आधी सदी बाद मुक्तिबोध

मुक्तिबोध की यादें धूमिल होकर भी गुम नहीं हुई हैं। उनके व्यक्तित्व का असर जिस पर भी पड़ा, स्थायी हुआ है। यादों का कबाड़ तक मूल्यवान होता है। ऐसा पारचून इतिहास का प्राथमिक डाट होता है। अंग्रेजी साहित्य में एमए करने के दौरान मुझे कई बार इस कवि से मिलने का अवसर तलाशना पड़ा। वह औपचारिक वार्तालाप के आगे नहीं बढ़ा। 1963 में राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में मुझे प्राध्यापकी मिली। सादे कपड़ों, गंभीर मुद्रा और धीमी गति से अपने घर की सीढ़ियां उतरकर शिक्षकों के स्टाफ रूम में मुक्तिबोध और बख्शीजी के बैठने से वहां पड़ी दो आराम कुर्सियों को ही इन साहित्य-अध्यापकों का बोझ सबसे ज्यादा उठाना पड़ा। मुक्तिबोध को एक अदद र्शोता की जरूरत महसूस होती रही, जिसे वे जयशंकर प्रसाद के साहित्यिक राजप्रासाद का अवलोकन करा सकें।
मेरी आश्वस्त-उपस्थिति के बाद रोज प्रसाद से मुठभेड़ या साक्षात्कार करने स्टाफ रूम आते। नया सिरा पकड़कर ‘कामायनी’ का अलग चेहरा दिखाते। मैं रायपुर के विज्ञान महाविद्यालय का छात्र रहा था। वहां ताज़ा खुले अंग्रेजी विभाग का पुस्तकालय विपन्न था। संस्कृत महाविद्यालय में सरकारी अनुदान के कारण अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई बरायनाम होने पर भी किताबों का अच्छाखासा क्रय किया गया था। अंग्रेजी विभाग के सहायक प्राध्यापक मित्र श्यामकिशोर श्रीवास्तव के नाम पर वे पुस्तकें बिना पंजीकृत आवंटन के मुक्तिबोध और बख्शी जी के लिए थैले भर भर लाई जातीं। पुस्तकों की सूची देखकर ही हम मुक्तिबोध के मानस की पड़ताल करते पुलकित होते रहते। कविता भूगोल और इतिहास, भाषा और संस्कृति, धर्म और रूढ़ियों की परस्परता, विभिन्नता और उदासीनता के परे जाकर एक एक चरित्र के माध्यम से अंतत: मनुष्य और संभावित मनुष्य को रचती है। यह तिलिस्म साहित्य की उन गैरपेशेवर कक्षाओं में महीनों तक सीखने को मिला।
बख्शी जी कभी कभी प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, रामकुमार वर्मा वगैरह को लेकर मुक्तिबोध से जिरह करते। मतभेद होने पर मुक्तिबोध अपने जिरहनामे की मेरी क्लास लेते। लगता कि यह कवि ‘डूबते को तिनके का सहारा’ वाले मुहावरे का सहारा ले रहा है। मैंने मुहावरे वाले तिनके की भूमिका अदा नहीं की। वे मेरा सहारा पाकर पर नहीं आ सकते थे। लिहाज़ा और डूबते जाते। कवि के द्वितीय पुत्र दिवाकर छोटे भाई होने के अतिरिक्त मेरे छात्र रहे हैं। मुक्तिबोध के पुत्रों में अपने स्वनामधन्य पिता की भद्रता, विनयशीलता, अध्यवसाय और उनसे भी बढ़कर उपेक्षा के प्रति सहिष्णु रहने के जीन्स पूरी तौर पर अवतरित हुए हैं। बड़े पुत्र रमेश ने पिता के फक्कड़पन, व्यवस्थाविद्रोह और अनिश्चय के कारण कठिनाइयां झेली हैं। वे मूल गुण भी उन्हें उत्तराधिकार में मिले।
