आंकड़ों में भारत की आर्थिक तस्वीर

जीडीपी गणना के लिए आधार वर्ष में बदलाव किया है। देश में आधार वर्ष में हर पांच साल में परिवर्तन करने की परिपाटी है। अर्थशास्त्रियों का मानना है कि देश की सही आर्थिक तस्वीर पेश करने के लिए आधार वर्ष में प्रत्येक पांच वर्ष में परिवर्तन किया जाना जरूरी है।
सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) गणना की नई प्रणाली को अपनाने और आधार वर्ष में बदलाव करने से भारतीय अर्थव्यवस्था की तस्वीर गुलाबी हो गई है। जीडीपी किसी भी देश की आर्थिक सेहत को मापने का सबसे विश्वसनीय पैमाना है, जिसे खास अवधि यानि आधार वर्ष के दौरान कुल वस्तु और सेवाओं के उत्पादन की कीमत या लगात को शामिल कर मापा जाता है। भारत में जीडीपी की गणना तिमाही आधार पर की जाती है। और इससे संबंधित आंकड़ा अर्थव्यवस्था के प्रमुख उत्पादन क्षेत्रों में उत्पादन की वृद्धि दर पर आधारित होता है। भारत में कृषि, उद्योग एवं सेवा को विकास का प्रमुख वाहक माना गया है। इसलिए, मोटे तौर पर इन क्षेत्रों में उत्पादन को बढ़ने या घटने के औसत के आधार पर जीडीपी की दर तय होती है। अगर हम कहते हैं कि देश की जीडीपी में सालाना एक प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है। याद रहे कि इस क्रम में आमतौर पर महंगाई दर को शामिल नहीं किया जाता है।
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जीडीपी की गणना मोटे तौर पर दो तरह से की जाती है। उत्पादन की कीमत या लागत महंगाई के कारण घटती-बढ़ती रहती है, इसलिए जीडीपी को मापने का पहला पैमाना स्थिर कीमत को बनाया गया है। इसके तहत जीडीपी की दर एवं उत्पादन का मूल्य आधार वर्ष में उत्पादन की कीमत या लागत पर तय किया जाता है। दूसरा पैमाना, चालू कीमत को बनाया गया है, जिसके तहत किसी वस्तु के उत्पादन वर्ष में मौजूदा महंगाई दर को शामिल किया जाता है। सरकार ने हाल ही में जीडीपी गणना की नई प्रणाली को अपनाया है। साथ ही, आधार वर्ष में भी बदलाव किया है। पहले जीडीपी की गणना 2004-05 आधार वर्ष के आधार पर की जा रही थी, जिसे अब 2011-12 आधार वर्ष के आधार पर किया जा रहा है। इस आलोक में पहले जीडीपी की गणना उत्पादन की कीमत या लागत के आधार पर की जा रही थी, जिसे अब स्थिर मूल्यों के आधार पर किया जा रहा है और इसमें वस्तुओं एवं सेवाओं में होने वाली सकल मूल्यवृद्धि को भी शामिल किया जा रहा है।
नये आकलन के मुताबिक भारतीय अर्थव्यवस्था 2014-15 में 7.4 प्रतिशत की दर से विकास कर सकती है, जबकि पहले 6.9 प्रतिशत के विकास दर का अनुमान लगाया गया था। इस तरह, अब भारत का अनुमानित विकास दर चीन के अनुमानित विकास दर के बराबर हो गया है, जबकि पूर्व में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने क्रमश: वर्ष 2016 एवं वर्ष 2017 में भारत के विकास दर को चीन से आगे निकलने की बात कही थी।
देश में आधार वर्ष में हर पांच साल में परिवर्तन करने की परिपाटी वर्ष 1948-49 से चली आ रही है। इस परंपरा को शुरू करने वाले अर्थशास्त्रियों का मानना था कि देश की सही आर्थिक तस्वीर पेश करने के लिए आधार वर्ष में प्रत्येक पांच वर्ष में परिवर्तन किया जाना जरूरी है, क्योंकि किसी वस्तु के उत्पादन की कीमत या लागत को एक निश्चित आधार वर्ष के आधार पर तय किया जाता है, लेकिन समय बीतने के साथ-साथ वस्तु के उत्पादन की कीमत या लागत में बढ़ोतरी होती है, जिससे आधार वर्ष में बदलाव करना आवश्यक हो जाता है। जैसे पूर्व में किसी वस्तु के उत्पादन की कीमत या लागत को 2004-05 आधार