क्या हवा हुआ आप का जादू?, भविष्य में किस प्रकार की राजनीति

क्या हवा हुआ आप का जादू?, भविष्य में किस प्रकार की राजनीति
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आम आदमी पार्टी को लेकर फिलहाल सवाल यह नहीं है कि वह अपने नेताओं के मतभेदों को किस प्रकार सुलझाएगी। बल्कि यह है कि वह भविष्य में किस प्रकार की राजनीति करेगी।
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योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को राजनीतिक समिति से जिस तरह निकाला गया और उसके बाद यह मसला खिंचकर जिस मोड़पर आ गया है उससे नेताओं का जो भी बने इसके सर्मथकों का मोहभंग ज़रूर होगा। दोनों तरफ के आरोपों ने पार्टी की कलई उतार दी है। लोकतांत्रिक मूल्य-र्मयादाओं की स्थापना का दावा करने वाली पार्टी संकीर्ण मसलों में उलझ गई। मामला केवल रीति-नीति का ही नहीं लगता। इसमें कहीं न कहीं व्यक्तिगत स्वार्थ और अहम का टकराव है। यह तुर्की-ब-तुर्की बहस स्वस्थ आत्ममंथन नहीं है।
आम आदमी पार्टी को लेकर फिलहाल सवाल यह नहीं है कि वह अपने नेताओं के मतभेदों को किस प्रकार सुलझाएगी। बल्कि यह है कि वह भविष्य में किस प्रकार की राजनीति करेगी। दिल्ली में उसकी सफलता का जो फॉर्मूला है, क्या वही बाकी जगह लागू होगा? वह व्यक्ति आधारित पार्टी है या विचार आधारित राजनीति की प्रवर्तक? अरविन्द केजरीवाल व्यक्तिगत आचरण के कारण लोकप्रिय हुए हैं या उनके पास कोई राजनीतिक योजना है? बहरहाल देखना यह है कि पार्टी अपने वतर्मान संकट से किस प्रकार बाहर निकलेगी। सुनाई पड़ रही है कि 28 मार्च को राष्ट्रीय परिषद की बैठक में ‘बागियों’ को पार्टी से निकाला जाएगा।
अभी तक पार्टी का विभाजन नहीं हुआ है। क्या विभाजन होगा? हुआ तो किस आधार पर? और टला तो उसका फॉर्मूला क्या होगा?और क्या भविष्य में फिर टकराव नहीं होगा?आप के विफल होने पर बड़ा धक्का कई लोगों को लगेगा। उनको भी जिन्होंने उसमें नरेंद्र मोदी के उभार के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति की आहट सुनी थी। दूसरे राज्यों में उसके विस्तार की सम्भावनाओं को भी ठेस लगेगी। थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि व्यावहारिक राजनीति के लिए ऐसे बहुत से काम करने पड़ते हैं, जो खुले में अटपटे लगते हैं। जैसे कि राष्ट्रपति शासन के दौरान दिल्ली में सरकार बनाने की कोशिश करना या मुस्लिम सीटों के बारे में फैसले करना। आप पार्टी से लोग इन बातों की उम्मीद नहीं करते थे। इसलिए कि उसने अपनी बेहद पवित्न छवि बनाई थी। इन अंतर्विरोधों से पार्टी बाहर कैसे निकलेगी?
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आम आदमी पार्टी क्या है? भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकली राजनीति। पर भ्रष्टाचार विरोध एक सामान्य विचार है। वामपंथी या दक्षिणपंथी राजनीति दोनों के साथ उसकी पटरी बैठ सकती है। यह प्रशासनिक सुधार का मामला है किसी दीर्घकालीन राजनीति का सवाल नहीं है। दीर्घकालीन आर्थिक-राजनीति नीतियां एक सोच की जरूरत को रेखांकित करती हैं। इसमें शामिल नौजवान किसी जमाने में जय प्रकाश आंदोलन में शामिल नौजवानों से कुछ अलग हैं। उनमें आईटी क्रांति के नए टेकी हैं, अमेरिका में काम करने वाले एनआरआई हैं, बेंगलुरु, हैदराबाद और दिल्ली, मुम्बई के नए प्रोफेशनल। काम-काजी लड़कियां और गृहणियां भी। और गांवों और कस्बों के अपवार्ड मूविंग नौजवान। सत्तर के दशक में भारत के नौजवानों के मन में समाजवाद का जो रोमांच था, वह आज नहीं है।
