सम्मान को तरसती विधवा

सम्मान को तरसती विधवा
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सांसद और अभिनेत्री हेमा मालिनी इन दिनों अपने एक बयान को लेकर चर्चा में हैं।
सांसद और अभिनेत्री हेमा मालिनी इन दिनों अपने एक बयान को लेकर चर्चा में हैं। विधवाओं पर काम करने वाले संगठनों ने हेमा मालिनी को समाज में हाशिए पर धकेल दी गई विधवाओं के प्रति असंवेदनशील कहकर कटघरे में खड़ा कर दिया है। मामले को तूल पकड़ते देख हेमा मालिनी ने कहा कि उनका आशय यह था कि राज्य सरकारों को भी विधवाओं की मदद करनी चाहिए। हाल ही में उत्तर प्रदेश के मथुरा संसदीय क्षेत्र से सांसद हेमा मालिनी वृंदावन में एक आश्रम का दौरा करने गई थीं और उसकी खस्ताहालत देखने के बाद सांसद ने कहा कि अच्छे परिवारों से होने के बाद भी विधवाओं भीख मांगनी पड़ती है। उन्होंने यह भी कहा कि बंगाल और बिहार की विधवाओं को वृंदावन में आकर भीड़ नहीं बढ़ानी चाहिए। वृंदावन में 40,000 विधवाएं हैं। मुझे नहीं लगता कि शहर में और विधवाओं के लिए जगह है। इनकी बड़ी तादाद बंगाल से आ रही है। यह ठीक नहीं है, बंगाल सरकार उनके लिए व्यवस्था क्यों नहीं करती? ऐसा ही बिहार में भी है।’ सांसद हेमा मालिनी के इस बयान की आलोचना हुई तो उन्होंने अपने बचाव में कहा कि राज्य सरकारें उनके लिए सुविधाएं उपलब्ध क्यों नहीं करा रही हैं।
मथुरा जैसी पावन नगरी में कई साल पहले उनके बसने की वजह उनका अपने इलाके की बस्तियों, परिवारों से सामाजिक बहिष्कार या उनकी निजी प्राथमिकता रही होगी। एक चुने हुए जनप्रतिनिधि का दायित्व समाज के कमजोर तबकों के कल्याण के प्रति अतिरिक्त कोशिशें करना होता है ना कि उन्हें सामाजिक रूप से अस्वीकार करना। इसे हम अपने आजाद मुल्क व तथाकथित आधुनिक समाज की विडंबना ही कहेंगे कि आज भी परिवार व समाज में भेदभावों की शिकार विधवाओं के लिए प्रतीकात्मक कदम उठाने पर ही हम ठिठके हुए हैं। उनके सामाजिक-आर्थिक हालात पर कई सरकारी रपटें भी पारदर्शी अंदाज में लिखी गई हैं।
गौरतलब है कि मथुरा जिले के जिला विधिक सेवा प्राधिकरण ने राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के आदेश पर मथुरा, वृंदावन में विधवाओं की जिंदगी पर एक सर्वे किया था और जिला विधिक सेवा प्राधिकरण ने 3151 बेसहारा महिलाओं से बातचीत करने के बाद पाया कि इनमें से अधिकतर पश्चिम बंगाल के उस इलाके से हैं, जहां के रूढ़िवादी परिवारों ने उन्हें पति की मौत के बाद वृंदावन में पवित्र विधवा जिंदगी जीने को मजबूर किया। अधिकतर मामलों में विधवाओं को पुनर्विवाह की इजाजत नहीं दी जाती। उन्हें पति/ससुराल का घर छोड़ने के लिए इसलिए भी बाध्य किया जाता है ताकि वे जयदाद में अपना हक न मांगे और उनकी देखभाल व गुजाराभत्ते से छुटकारा मिल सके। उन्हें गैर उत्पादक इकाई मानकर बोझ समझा जाने लगता है। कई विधवाओं को इस कदर शारीरिक, मानसिक यंत्रणाएं दी जाती हैं कि वे तंग आकर घर छोड़ देती हैं। जहां तक सरकारी भत्ते का सवाल है, वह उन तक नियमित व पूरा नहीं पहुंचता और वह रकम आज की महंगाई में बहुत ही कम है।
सर्वोच्च अदालत में वृंदावन की विधवाओं से जुड़े एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान न्यायाधीशों ने कहा भी कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है। मुझे दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि हो सकता है, वहां दलाल हों। हो सकता है विधवाओं के नाम का पैसा कोई और निकाल रहा हो। राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा सहायता कार्यक्रम, अंत्योदय योजना और फूड मनी योजना के तहत मिलने वाली छोटी रकम भी अकसर उन तक नहीं पहुंच पाती, जिस पर उनका हक है। उनकी अनपढ़ता, जागरूकता की कमी और उन्हें मिलने वाले सरकारी अनुदान में चोरी आदि कारण हैं। आंकड़ें बताते हैं कि वृंदावन में करीब 75 प्रतिशत विधवाएं पश्चिम बंगाल से हैं। आश्रम में रहने वाली करीब 1000 विधवाओं को दिल्ली की सुलभ इंटरनेशनल संस्था 2000 रुपये हर महीने देती है। उन्हें सिलाई भी सिखाई जाती है और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए वैन भी उपलब्ध कराई गई है। इस संस्था का दावा है कि अब ये विधवाएं बाहर भीख मांगने नहीं जातीं। यहां रहने वाली अधिकांश विधवाएं गरीब परिवारों और पश्चिम व पूर्वी बंगाल से लगी सीमाओं पर बसे जिलों से हैं। ग्रामीण परिवेश की इन गरीब विधवाओं के लिए गांव तो क्या शहरों तक में कोई रोजगार नहीं था।

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