अपनी धरती को बचाइए, अमेरिका और चीन ने किया समझौता

नई दिल्ली. बीजिंग में अमेरिका और चीन के बीच हुए पर्यावरण समझौते से धरती के बढ़ते हुए तापमान पर लगाम लगेगी। दोनों देश ग्रीनहाउस उत्सर्जन को सीमित करने के लिए कई कड़े कदम उठायेंगे ये समझौता करके दोनों देशों ने सभी को चौंका दिया। समझौता परवान चढ़ा तो एक अनुमान के मुताबिक भविष्य में वैश्विक तापमान तीन डिग्री की बढ़त पर ही सीमित रहेगा। नए घटनाक्रम में पर्यावरण परिवर्तन पर होने वाली बातचीत से भारत खुद को चीन से अलग करने का अपना रुख बदल सकता है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कई दौर की सघन वार्ता के बाद 2020 तक पर्यावरण में बदलाव को रोकने के लिए कई कड़े कदम उठाने की घोषणा की है। अब भारत को भी अपने यहां पर्यावरण सुधार के लिए कड़े कदम उठाने होंगे।
अमेरिका और चीन के इस समझौते के तहत अमेरिका 2025 तक गैसों के उत्सर्जन में 26 से 28 प्रतिशत की कमी करके इसे वर्ष 2005 के स्तर पर ले आयेगा। वह उत्सर्जन को 28 फीसदी कम करने के लिए पुरजोर प्रयास करेगा। दूसरी ओर चीन ने इरादा जताया है कि वह कार्बन डाईआॅक्साइड का उत्सर्जन 2030 तक कम कर लेगा। इस लक्ष्य को जल्दी पाने के लिए वर्ष 2030 तक गैर जीवाश्म र्इंधन के इस्तेमाल में 20 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी करेगा। यह पहला अवसर है जब चीन कार्बन डाईआॅक्साइड के अधिकतम उत्सर्जन को रोकने पर राजी हुआ है। 2012 में हुए सर्वे के अनुसार जीवाश्म र्इंधन से होने वाले प्रदूषण में चीन का 27 प्रतिशत, अमेरिका का 14, यूरोपीय संघ का 10 और भारत का सिर्फ 6 फीसदी योगदान है। चीन और अमेरिका के बीच हुए समझौते के बाद अब वैश्विक पर्यावरण के मंच पर भारत चीन का साथ दे सकता है। पर्यावरण का खतरा एक समस्या है। जलवायु बदल रही है। खाद्यान्न उत्पादन घट रहा है। प्राकृतिक आपदाएं बार-बार और ज्यादा तीव्रता के साथ आ रही हैं। अब अमेरिका और चीन के बीच कार्बन उत्सर्जन पर कटौती की सहमति बन जाने से अन्य देशों पर भी दबाव बढ़ेगा।
अब देखना यह है कि चीन और अमेरिका के इस समझौते से दिसंबर 2015 में होने वाले पेरिस सम्मेलन पर क्या प्रभाव पड़ता है? यदि कोई रचनात्मक समझौता हो जाता है तो वह पर्यावरणीय लक्ष्यों की पूर्ति में सहायक होगा। भारत किसी भी अंतरराष्ट्रीय समझौते में समानता के सिद्घांत का चैम्पियन रहा है किंतु इस मुद्दे पर वह अफ्रीकी समूह द्वारा पेश एक ठोस प्रस्ताव का विरोध कर रहा है। यह नासमझी भरा रुख है। ब्राजील ने भी तमाम देशों के लिए जिम्मेदारी निर्धारित करते हुए एक नई प्रस्तावना पेश की है और भारत इसका भी विरोध कर रहा है। भारत को विश्व जगत के साथ मिलकर चलने के साथ-साथ घरेलू स्तर पर जनस्वास्थ्य और जीविकोपार्जन की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे। तीव्र विकास तो जरूरी है ही, किंतु यह टिकाऊ भी होनी चाहिए। भारत में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की दर काफी तेज है और एक दशक में भारत की हिस्सेदारी यूरोपीय संघ के बराबर पहुंच जायेगी। इसलिए केवल इस बिना पर कि भारत का मामला अलग तरह का है, इस समझौते की अहमियत को खारिज करना निरी नासमझी होगी।
आज मानव जाति को सर्वाधिक खतरा पृथ्वी के पर्यावरण विनाश के चलते ही है। और इससे बचाव का रास्ता आसान नहीं। इसी भीषण अहसास के कारण 150 राष्ट्रों के अध्यक्षों ने रियो दि जनेरो में 3 जून से 14 जून तक आयोजित ऐतिहासिक शिखर सम्मेलन में विचार विमर्श किया था पर उनके बीच कोई आम सहमति नहीं बन सकी। शिखर सम्मेलन में विकसित और विकासशील देशों के बीच काफी मतभेद उभरे कि समस्या को किस प्रकार सुलझाया जाय। राष्ट्रों के बीच विचारों की खाई इतनी अधिक रही है कि पहले के सैनिक गठजोड़ों की तरह नये गठबंधन उभरने लगे हैं। पर्यावरण एकाएक ही विदेश नीति का प्रमुख मुद्दा बन गया है। इस विवाद से निपटने के लिए खोजा गया कोई भी निदान प्रत्येक राष्ट्र के आर्थिक विकास पर बुनियादी प्रभाव डालेगा। इसलिए अगले कुछ वर्षों तक मामला अटका रहा। विकासशील देशों के सामने कई समस्यायें हैं। इससे राष्ट्रों को ऊर्जा खपत के अपने ढांचों में महत्वपूर्ण बदलाव लाने पड़ सकते हैं।
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