वर्ष में उक्त वस्तु की कीमत के आधार पर तय किया जा रहा था, जिसे अब 2011-12 आधार वर्ष में उक्त वस्तु के उत्पादन की कीमत के आधार पर निश्चित किया जा रहा है। चूंकि, वर्ष 2004-05 की तुलना में वर्ष 2011-12 में विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन लागत या कीमत में इजाफा हुआ है, इसलिए जीडीपी के तिमाही आंकड़े पहले के मुकाबले बढ़ गये हैं। इतना ही नहीं, इस बदलाव से प्रति व्यक्ति जीडीपी में भी बढ़ोतरी होती है। दरअसल, प्रति व्यक्ति जीडीपी के आंकड़े को देश की जनसंख्या से भाग देकर निकाला जाता है। लिहाजा, आधार वर्ष बदलने से जीडीपी दर में इजाफा होता है और देश के लोगों का जीवनस्तर आंकड़ों में बेहतर हो जाता है।
इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो जीडीपी की गणना प्रणाली और आधार वर्ष में बदलाव किये जाने से आंकड़ों में भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी आना लाजिमी है। ऐसा नहीं है कि इस तरह के पैमाने से जीडीपी को सिर्फ हमारे देश में ही मापा जाता है। विश्व के अनेक देशों में जीडीपी का आकलन इसी तरह अलग-अलग आधार वर्षों के आधार पर किया जाता है। भारत में सीएसओ समय-समय पर बदले आधार वर्ष के आधार पर जीडीपी आंकड़ों का निर्धारण करता है। जीडीपी गणना की नई प्रणाली और नये आधार वर्ष को अपनाने से भारतीय अर्थव्यवस्था आंकड़ों में तेज गति से विकास कर रही है, जिससे आम लोगों के बीच यह बहस का मुद्दा बना हुआ है कि वास्तविकता में विकास हुए बिना अर्थव्यवस्था की तस्वीर कैसे गुलाबी हो सकती है? अगर यह सच है तो ऐसे विकास की प्रमाणिकता के आधार क्या हैं? हकीकत में विकास क्यों नहीं परिलक्षित हो रहा है? जाहिर है, जीडीपी गणना की नई प्रणाली और नये आधार वर्ष की सार्थकता पर मौजूदा समय में सवाल उठाये जा रहे हैं।
जीडीपी की गणना प्रणाली और आधार वर्ष की कसौटी के संबंध में भारत में लोगों की राय अलग-अलग है। कुछ लोगों का कहना है कि नई प्रणाली को लागू करने से भारतीय अर्थव्यवस्था की तस्वीर गुलाबी हो गई है, जिससे विदेशी संस्थागत निवेशकों का भरोसा भारतीय अर्थव्यवस्था पर बढ़ेगा और वे भारत में निवेश करने के लिए प्रेरित होंगे, जबकि ठीक इसके विपरीत, अधिकांश लोग इस तरह के तर्क को उचित नहीं मानते हैं। उनके अनुसार, इस तरह की विंडो ड्रेसिंग से भारत और भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रति लोगों का भरोसा बढ़ने की बजाय कम होगा, क्योंकि आंकड़ों की बाजीगरी विदेशी संस्थागत निवेशकों को प्रभावित नहीं कर सकती है। वे वास्तविक विकास और आंकड़ों में विकास के बीच के फर्क को अच्छी तरह से जानते व समझते हैं।
बहरहाल, भारत समेत दूसरे देशों में वर्षों से चल रहे आधार वर्ष के आधार पर जीडीपी गणना की परिपाटी को संदेह से परे नहीं माना जा सकता है। ऐसी गणना प्रणाली की मदद से निकाले गये आंकड़ों को विश्वनीय तो कदापि नहीं कहा जा सकता है। इसलिए, सीएसओ द्वारा जारी जीडीपी के तिमाही आंकड़ों और चालू वित्त वर्ष में विकास के अनुमानित आंकड़ों को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है। अस्तु, बदलते परिवेश में वर्षों से चली आ रही पुरानी परिपाटी के आधार को नये संदभरें में समझकर बदलाव करने की आवश्यकता है, ताकि एक आम आदमी भी आंकड़ों में दिखाये जा रहे विकास के दावे के सच एवं झूठ के बीच के फर्क को समझ सके। इसके बरक्स, सिर्फ आंकड़ों का वितंडा खड़ा करने से देश का विकास नहीं हो सकता है।
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