। साथ ही इस तीन सदस्य कमेटी में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं था जो भारतीय भाषाओं का जानकर हो।
कमेटी की आड़ में सरकार ने मुद्दे को अंग्रेजी बनाम हिंदी के खांचे में डालकर फैसला तो सुना दिया, लेकिन दर्द जब पूरे बदन में हो तो केवल सिर दर्द की दवा से र्मज ठीक नहीं किया जा सकता। छात्रों का विरोध एक खास स्ट्रीम की ओर झुकाव से था, न कि अंग्रेजी भाषा से। यदि यह अंग्रेजी भाषा का विरोध होता तो मुख्य परीक्षा में अंग्रेजी के तीन सौ नंबर के अनिवार्य क्वालिफाइंग पेपर को हटाने के लिए भी आंदोलन हुए होते जिसमें फेल होने पर मुख्य परीक्षा की कॉपियां तक नहीं जांची जातीं, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका कारण वहां पर लेवल प्लेइंग फील्ड का होना है जिसमें अंग्रेजी, गैर-अंग्रेजी सभी माध्यम के छात्रों के लिए है कि अंग्रेजी संग किसी एक भारतीय भाषा में क्वालिफाई करना अनिवार्य है, लेकिन सरकार ने छात्रों के आंदोलन को अंग्रेजी विरोधी समझकर जो फैसला सुनाया है वह सीसैट पर सरकार की अपूर्ण जानकारी की ओर इशारा करता है। इस फैसले के बाद भी प्रीलिम्स की राह में मुख्य समस्या जस की तस खड़ी है।
अभी तक सीसैट में कुल 80 प्रश्न आते हैं और प्रत्येक प्रश्न ढाई अंक का होता है। अब प्रश्नों की संख्या 72 हो जाएगी और प्रश्नपत्र भी 200 अंकों के स्थान पर 180 अंकों का होगा। संघलोक सेवा आयोग के नियमानुसार इस पेपर में कम से कम 70 नम्बर लाना जरूरी है अन्यथा छात्र को मेरिट के लिए कंसीडर नहीं किया जाएगा। प्रश्नों की संख्या घटने पर न्यूनतम अंकों की यह लकीर छोटी होगी या नहीं, इस पर कुछ नहीं कहा गया। वहीं सामान्य अध्ययन के प्रथम प्रश्नपत्र में आयोग 200 में से 30 नम्बर पर ही संतुष्ट हो जाता है। सवाल है कि आखिर दोनों प्रश्नपत्रों में न्यूनतम अंक बराबर क्यों नहीं हैं? यह चालीस अंकों का अंतर क्यों? स्पस्ट है कि आयोग की नजर में सामान्य अध्ययन से अधिक महत्व सीसैट का है जिसका एक प्रश्न ढाई अंक है और सामान्य अध्ययन का दो अंक का।
कॉम्प्रिहेंशन के चालीस से अधिक प्रश्नों में से सरकार ने अंग्रेजी के अनिवार्य आठ प्रश्नों को तो हटाने का फैसला किया, लेकिन बाकी बचे 32 प्रश्नों पर मौन साधे रखा जिन्हें मूल रूप से अंग्रेजी में बनाकर उसका हिंदी अनुवाद किया जाता है। गैर-अंग्रेजी माध्यम के छात्रों की सबसे बड़ी परेशानी अनुवाद की यही अबूझ भाषा है। जिस पेपर में कॉन्फिडेंस बिल्डिंग का अनुवाद विश्वास भवन और लैंड रिफॉर्म का अनुवाद अर्थव्यस्था में सुधार किया जाए वहां सरकार ने अंग्रेजी की अनिवार्यता तो हटा दी, लेकिन अंग्रेजी वर्चस्व की मानसिकता को नहीं हटा सकी।
क्या आयोग की भांति सरकार की नजर में भी अंग्रेजी छोड़ किसी भाषा में ऐसा कुछ नहीं लिखा जा रहा है जिसे मूल रूप से परीक्षा में शामिल किया जा सके।यदि सरकार परीक्षा प्रणाली में कोई बड़ा फेरबदल नहीं करना चाहती थी तो कम-से-कम उसे अनुवाद संबंधी समस्या पर विचार करना चाहिए था ताकि परीक्षा में गलत अनुवाद के अनुरूप उत्तर देने पर निगेटिव मार्किंग का खामियाजा छात्रों को न भुगतना पड़े।
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