भारत-पाक:जब रेलों का भी हो गया था विभाजन

भारत-पाक:जब रेलों का भी हो गया था विभाजन
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अगस्त, 1947 के प्रथम सप्ताह में रेल-पटरियां भी भारत व पाक के मध्य बांटी गई थीं। उस समय विभाजन से प्रभावित क्षेत्रों में कुल रेल लाइनें 26421 मील थीं।

भारतीय रेलवे विश्व का सर्वाधिक नौकरियों वाला सरकारी उद्यम है। देश में रेल लाइनें बिछाने के लिए दबाव लंदन से ही ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार की ओर से डाला गया था। इसमें ब्रिटेन का अपना स्वार्थ निहित था। उनका मकसद देश के सभी रियासतों पर अंकुश रखना था।

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रेल बजट का भी एक अपना ही मौसम होता है। इस मौसम में रेलों का अतीत भी याद हो आता है। अगस्त, 1947 के प्रथम सप्ताह में रेल-पटरियां भी भारत व पाक के मध्य बांटी गई थीं। उस समय विभाजन से प्रभावित क्षेत्रों में कुल रेल लाइनें 26421 मील थीं। इनमें से 7112 मील लंबी रेल लाइनें पाक को मिली थीं जबकि शेष 9309 मील लंबी लाइनें भारत के हिस्से में आई थीं। इसी फॉर्मूले के तहत बुलडोजर, फावड़े, इंजन व रेल डिब्बे भी बंटे थे। कई स्थानों पर रेलवे स्टेशनों का एक सिग्नल भारत में था तो दूसरा पाकिस्तानी क्षेत्र में। मसलन फाजिल्का शहर का रेल स्टेशन। उस शहर के प्लेटफॉर्म का एक भाग व कुछ रेल संपत्ति पाकिस्तानी क्षेत्र में आ गए थे। ऐसी ही स्थिति अबोहर-लाइन पर हिंदुमल कोट रेलवे स्टेशन की थी। वहां का प्लेटफार्म आधा भारत में था, आधा पाक में।

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इसके अलावा चल संपत्ति का 80 प्रतिशत भाग भारत को और 20 प्रतिशत पाकिस्तान को मिला। जब बांटने लगे तो कुर्सियों, मेजों, कलमदानों, टाइपराइटरों, साइकलों, लाल हरी झंडियां, टेबल लैम्पों, लोहे की तिजोरियों आदि की भी बांट हुई। रेलवे बोर्ड के सामान की फहरिस्त विधिवत बनी। सामान में 425 मेजें, 85 बड़ी मेजें, 2 सोफा सेट, अफसरों की 85 कुर्सियां, स्टाफ की 850 कुर्सियां, हैट टांगने के 50 खूंटी स्टेंड, किताबों की 130 अलमारियां, लोहे की चार तिजोरियां, 20 टेबल लैम्प, 170 टाइपराइटर, 120 पंखे, 120 घड़ियां, 110 सरकारी साइकिलें, 600 कलमदान, तीन मोटरें व 40 कमोड। इस बंटवारे में खूब खींचतान व बहस हुई। अच्छे टाइप राइटर व बुरे टाइप राइटर के लिए झगड़ा हुआ। सरकारी अतिथि गृहों के बर्तन, छुरी कांटे तक बंटे। यह सारे फैसले भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एचएम पटेल और पाकिस्तानी प्रतिनिधि चांद मुहम्मद अली के स्टाफ ने लिए।

अब थोड़ा फिर भारतीय रेल की ओर लौटें। हमारे देश में अर्थात अविभाजित भारत में 16 अप्रैल, 1853 तक एक किलोमीटर रेल-लाइन भी मौजूद नहीं थी। मगर 1929 तक 41 हजार मील यानी लगभग 66000 किलोमीटर रेल लाइनें बिछ गई थीं। इस समय देश में कुल एक लाख 15 हजार किलोमीटर लंबी रेल पटरियां हैं जो 65436 किलोमीटर की यात्रा तय करती हैं। कुल रेलवे स्टेशनों की संख्या 7172 है और लगभग दो करोड़ 30 लाख यात्री हर रोज भारतीय रेलों से यात्रा करते हैं।

भारतीय रेलवे विश्व का सम्भवत: सर्वाधिक नौकरियों वाला ऐसा सरकारी उद्यम है जिसमें एक करोड़ 54 लाख कर्मचारी सेवारत हैं। इनमें कुली व चाय-पानी के ठेकेदार और उनके कर्मी शामिल नहीं हैं। भारत में रेलवे लाइनें बिछाने के लिए मुख्य दबाव लंदन से ही ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार की ओर से डाला गया था। इसमें ब्रिटेन का अपना स्वार्थ निहित था। तब सोचा गया था कि अपने अधीन सभी प्रदेशों पर शासन व रियासतों पर अंकुश रखने के लिए रेल संपर्क जरूरी है।

