बदलाव वक्त की जरूरत, योजना आयोग में बदलाव से मिलेगी नई दिशा

योजना आयोग में बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो गई, लेकिन भविष्य के आयोग का क्या स्वरूप होगा, यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बुलाई गई बैठक में तय नहीं हो पाया। भाजपा शासित प्रांतों के मुख्यमंत्री तो केंद्र सरकार की मंशा से सहमत दिखे, लेकिन अन्य दलों के मुख्यमंत्री असहमत रहे। हालांकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बैठक में अनुपस्थित रहने के बावजूद अहम सुझाव दिए हैं। उनके मुताबिक आयोग का पुनर्गठन एक संवैधानिक संस्था के रूप में होना चाहिए और जब तक इस संस्था का गठन नहीं हो जाता तब तक आयोग के वर्तमान अधिकार एवं दायित्व अंतरराज्यीय परिषद को सौंप देना चाहिए। क्योंकि अप्रासंगिक हो जाने के बावजूद नई योजनाओं को बनाकर लागू करने में आयोग की भूमिका अभी भी बनी हुई है।
पंडित नेहरू की समाजवादी नीतियों को गति देने का गवाह रहा योजना आयोग इतिहास बनने जा रहा है। 64 साल पुराने इस संस्थागत ढांचे के अलावा भी कई ऐसी संस्थाएं है, जो समय के साथ बदलाव न लाने के कारण अपनी उपयोगिता खो चुकी हैं। बुनियादी शिक्षा, गरीबी उन्मूलन, रोजगार और आदिवासी, अल्पसंख्यक तथा विकलांगों के विकास से जुड़ी संस्थाओं के पुनर्गठन के लिए भी समीक्षा जरूरी है। ऐसी ही स्थिति अनेक निगम, मंडल, परिषदों व अकादमियों की है, लेकिन यहां सवाल उठता है कि अप्रासंगिक हो चुकी संस्थाओं का बदला हुआ स्वरूप कैसा हो? हमारे यहां विडंबना है कि संस्थाओं के नाम तो बदल दिए जाते हैं, लेकिन उनकी कार्यप्रणाली परंपरागत ही बनी रहती है, क्योंकि संस्थाओं के कर्मचारी और अधिकारी वही रहते हैं, लिहाजा उनकी मानसिकता किसी बुनियादी बदलाव को स्वीकार नहीं करती। इसीलिए हम देखते हैं, केंद्र व राज्यों में सरकारें बदलने के बाद भी कई बार यथास्थिति नहीं टूटती? लालफीताशाही और भ्रष्टाचार अपनी जगह कायम रहते हैं। गोयाकि यदि योजना आयोग का केवल नाम बदला गया तो फिर उसके कोई कारगर नतीजे निकलने वाले नहीं हैं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले के प्राचीर से योजना आयोग को समाप्त कर एक नए संस्थान की स्थापना का ऐलान किया था। हालांकि इसके संकेत केंद्रीय सत्ता में बदलाव के साथ ही मिलने लगे थे। आयोग अपनी प्रासंगिकता इसलिए खोता चला गया क्योंकि इसकी स्थापना 15 मार्च, 1950 में हुई थी, तब केंद्र सरकारें सार्वजानिक क्षेत्र के उपक्रमों को बढ़ावा दे रही थीं। सहकारिता की भूमिका भी सुनिश्चित की जा रही थी। नेहरू सोवियत संघ की नीतियों से प्रभावित थे, इसलिए समाजवादी गणराज्य की बुनियाद रखने में एक ऐसी संस्था की जरूरत थी, जो विकास संबंधी पंचवर्षीय योजनाओं की परिकल्पना करके बजट का निर्धारण करे। इंदिरा गांधी ने समाजवादी मूल्यों को और मजबूती देते हुए निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। इस ऐतिहासिक फैसले के बाद ही किसानों, गरीबों और शिक्षित बेरोजगारों को ब्याज मुक्त कर्ज बैंकों से मिलने का सिलसिला शुरू हुआ। जाहिर है, गरीबी उन्मूलन, बुनियादी विकास और कल्याणकारी योजनाओं के लक्ष्य के निर्धारण व उसे हासिल करने में एक समय आयोग की अहम भूमिका रही है।
आयोग की प्रासंगिकता खोने की शुरुआत हुई 1990 से, जब देश में विश्व-ग्राम की अवधारणा के चलते नव उदारवाद, मसलन अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की शुरुआत हुई। इसके बाद से आयोग प्रभावशून्य होता चला गया। लिहाजा पहली आठ योजनाओं में विपुल धनराशि के निवेश के साथ सार्वजनिक क्षेत्र उन्नति पर था। वह 1997 में नौंवी योजना के साथ घटता गया। नतीजतन औद्योगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रोत्साहित किया जाने लगा। मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने तो गरीबी रेखा का ऐसा मजाक उड़ाया, जैसे गरीब देश के नागरिक न होते हुए कोई लाचार शरणार्थी हों और केवल कल्याणकारी योजनाओं की दया पर पल रहे हों?
