धूल खाती विरासत, क्या भगत सिंह को शहीद का दर्जा मिला हुआ है या नहीं

धूल खाती विरासत, क्या भगत सिंह को शहीद का दर्जा मिला हुआ है या नहीं
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यूपीए सरकार के दौर में भगत सिंह के एक संबंधी यादवेंद्र सिंह ने आरटीआई के जरिए गृह मंत्रालय से जानकारी चाही थी कि क्या भगत सिंह को शहीद का दर्जा मिला हुआ है या नहीं।
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देश के हर शहर और कस्बे में अहम विरासतें धूल खाती मिल जाएंगी। तमाम बड़े क्रांतिकारियों, लेखकों, खिलाड़ियों और जीवन के अन्य क्षेत्रों में अहम योगदान देने वाली शख्सियतों से जुड़ी जगहें उनके जाने के बाद र्जजर होने लगती हैं। उन्हें न तो समाज देखता है और न प्रशासन।
यूपीए सरकार के दौर में भगत सिंह के एक संबंधी यादवेंद्र सिंह ने आरटीआई के जरिए गृह मंत्रालय से जानकारी चाही थी कि क्या भगत सिंह को शहीद का दर्जा मिला हुआ है या नहीं। उस आरटीआई का जवाब आया, सरकार के पास इस तरह का कोई रिकॉर्ड नहीं है जिससे साबित हो कि भगत सिंह को शहीद का दर्जा मिला है। जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अध्यापन करते डॉ. चमन लाल ने अपनी भगत सिंह पर लिखी किताब का शीर्षक भगत सिंह ही रखा। उन्होंने शहीद या शहीद-ए-आजम का जिक्र नहीं किया। वे कहते हैं कि शहीद तो भगत सिंह के अलावा राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर, खुदीराम बोस समेत सैकड़ों हुए। इन सभी को जनमानस स्वत:स्फूर्त भाव से शहीद पुकारने लगा। तो भगत सिंह शहीद-ए-आजम कैसे बन गए? डॉ. चमन लाल कहते हैं कि भगत सिंह संभवत: देश के पहले चिंतक क्रांतिकारी थे। वे राजनीतिक विचारक थे। वे लगातार लिख-पढ़ रहे थे। उनसे पहले या बाद में कोई उनके कद का चिंतनशील क्रांतिकारी सामने नहीं आया।

भगत सिंह को फांसी की सजा मिलने के बाद कानपुर से निकलने वाले प्रताप और इलाहाबाद से छपने वाले भविष्य जैसे अखबारों ने उनके नाम से पहले शहीद-ए-आजम लिखना शुरू कर दिया था। यानी कि जनमानस ने उन्हें अपने स्तर पर ही शहीद-ए-आजम कहना शुरू कर दिया था। पूर्व प्रधानमंत्री आईके गुजराल ने एक बार इस लेखक को बताया था कि भगत सिंह अपने जीवन काल में ही लीजेंड बन गए थे। उनकी फांसी की खबर जैसे ही देश को मालूम चली बस तब देश गुस्से में उबलने लगा। अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश चरम पर था। जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे। भगत सिंह जैसे राष्ट्र भक्त सदियों में एक बार जन्म लेते हैं। वे किसी उपाधि या पुरस्कार के मोहताज नहीं थे। बहरहाल, भगत सिंह को शहीद हुए एक अरसा गुजर चुका है। उसके बाद भी वे देश के नौजवानों को प्रेरित करते हैं। बीते साल एक प्रमुख पत्रिका ने एक पोल किया था। सवाल पूछा गया था कि जनता सबसे अधिक स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी किस शख्सियत से प्रभावित है। उस पोल में भगत सिंह अन्य सब पर भारी पड़े थे। ये भी उतना ही कठोर सत्य है कि भगत सिंह के जीवन से जुड़े अनेक स्थान धूल में मिल रहे हैं। दिल्ली और कानपुर का शहीद भगत सिंह के क्रांतिकारी जीवन से गहरा रिश्ता रहा है। कानपुर से छपने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी के क्रांतिकारी अखबार प्रताप में नौकरी करते वक्त वे दिल्ली में साम्प्रदायिक दंगा कवर करने आए थे। दंगा दरियागंज में हुआ था।