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पहली रेल 1853 में बंबई से ठाणे तक चली थी। अब देश के 29 राज्यों व 7 केंंद्रशासित क्षेत्रों के अलावा तीन अन्य देशों नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान के साथ भारतीय रेल की पटरियां जुड़ी हैं। 1900 के आसपास एक ऐसा समय भी था जब अधिकांश रियासतों में रेल सेवाएं वहां के शासकों के अधीन थी। जमीनें भी उनसे ली गई थी और बेगार पर काम करने वाले मजदूर भी वे मुहैया कराते थे। तकनीक का पूरा दारोमदार ब्रिटिश इंजीनियरों के हवाले था।

कई रियासतों के दिलचस्प किस्से भी सामने आए। मसलन मालेरकोटला के नवाब ने सिर्फ इस आधार पर रेलवे के लिए जमीनें देने से इनकार कर दिया था कि ‘रेलों की आवाजाही से नींद में खलल पड़ता है।’ अंग्रेजों को मजबूरन तब संपर्क-रेल लाइन ‘धुरी’ शहर से गुजारनी पड़ी थी। पटियाला के महाराजा ने जमीनें तो दे दी मगर शर्त लगा ली कि उसका घोड़ा, रेल के इंजन से तेज भाग सकता था। अंग्रेज इंजीनियरों की दलील थी कि इंजन की गति ज्यादा तेज थी। बातों-बातों में शर्त लगी। शर्त यह थी कि यदि इंजन हारा तो अंग्रेजों को वह इंजन भेंट स्वरूप महाराजा को देना होगा और अगर घोड़ा हारा तो महाराजा वायसराय को वह घोड़ा स्वयं भेंट करेंगे। बहरहाल, दौड़ लगी। महाराजा का घोड़ा जीत गया। अंग्रेज अधिकारियों को इंजन भेंट स्वरूप देना पड़ा। महाराजा ने वह इंजन पूरी विजय गाथा की पट्टिका के साथ अपने नवनिर्मित रेलवे स्टेशन के एक यार्ड में खड़ा कराया ताकि उनकी व उनके घोड़े की बहादुरी व क्षमता का डंका बजे। मलेरकोटला को रेलवे स्टेशन के लिए स्वाधीनता प्राप्ति का इंतजार करना पड़ा। इसी तरह ढेरों रूमानी गाथाओं से जुड़ी हैं हमारी रेलें। रेलवे प्लेटफॉर्मों की अपनी ही एक दुनिया है। ट्रेन के आने से पहले व जाने के बाद छोटे स्टेशनों पर पूरा सन्नाटा पसरा रहता है। किसी ट्रेन के स्टेशन पर पहुंचते ही कुली लोग डिब्बों की ओर लपकते हैं। शायद दिहाड़ी बन जाए। मगर जो कुली सामान नहीं पा सकते , उनके चेहरों पर उदासी पसर जाती है। वह अगली गाड़ी की प्रतीक्षा में प्लेटफॉर्म के किसी कोने में बैठ जाता है।

ऐसी ही दास्तानों की एक लड़ी पाकिस्तान टीवी के एक सीरियल रात,रेल और खत में बयान की गई थी। इस सीरियल की शुरूआत एक रेल दुर्घटना से होती है। एक रेल रात के सामय पुल से गुजरते वक्त नदी में गिर जाती है। उसके सारे डिब्बे , भारी वजन के कारण नदी की गहराई में धंस जाते हैं। उस क्षेत्र में कोई बचाव कार्य भी मुमकिन नहीं हो पाया। कुछ दिन प्रतीक्षा होती है, लेकिन डिब्बे नदी तल में धंस चुके होते हैं।

समय बीतने लगता है। बीस-तीस वर्षों बाद अकाल की स्थिति उत्पन्न होती है। नदी सूखने लगती है। तब उस रेल के अवशेष दिखाई देते हैं। सभी डिब्बियों में गले सड़े नरकंकाल और टूटा-फूटा सामान मिलता है जिसकी पहचान भी मुमकिन नहीं होती। सिर्फ डाकवाले डिब्बों से पत्रों वाले बैग बरामद होते हैं,जो अभी तक गले नहीं होते। मानवीय आधार पर फैसला लिया जाता है कि जितने भी पत्र ठीक स्थिति में हों , उन्हें सही पते पर पहुंचा तो दिया जाए। शायद किसी का भला हो जाए। पूरा सीरियल इन पत्रों पर आधारित है। हर पत्र सीरियल की एक बडी कड़ी बन जाती है। एक पत्र एक प्रेमी का होता है जो प्रेमिका को आश्वासन देता है कि वह जल्द लौट आएगा और उससे निकाह कर लेगा। मगर पत्र जब पहुंचता तो गमगीन प्रेमिका बूढ़ी हो चुकी होती। ऐसे ही सभी पत्र कोई न कोई दर्द की दास्तान लिए होते थे।

तू किसी रेल सी गुजरती है/

मैं किसी पुल सा थरथराता हुं।

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