रमेश ने बहुत जतन के साथ मुक्तिबोध के लिखे पुरजे पुरजे को संभालकर उसे इन पचास वर्षों तक प्रकाशित करते रहने का धीरज, संबल और कर्तव्य का उदाहरण पेश किया है। पुत्रों के मुक्तिबोध इसलिए सबके हैं। कई लेखकों के वंशज अपने पूर्वजों के मारक सिद्ध होते हैं। वे निजी पितृत्व और सार्वजनिक पितृत्व की विभाजक रेखा को समझ नहीं पाते। पत्रकारिता में रहकर भी दिवाकर में उस शाइस्तगी को देखा जाता रहा जिसका मुक्तिबोध भी उदाहरण रहे हैं। ‘अंधेरे में’ कविता का मुझ पर इतना प्रभाव हुआ है कि मैं उसे किसी भी समाजचेता कविता का टचस्टोन कसौटी बनाता रहता हूं। मुझे पहली बार लगा कि कविता हमारे पूरे अस्तित्व को न केवल झकझोर सकती है, बल्कि हमें वंशानुगत और पूर्वग्रहित धारणाओं तक की सभी मन:स्थितियों से बेदखल भी कर सकती है। यह कविता भारतीय जनता का लोकतांत्रिक घोषणापत्र है। उसकी अभिव्यक्ति, निष्पत्ति और उपपत्ति उन तानोंबानों से बुनी है जो एक मनुष्य को दूसरे से अविर्शृंखलित मानव तारतम्यता से जोड़ती है।
उस पौष का उद्घाटन हिन्दुस्तान की लोकशाही में जनता की यंत्रणा भोगती अनुभूतियों में न जाने क्यों उग नहीं रहा है? पराजित, पीड़ित और नेस्तनाबूद आस्थाओं और उद्दाम संभावनाओं की उर्वरता के यौगिक बिखेर देना भी कविता की रचनात्मक जिम्मेदारी होती है। ‘अंधेरे में’ को जितनी बार और जितनी तरह से पढ़ा जाए उसकी दृश्यसंभावनाओं, नाटकीयता और अतिरेक लगती संभाव्यता में मुक्तिबोध की कलम की बहुआयामिता का अनोखा और अकाट्य साक्ष्य गूंजता रहता है। मुक्तिबोध के गद्य में दुनिया के चिंतकों के विचारों को साझा करने की गहरी कशिश झलकती है। पत्रकार मुक्तिबोध ने भारत के बाहर की घटनाओं पर अपनी टिप्पणियों में अंतर्राष्ट्रीय समझ का खाका खींचने की कोशिशें की हैं। उनमें समय के आगे चलकर इतिहास को बूझने की शक्ति थी। उसकी वैज्ञानिक अभिव्यक्ति उन्होंने खुद से जद्दोजहद करती तराशी हुई भाषा में परवर्ती पीढ़ियों और विश्व बिरादरी के लिए परोसने की कोशिश की है। यही कारण है कि उनके साहित्य का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुकूलता की समझ के साथ अनुवाद हुआ है। वह केवल पढ़ा नहीं जाता। आत्मसात भी किया जा रहा है।
कई अनुवाद पढ़ने पर आयातित या अतिथिभाव के लगते हैं, नामों, स्थानीय संस्कृति, सामाजिक आदतों वगैरह कारणों से। यदि केन्द्रीय भाव व्यापक मनुष्यता को ही अपना प्रतिनिधि आयाम समझता हो तो अनुवादित रचना मूल का आस्वाद देती है। मुक्तिबोध भौगोलिक सीमा में बंधे केवल भारतीय कवि नहीं हैं। उन्हें विश्व कविता की समझ के एक प्रयोगशील हस्ताक्षर की तरह समझा जाना चाहिए। मैं मुक्तिबोध से कहता कि उनके आलोचना पक्ष को कभी न कभी तो बूझ लूंगा, लेकिन जीवन उनकी कविताओं से जूझते ही चला जाएगा। वे खिलखिला उठते और पूछते कि आखिर गद्य की ग्राह्यता का क्या तिलिस्म है। मैंने समझाने की गवरेक्ति में कहा था कि गद्य मेरे लिए ग्लैशियर की तरह है। वह पर से बर्फ के चट्टानी होने का बोध कराता है। तह के नीचे पानी ही पानी भरा होता है। उसकी तरलता, आर्द्रता, शीतलता और अतलबोधगम्यता से इंकार नहीं किया जा सकता। मुक्तिबोध कुछ कह पाते, उसके पहले अनगढ़ अंदाज़ में मैं यह भी कह पाया कि ठहरे हुए जल में नहाने वाले उद्दाम नदी, वर्षा या हहराता हुआ झरना बनकर भिगोती कविता से गीला होना मेरी नियति नहीं है। मुक्तिबोध कहते यह शब्द-छल है। आप मेरी कविता से आजिज नहीं हुए हैं। अब भी सोहबत में हैं। सच है पचास वर्षों बाद मैं अब भी मुक्तिबोध की सोहबत में डूब उतरा रहा हूं। मुक्तिबोध ही छोड़कर चले गए। इलाही वे सूरतें किस देश बसतियां हैं। जिनके देखने को आंखें तरसतियां हैं।
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