दल की आलोचना देश की न बने, अलोचना राजनीतिक दलों का संवैधानिक अधिकार

दल की आलोचना देश की न बने, अलोचना राजनीतिक दलों का संवैधानिक अधिकार
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नरेन्द्र मोदी के आठ महीने के शासन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
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राजनीति में अपने विरोधी की आलोचना किसी भी राजनीतिक दल का संवैधानिक अधिकार है। लेकिन हर अधिकार की तरह यह अधिकार भी जिम्मेदारी की अपेक्षा करता है। राजनीतिक दल आलोचना करते समय इस पहलू को अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं। इसलिए दल की आलोचना कब सीमा पार करके देश की आलोचना में बदल जाती है उन्हें पता ही नहीं चलता। पिछले साठ दशकों में भारत और अमेरिका के संबंध इतने अच्छे कभी नहीं रहे हैं जितने नरेन्द्र मोदी की आठ महीने की सरकार के समय बने हैं। संबंधों की यह प्रगाढ़ता दोनों देशों के लिए परस्पर लाभ पहुंचाने वाली है। लेकिन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पीआर लगता है। सवाल उठता है कि आखिर क्यों?

भारत-अमेरिका के रिश्तों में पिछले करीब पांच सालों में पहले एक ठहराव और फिर ठंडापन आ गया था। डा. मनमोहन सिंह और जार्ज बुश के समय नागरिक परमाणु ऊर्जा करार दोनों देशों के संबंधों को एक नये शिखर पर ले गया था। उसके बाद अमेरिका आर्थिक मंदी के कारण अपने घरेलू और दूसरी अंतरराष्ट्रीय समस्याओं में फंस गया था। भारत में मनमोहन सिंह नख-दंत विहीन होते गए। हालांकि पहले भी वे इससे कोई बहुत अच्छी स्थिति में नहीं थे। लेकिन घोटालों और सोनिया गांधी की उनके प्रति उदासीनता ने उन्हें चार साल तक सिर्फ पद की शोभा बढ़ाने वाला प्रधानमंत्री बना दिया था। जो बातें कानाफूसी के स्तर पर कही जाती थीं उसे जयंती नटराजन ने सार्वजनिक तौर पर उजागर कर दिया है। यूपीए की सरकार दरअसल सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इशारों, निर्देशों पर काम कर रही थी। फैसले गांधी परिवार लेता था और उस पर अमल की जिम्मेदारी सरकार की थी। इसलिए जो फैसले लेते थे उनकी कोई जवाबदेही नहीं थी और जिनकी जवाबदेही थी वे फैसले नहीं ले सकते थे। भारत से अमेरिका के संबंधों में उतार चढ़ाव आता रहा है। दोनों देशों के संबंध सुधरने की शुरुआत 1991 में पीवी नरसिंह राव के समय आर्थिक उदारीकरण के दौर से हुई थी। उस समय राव तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को गणतंत्र दिवस की परेड पर मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाना चाहते थे। लेकिन क्लिंटन ने यह कह कर मना कर दिया था कि इसी समय उनका स्टेट ऑफ यूनियन संबोधन होता है। उसे वे टाल नहीं सकते। मोदी ओबामा के दौर में दोनों देशों के संबंधों में सुधार और अमेरिका की नजर में भारत की अहमियत का इसी बात से पता चलता है कि ओबामा ने स्टेट ऑफ यूनियन संबोधन की तारीख बदल दी। किसी भी अमेरिका राष्ट्रपति के लिए यह संबोधन बहुत अहम होता है।