वे दिल्ली में सीताराम बाजार की एक धर्मशाला में रहते थे। अब आप लाख कोशिश करें पर आपको मालूम नहीं चल पाएगा कि वह धर्मशाला कौन सी थी, जहां पर भगत सिंह ठहरते थे। अब कानपुर पर आते हैं। वे 1925 में प्रताप में नौकरी करने कानपुर गए थे। पीलखाना में प्रताप की प्रेस थी। वे उसके पास ही रहते थे। वे रामनारायण बाजार में भी रहे। वे नया गंज के नेशनल स्कूल में पढ़ाते भी थे। यानी कि उनका इन दोनों शहरों से खास तरह का संबंध रहा पर अफसोस कि इन दोनों शहरों में वे जिधर भी रहे या उन्होंने काम किया, बैठकों में शामिल हुए, उधर उनका कोई नामोनिशान तक नहीं है। उन्हें एकाध जगह पर बहुत मामूली तरीके से याद करने की कोशिश की गई है। जिस स्कूल में भगत सिंह पढ़ाते थे, उसका नाम भी भगत सिंह पर नहीं रखा गया। अब सोच लीजिए कि कानपुर जैसे शहर ने उनको लेकर कितना ठंडा रुख अपनाया। किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि प्रताप से जुड़ने के चलते उन्हें समझ आया कि कलम की ताकत के बल पर बहुत कुछ किया और बदला जा सकता है। प्रताप में भगत सिंह ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। प्रताप प्रेस के निकट तहखाने में ही एक पुस्तकालय भी बनाया गया, जिसमें सभी जब्तशुदा क्रांतिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थीं। भगत सिंह यहां पर घंटों पढ़ते थे। भगत सिंह ने तो प्रताप अखबार में बलवंत सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक कार्य किया। चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी। अब प्रताप की इमारत खंडहर में तब्दील हो रही है, पर इमारत के बाहर एक स्मृति चिह्न् तक नहीं लगा जिससे पता चल सके कि इसका भगत सिंह के साथ किस तरह का संबंध रहा है।

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दिल्ली में 8 अप्रैल, 1929 को केंद्रीय असेम्बली में भगत सिंह ने बम फेंका। पूरा हाल धुएं से भर गया। भगत सिंह चाहते तो भाग भी सकते थे पर उन्होंने पहले ही सोच रखा था कि उन्हें दण्ड स्वीकार है चाहे वह फांसी ही क्यों न हो। अत: उन्होंने भागने से मना कर दिया। उस समय वे खाकी कमीज तथा निकर पहने हुए थे। बम फटने के बाद वे इंकलाब! जिन्दाबाद! साम्राज्यवाद! मुर्दाबाद! का नारा लगा रहे थे और अपने साथ लाये हुए पर्चे हवा में उछाल रहे थे। इसके कुछ ही देर बाद पुलिस आ गयी और दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। उस स्थान (संसद) में उस घटना के 79 वर्षों के बाद उनकी प्रतिमा स्थापित की गई। हालांकि उस प्रतिमा को लेकर भगत सिंह के परिवार को आपत्ति है। उनका कहना है कि संसद में लगी प्रतिमा में उन्हें पगड़ी पहने दिखाया गया है। जबकि वे यूरोपीय अंदाज की टोपी पहनते थे।

भगत सिंह ने दिल्ली में अपनी भारत नौजवान सभा को सभी सदस्यों के साथ हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में विलय किया और काफी विचार-विर्मश के बाद आम सहमति से ऐसोसिएशन को एक नया नाम दिया हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन। ये अहम बैठक दिल्ली में फिरोजशाह कोटला मैदान के साथ वाले मैदान में हुई। इसमें चंद्रशेखर आजाद, विजय कुमार सिन्हा, भगवती चरण वोहरा, शिव वर्मा जैसे क्रांतिकारियों ने भाग लिया था। इस स्थान पर एक स्मृति चिह्न् एक जमाने में लगा था, जो अब धूल खा रहा है। पहले तो इधर शहीद भगत सिंह बस टर्मिनल था। इस वजह से कुछ लोगों को मालूम चल जाता था कि इसका भगत सिंह से क्या संबंध रहा है।

ये सच है आपको देश के हर शहर और कस्बे में अहम विरासतें धूल खाती मिल जाएंगी। तमाम बड़े क्रांतिकारियों, लेखकों, खिलाड़ियों और जीवन के अन्य क्षेत्रों में अहम योगदान देने वाली शख्सियतों से जुड़ी जगहें उनके जाने के बाद र्जजर होने लगती हैं। उन्हें न तो समाज देखता है और न प्रशासन। अमेरिका और यूरोप में खास इमारतों के बाहर स्मृति पटल लगा दिया जाता है, जिसमें उस इमारत के महत्व पर विस्तार से जानकारी दे दी जाती है पर हमें इस लिहाज से बहुत कुछ सीखना है। हम कब सीखेंगे, किसी को मालूम नहीं।

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