आम आदमी पार्टी की राजनीतिक अवधारणा क्या है? पार्टी का स्वराज नाम का दस्तावेज विचारधारा के प्रति विश्वास नहीं जगाता। अरविंद केजरीवाल मोटे तौर पर मध्यवर्गीय शहरी समाज के सवालों को उठाते हैं। समय के साथ इसमें उन्होंने साम्प्रदायिकता से जुड़े सवालों को जोड़ लिया। पार्टी में तीन प्रकार की प्रवृत्तियां हैं। एक हैं गांधीवादी, दूसरी समाजवादी और तीसरी पश्चिमी उदारवादी। पार्टी इन तीनों को जोड़ना चाहती है। व्यक्तिगत रूप से गांधी, जेपी और लोहिया के सर्मथक इस पार्टी में शामिल हैं। संयोग से तीनों आंदोलनकारी नेता रहे। तीनों ने सत्ता में कभी हिस्सेदारी नहीं की।
केजरीवाल और उनके सर्मथकों ने जब सत्ता की राजनीति में शामिल होने का निश्चय किया था तब उन्हें इसके व्यावहारिक पक्ष के बारे में भी सोचना चाहिए था। ऐसा सोचा नहीं गया और दिसम्बर 2013 से फरवरी 2015 तक इस नासमझी को रेखांकित करने वाले मौके कई बार आए और अभी आगे भी आएंगे। विधायकों का जोड़-तोड़ सत्ता की राजनीति के लिए नई बात नहीं है। पर जब आप भी ऐसा जोड़-तोड़ करती है तब उसके सर्मथक को यह विस्मयकारी लगता है। पार्टी ने अपनी अलौकिक छवि बनाई थी जिसे अब उसे ही ढोना है। उसके कर्ता-धर्ता सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। कैसे कहा जा सकता है कि वे परम्परागत लोभ-लालच के कारण राजनीति में नहीं आए हैं।
दिल्ली में सरकार बनाने के लिए विधायकों की खरीद-फरोख्त का आरोप लगने के बाद पार्टी की राजनीति पर बदनामी के छींटे पार्टी के परम्परागत विरोधियों ने नहीं भूतपूर्व सहयोगियों ने डाले हैं, जो कुछ दिन पहले तक दोस्त थे। आरोपों के इस दौर के बाद अब उन्हें सहयोगी कहना अनुचित होगा। युद्ध के नगाड़े बज चुके हैं। पार्टी पर पिछले कुछ महीनों में कई तरह की तोहमतें लगी हैं, पर बुधवार को लगी आरोपों की झड़ी अभूतपूर्व थी।
बुधवार को एक ऑडियो रिकॉर्डिंग जारी करके आरोप लगाया गया कि राष्ट्रपति शासन के दौरान सरकार बनाने के लिए केजरीवाल कांग्रेस में तोड़फोड़ करना चाहते थे। यह टेप ही काफी नहीं था। इसके बाद योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की चिट्ठी जारी हुई, जिसमें सफाई कम आरोप ज्यादा थे। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को राजनीतिक समिति से जिस तरह निकाला गया और उसके बाद यह मसला खिंचकर जिस मोड़पर आ गया है उससे नेताओं का जो भी बने इसके सर्मथकों का मोहभंग ज़रूर होगा। दोनों तरफ के आरोपों ने पार्टी की कलई उतार दी है। लोकतांत्रिक मूल्य-र्मयादाओं की स्थापना का दावा करने वाली पार्टी संकीर्ण मसलों में उलझ गई। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने पार्टी की रीति-नीति को निशाना बनाया है, पर मामला इतना ही नहीं लगता। इसमें कहीं न कहीं व्यक्तिगत स्वार्थ और अहम का टकराव है। यह तुर्की-ब-तुर्की बहस स्वस्थ आत्ममंथन नहीं है। इस झगड़े के बाद पार्टी में अरविंद केजरीवाल का वर्चस्व जरूर कायम हो जाएगा, पर गुणात्मक रूप से पार्टी को ठेस लग चुकी है। मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण के दिन ही पार्टी की धड़ेबाज़ी सामने आ गई थी। सिद्धांत और व्यवहार में आप और उससे जुड़े लोगों का आचरण कांग्रेस और भाजपा की सियासत से किसी तरह से अलग नहीं लगता। पार्टी के सामने संरचना को लोकतांत्रिक बनाने का भी मौका था। उसने मौका खो दिया। यह पूरी राजनीति स्वांग साबित हुई। दिल्ली में 70 में 67 का अभूतपूर्व बहुमत पार्टी के लिए खतरनाक है। राजनीति में नए शामिल हुए इन जन-प्रतिनिधियों में कई किस्म की सत्ता से जुड़ी मनोकामनाएं हैं। इन विपरीत मनोकामनाओं को समझना और उन्हें पूरा करना बड़ी चुनौती है। सवाल यह है कि दिल्ली का जादू क्या इस अभी तक आप का विभाजन नहीं हुआ है। लेकिन आप के विफल होने पर बड़ा धक्का कई लोगों को लगेगा। उनको भी जिन्होंने उसमें नरेंद्र मोदी के उभार के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति की आहट सुनी थी।
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