केंद्र में अटल बिहारी वाजयेपी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्निक गठबंधन की सरकार 1998 में बनी तो उसने पहला काम परमाणु विस्फोट करने का किया। अमेरिका सहित बहुत से देशों ने भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए। उस माहौल में 1998 में ही वाजपेयी अमेरिका गए और अमेरिका को भारत का स्वाभाविक सहयोगी बताया। उससे दोनों देशों के संबंधों की गाड़ी फिर से पटरी पर आ गई। वाजपेयी का यह बयान भारत की विदेश नीति में एक निर्णायक मोड़ था। यह बयान इस बात की घोषणा था कि भारत गुटनिरपेक्षता के दौर से बाहर निकल गया है। क्लिंटन वाजपेयी की केमिस्ट्री ऐसी बनी कि न केवल भारत से आर्थिक प्रतिबंध हटे बल्कि नागरिक परमाणु संधि की शुरुआती बात भी हुई। लेकिन उसके बाद क्लिंटन की पार्टी अमेरिका में चुनाव हार गई और वाजपेयी भारत में। इसके बावजूद दोनों देशों ने एक दूसरे के करीब आने का प्रयास बंद नहीं किया। मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी यूपीए सरकार और अमेरिका के नये राष्ट्रपति जार्ज बुश ने दोनों देशों के संबंधों को क्लिंटन-वाजपेयी के दौर से आगे बढ़ाया।
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नरेन्द्र मोदी के आठ महीने के शासन की सबसे बड़ी उपलब्धि, जो सबको नजर आती है, वह विदेश नीति के मोर्चे पर उनकी कामयाबी है। दिल्ली स्थित हैदराबाद हाउस में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टहलते हुए और चाय पीते देखकर ऐसा लग रहा था जैसे बिछड़े हुए दोस्त मिले हों। इतने कम समय में ऐसी दोस्ती दोनों नेताओं की दोनों देशों को करीब लाने की इच्छाशक्ति को दर्शाता है। संबंध, खासतौर से देशों के संबंध वही स्थायी होते हैं जो परस्पर लाभकारी हों। भारत अमेरिका सबंध पीएल-480 के गेहूं से निकलकर अब बराबरी के स्तर पर आ गए हैं। अब भारत एक याचक की मुद्रा में नहीं है। वह अमेरिका से कुछ चाहता है तो बदले में अमेरिका को कुछ देने की की भी स्थिति में भी है। ओबामा के शब्दों में भारत- अमेरिका ग्लोबल पार्टनर हैं। ये दो शब्द देश की अर्थव्यवस्था, सामरिक जरूरतों, प्रौद्योगिकी और दूसरे कई क्षेत्रों में संभावना के बहुत सारे द्वार खोलते हैं। सामरिक आर्थिक रूप से दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश और सबसे पुराने जनतंत्न से संबंधों की प्रगाढ़ता दोनों देशों के लिए ही नहीं पूरी दुनिया के लिए शुभ संकेत है। इसका र्शेय नरेन्द्र मोदी को तो जाता ही है लिकन असली र्शेय उस जनादेश को जाता है जिसने मोदी को यह ताकत दी है।
कांग्रेस या विपक्षी दलों को क्या यह सब नजर नहीं आता। नजर तो आता है लेकिन वे इस वास्तविकता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उन्हें अमेरिका से कोई परहेज ( वाम दलों को छोड़कर) नहीं है और न ही दोनों देशों के संबंधों की प्रगाढ़ता पर कोई एतराज है। उन्हें एतराज इस बात पर है कि इसका र्शेय मोदी को क्यों मिल रहा है। राहुल गांधी जब कहते हैं कि मोदी अपना पीआर ( निजी प्रचार) कर रहे हैं तो दरअसल उसके पीछे सोच यही है। कांग्रेस और कई दूसरे राजनीतिक दल अभी तक 2014 के लोकसभा चुनाव के जनादेश को स्वीकार नहीं कर पाए हैं। इसलिए वे कभी इसे पीआर कहते हैं तो कभी इवेंट मैनेजमेंट कह कर उसके महत्व को कम करने की कोशिश करते हैं। राहुल गांधी और उनकी पार्टी सच का सामना करने से कतरा रही है। इस कोशिश में वे दल की आलोचना और देश की आलोचना में फर्क ही नहीं कर पा रहे हैं। पता नहीं उन्हें इस बात का एहसास कि नहीं कि ऐसा करके वे मोदी का नहीं अपना, अपने दल और देश तीनों का नुक्सान कर रहे हैं। अपने विरोधी की कभी कभी प्रशंसा भी राजनीतिक रणनीति होती है।
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