मोदी ने बैठक में मुख्यमंत्रियों के साथ मिलकर आयोग का पुनर्गठन त्रिस्तरीय सरंचना के रूप में गठन करने की बात कही है। इसके पहले स्तर में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री होंगे। दूसरे में मुख्यमंत्रियों के साथ केंद्रीय मंत्री होंगे। और तीसरे में केंद्र व राज्य सरकारों के अधिकारी होंगे। इनके अलावा विभिन्न क्षेत्रों के प्रौद्योगिकीविद् और विषय विशेषज्ञ भी शामिल किए जा सकते हैं। राज्यों को अपनी जरूरत के अनुसार धन खर्च करने की अनुमति भी दी जा सकती है। ऐसा होता है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि देश का संघीय ढांचा मजबूत दिखेगा। साथ ही नए निकाय में प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्रियों, केंद्रीय मंत्रियों और केंद्र तथा राज्य के अधिकारियों के बीच साझा कार्य संस्कृति विकसित होगी। इससे विधायिका और कार्यपालिका में संतुलित समन्वय भी झलकेगा।
फिलहाल आयोग राज्यों को मदवार धन देता है। साथ ही सुनिश्चत मद में धन खर्च करने की बाध्यता रहती है। संसाधन का यह मदवार बंटवारा आयोग संविधान के अनुच्छेद 282 के तहत करता है। आयोग की समाप्ति के बाद क्या इस धन का बटंवारा नया निकाय करेगा या राज्य स्वयं करेंगे, यह अभी साफ नहीं है? राज्यों को संसाधन के बटंवारे का अधिकार दे दिया गया तो हो सकता हैकि राज्य के मुख्यमंत्री केवल अपनी मनपसंद योजनाओं में समूचे धन को झोंक दें? इस आचरण से केंद्र द्वारा नियंत्रित योजनाएं प्रभावित हो सकती हैं। वैसे भी राज्यों में क्षेत्रीय व जातिगत आकांक्षाओं के चलते कल्याणकारी चुनौतियां ध्रुवीकृत हो रही हैं। ऐसे में ध्रुवीकरण का खतरा और संकीर्ण होता चला जाएगा। अभी तक राज्य की योजनाएं स्वीकृत करने और धन खर्च के उपाय आयोग सुझाता था। जाहिर है, राज्यों को संसाधनों के लिए खुली छूट देना उचित नहीं होगा?
दरअसल, आयोग का मकसद संसाधनों का उचित दोहन, उत्पादन में वृद्घि और सामुदायिक सेवा में सभी को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराकर लोगों का जीवन स्तर सुधारना था। आयोग देश के संसाधनों का राज्यवार मूल्यांकन भी करता था। किसी राज्य में संसाधनों की कमी के हालात बनने पर उसमें बढ़ोतरी के उपाय करता था। इसलिए संसाधनों के बंटवारे में संतुलित व समावेशी हालात कमोवेश बने हुए हैं। तय है, संसाधनों पर नियंत्रण के लिए एक केंद्रीय संस्था की उपयोगिता तो है ही?
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