आतंक पर वार्ता से भय क्यों

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By - ????? ????? |23 Aug 2015 6:30 PM
पाकिस्तान आतंकवाद पर बातचीत नहीं करना चाहता, क्योंकि वह खुद बेनकाब हो जाएगा।
पाकिस्तान आतंकवाद पर बातचीत नहीं करना चाहता, क्योंकि वह खुद बेनकाब हो जाएगा। हालांकि खुद पाकिस्तान आतंकवाद से छिला पड़ा है, हजारों मासूमों का कत्लेआम हो चुका है, न जाने क्यों फिर भी वह आतंकवाद पर विर्मश करने से कतराता है। भारत-पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों (एनएसए) के दरमियान बातचीत होनी ही नहीं थी, लिहाजा वह रद हो गई, तो कोई अचंभा नहीं हुआ है। चूंकि एनएसए स्तर की बातचीत नहीं हो सकी है, लिहाजा पाकिस्तान अब अमेरिका के सामने रोना रो सकता है। संयुक्त राष्ट्र में अपने तीन डोजियरों के जरिए, भारत की खुफिया एजेंसी रॉ के पाकिस्तान में दखल और आतंकी हरकतों का खुलासा कर सकता है। पाकिस्तान ऐसा करे। उसे द्विपक्षीय स्तर पर ऐसा करने का मौका मिला था, तो उसने भारत के आतंकी प्रयासों को बेनकाब क्यों नहीं किया? भारत की गिरफ्त में तो जिंदा आतंकी है, जो उधमपुर (जम्मू) के आतंकी हमले में शामिल था और जो कसाब (26/11 मुंबई आतंकी हमले का फांसी पर लटका आतंकी) की तरह ही पाकिस्तान का नागरिक है। आतंकवाद की यही हकीकत पाकिस्तान को बेनकाब करती है। इसके अलावा, भारत ने 50 से ज्यादा आतंकियों और खैबर इलाके के मरकज तैयबा समेत चार दर्जन से ज्यादा आतंकी अड्डों के ब्योरों के डोजियर तैयार कर रखे हैं, जिनके सबूत भी संलग्न हैं। ये डोजियर अति गोपनीय दस्तावेज होते हैं, जो दो देश आपस में एक-दूसरे को सौंपते हैं। इन्हें प्रेस रिलीज की तरह लहराया नहीं जाना चाहिए। इससे आतंकवाद पर पाक की गंभीरता साबित होती है। दरअसल, यही फर्क है भारत और पाकिस्तान के आतंकवाद पर रुख का। भारत सब कुछ सामने रखना चाहता है, जबकि पाकिस्तान रहस्यों की खाल ओढ़े रखना चाहता है।
रूस के उफा शहर में भारत-पाक के प्रधानमंत्रियों के बीच सहमति बनी थी कि शुरुआत आतंकवाद और उससे जुड़े मुद्दों पर दोनों देशों के एनएसए की बातचीत से ही की जाए, लेकिन पाकिस्तान लौट कर वजीरे आजम नवाज शरीफ को अपनी जुबान क्यों पलटनी पड़ी? जाहिर है कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख राहिल शरीफ और खुफिया एजेंसी आईएसआई समेत दूसरे ताकतवर लोगों ने हस्तक्षेप किया होगा कि सिर्फ आतंकवाद पर बातचीत से तो पाकिस्तान ही नंगा होगा। लिहाजा कश्मीर का मुद्दा जोड़ा गया और उसी के साथ हुर्रियत कॉन्फेंस के नेताओं से भी मुलाकात की कवायद शुरू हुई। इस बदलाव से अब यह साबित हो गया है कि पाकिस्तान में नवाज ही आखिरी अधिकृत शक्ति नहीं हैं। फौज ने उफा समझौते को अनधिकृत साबित कर दिया, लिहाजा आखिरी तौर पर अधिकृत फौज और आईएसआई ही हैं। यह महज प्रलाप नहीं है। खुद पाकिस्तान ने ही ऐसा मौका दिया है। भारत और अन्य देशों को भी अब इसे मान लेना चाहिए। खासकर भारत अब सोचे कि पाकिस्तान के संदर्भ में किससे बात की जाए-हुकूमत या फौज?
यह भी विचार करना पड़ेगा कि हम फौज से बात करेंगे या नहीं, क्योंकि हम तो दुनिया के सर्वर्शेष्ठ लोकतंत्रों में से एक हैं, जबकि पाकिस्तान में जम्हूरियत फिलहाल सतही है। अब इस अवधारणा में भी संशोधन होना चाहिए कि पाकिस्तान हमारा पड़ोसी है, लिहाजा बातचीत जारी रखनी चाहिए। कुछ वक्त के लिए पाकिस्तान को उसके हालात पर छोड़ देना चाहिए। आतंकवाद और घुसपैठ का सिलसिला तो रुकने वाला नहीं है। उफा समझौते के बाद से एनएसए की बातचीत होने तक पाकिस्तान ने 91 बार संघर्षविराम का उल्लंघन किया है। यह तथ्य खुद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने पेश किया था। अब पाकिस्तान से कड़क भाषा में पूछा जाना चाहिए कि भविष्य में वह बातचीत फौज से पूछकर करेगा या नवाज शरीफ वाली हुकूमत की भी कोई हैसियत होगी? पड़ोसी और बातचीत वाली अवधारणाएं पुरानी हैं। अब नए अंदाज से सोचना पड़ेगा और पाकपरस्त आतंकी साजिशों और हमलों का उन्हीं की भाषा में जवाब देना पड़ेगा।
दरअसल, प्रोटोकॉल का तकाजा यह होता है कि जो मेजबान तय करे, उसी एजेंडे के मुताबिक बातचीत होनी चाहिए। इसीलिए कई दिन पहले मेहमान देश का एजेंडा मंगवाया जाता है। पाकिस्तान ने 22 दिनों तक तो भारत के एजेंडे का जवाब ही नहीं दिया। आखिरी दिनों में जो भी बोला, अड़ियल रुख के साथ और छाती ठोंकते हुए। इस अंदाज में बातचीत भी संभव नहीं है और न ही यह कूटनीति की शैली और भाषा है। चूंकि अब एनएसए की बातचीत रद्द हो चुकी है, तो भारत की मोदी सरकार को हुर्रियत नेताओं को दो टूक भाषा में समझा देना चाहिए कि वे इस देश में रहना चाहते हैं या नहीं। हुर्रियत नेता पाकिस्तान के मेहमान नेताओं से अब मिलते रहे हैं, जब मेहमान हमारे देश के दौरे पर होते थे। वार्ता या ऐसे संवाद के दौरान तीसरे पक्षकार के तौर पर हुर्रियत वाले सामने नहीं आ पाए हैं।
अब केंद्र में सरकार का नेतृत्व नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। उस सरकार की विदेश नीति अतीत से भिन्न है, तो हुर्रियत को भी उसी का पालन करना पड़ेगा, यह कानूनन बाध्यता है। बहरहाल, बातचीत भंग होने को न तो दुर्भाग्यपूर्ण माना जाए और न ही अफसोस मनाया जाए। पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय करतूतों का जवाब देने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
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