विज्ञान को दिशा की जरूरत, शोध कार्यों के लिए नहीं होगी फडिंग की कमी

विज्ञान को दिशा की जरूरत, शोध कार्यों के लिए नहीं होगी फडिंग की कमी
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विकास के लिए विज्ञान जरूरी है। शोध कार्यों के लिए फंडिग की कमी नहीं होनी चाहिए।

भारतीय विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा है कि- ‘भारतीय वैज्ञानिकों की उपलब्धियों पर हमें गर्व है। पहली ही कोशिश में मंगल पर पहुंचना हमारी बड़ी कामयाबी है। पर यह भी सच है कि अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। विज्ञान का लाभ देश के हर तबके तक पहुंचना चाहिए। विज्ञान से गरीबी दूर करने में मदद मिलेगी। विकास के लिए विज्ञान जरूरी है। शोध कार्यों के लिए फंडिग की कमी नहीं होनी चाहिए।’इस बार इसका आयोजन मुंबई विश्वविद्यालय में किया गया। इस अधिवेशन का मुख्य विषय ‘मानव विकास के लिए विज्ञान और तकनीक’ रखा गया था। पर्यावरण, स्वास्थ्य, और विकास, जलवायु परिवर्तन और समाज, आपदा प्रबंधन, शहरी विकास, जैव विविधता का संरक्षण, प्राचीन भारतीय विज्ञान, योग और न्यूरो साइंस आदि पर भी चर्चा की गई। इसमें लगभग बारह हजार प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।

हर साल जनवरी के पहले हफ्ते में भारतीय विज्ञान कांग्रेस अपना वार्षिकोत्सव मनाती है। कोई भी सदस्य दस पंक्तियों का सारांश लिखकर इसमें भाग ले सकता है। कुछ विदेशी प्रतिनिधि भी बुला लिए जाते हैं। प्रचार के लिए प्रधानमंत्री से इसका उद्घाटन करा लिया जाता है। वास्तव में इस प्रकार की संस्था से भारतीय विज्ञान को कोई भी लाभ नहीं हो रहा है। होना तो यह चाहिए था कि इसमें देश के वैज्ञानिक संस्थानों व राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के वैज्ञानिक मिलते और देश की समस्याओं पर चर्चा करके अपने-अपने क्षेत्र में अनुसंधान और विकास की भावी रूपरेखा प्रस्तुत करते। सरकार भी उन्हें यह बताती कि देश में किन-किन क्षेत्रों में कैसी समस्याएं हैं और उनके समाधान के लिए किस तरह के शोध और विकास की जरूरत है। वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की संख्या की दृष्टि से भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है लेकिन सारा का सारा वैज्ञानिक साहित्य पश्चिमी देशों के वैज्ञानिकों के कार्यों से भरा पड़ा है। विज्ञान और तकनीक के योगदान के मामले में भारत दुनिया में इक्कीसवें नम्बर पर है। इस रैंकिंग का आधार यह है कि कौन सा देश वैज्ञानिक शोध में कितनी हिस्सेदारी कर रहा है। यह हिस्सेदारी अनुसंधान पत्रों से तय होती है।
विज्ञान और तकनीक में किसी देश के योगदान को वैज्ञानिक एवं तकनीकी विषयों में पीएचडी करने वालों की संख्या से भी मापा जा सकता है। इस मामले में भारत की स्थिति अच्छी नहीं है। हमारे पास सीएसआईआर जैसी संस्था है, कई स्तरीय अनुसंधान केन्द्र हैं और विश्वविद्यालयों में विज्ञान के विभाग भी हैं, लेकिन सीएसआईआर का एक सर्वे बताता है कि हर साल जो करीब तीन हजार अनुसंधान पत्र तैयार होते हैं, उनमें कोई नया आइडिया नहीं होता। वैज्ञानिकों तथा वैज्ञानिक संस्थानों की कार्यकुशलता का पैमाना वैज्ञानिक शोध पत्रों का प्रकाशन तथा पेटेन्टों की संख्या है, लेकिन इन दोनों ही क्षेत्रों में गिरावट आई है। भारत में सील किए गए पेटेन्टों की संख्या 1999-2000 में 1890 से गिर कर 2000-2010 में 1881 रह गई है, जबकि रिसर्च एवं डेवलपमेंट (आर एंड डी) पर खर्च बढ़ता जा रहा है। पिछले 10 वर्ष में यह 232 प्रतिशत बढ़ गया है। आंकड़ों से पता चलता है कि 2010 में भारत में कृषि, जीव, विज्ञान, मेडिकल साइंस, रसायन शास्त्र, गणित, भौतिक विज्ञान, इंजीनियरी तथा भू-विज्ञान में शोध पत्रों में भारत का योगदान केवल 2.2 प्रतिशत रहा।
देश के कई वैज्ञानिक संस्थानों और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं पर ऐसे मठाधीशों का कब्जा है जिनका अकादमिक कार्य इस स्तर का नहीं है कि वे किसी संस्थान के निदेशक बनाए जाए लेकिन अपनी पहुंच के बल पर वे वैज्ञानिक अनुसंधान के मुखिया बने हुए हैं। विज्ञान की दुनिया में जोड़ घटाकर यों ही कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है। विज्ञान में कुछ करने का मतलब है कि कोई नई खोज या आविष्कार किया जाए। लेकिन राजनीतिक तिकड़म और भाई-भतीजावाद से ग्रस्त लोग वैज्ञानिक संस्थानों, प्रयोगशालाओं एवं केन्द्रों के मुखिया होंगे तो क्या होगा? शायद इन्हीं सब कारणों से वैज्ञानिक समुदाय में कुंठा बढ़ रही है, जो त्यागपत्रों व आत्महत्या के रूप में भी समय-समय पर सामने आ चुकी है। यह कोई अकारण नहीं है, जिन भारतीय वैज्ञानिकों ने नाम कमाया है, वे विदेशों में बस चुके हैं। लगभग दस लाख भारतीय वैज्ञानिक डॉक्टर और इंजीनियर आज देश से बाहर काम कर रहे हैं। आज भी प्रतिभा पलायन से अरबों डालर का नुकसान हो रहा है।
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