केजरीवाल की चरित्र कथा

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By - ?????? ????? ??? |31 May 2015 6:30 PM
भ्रष्टाचार और जनलोकपाल के मुद्दों को विस्मृत करके अरविंद केजरीवाल दिल्ली के गरीब लोगों को पूने योग्य पानी उपलब्ध कराने के वादे भी भूल चुके हैं।
भ्रष्टाचार विरोधी अण्णा आंदोलन से उभरकर राजनीतिक पटल पर विराजमान हुए अरविंद केजरीवाल राजहठ अहंकार की प्रतिमूर्ति बन गए हैं। केजरीवाल ने सबसे पहला उल्लेखनीय कार्य अंजाम दिया आम आदमी पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का खात्मा करके। पार्टी के अंदर असहमति के मुखर स्वरों प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और आनंद कुमार को पार्टी से निकाल बाहर किया गया। अरविंद केजरीवाल भारतीय लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सुनहरी सीढ़ियों पर चढ़कर दिल्ली के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए और सत्तानशीन होते ही अपने से असहमत प्रमुख साथियों की राजनीतिक बलि चढ़ा दी। साथ ही साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सबसे प्रबल संवाहक भारतीय मीडिया के विरुद्ध भी मोर्चा खोल दिया। रिपोर्टरों पर कड़ी निगरानी रखने और उनके विरुद्ध कोर्ट केस दर्ज करने की अफसरों को हिदायत जारी कर दी। धन्यवाद का हकदार है दिल्ली हाईकोर्ट कि जिसने त्वरित संज्ञान लेकर अरविंद केजरीवाल के फरमान को गैरकानूनी करार दिया। एक आंदोलनकारी दौर था, जब अरविंद केजरीवाल को भारतीय मीडिया का चहेता चेहरा करार दिया गया था। मीडिया ही था जिसने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को जबरदस्त कवरेज देकर राष्ट्रव्यापी बनाया था। अब तो आलम यह कि अरविंद केजरीवाल हुकूमत ने दिल्ली के लैफ्टीनेन्ट गवर्नर नजीब जंग से बाकायदा मोर्चा खोल दिया है और साथ ही साथ केंद्रीय हुकूमत को भी अपने निशाने पर ले लिया है। अब तो दिल्ली प्रांत की राजसत्ता के अंदरूनी संघर्ष का सारा मामला हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। केंद्रीय हुकूमत ने एक नॉटिफिकेशन जारी किया था, जिसके तहत दिल्ली की एंटी-करप्शन ब्यूरो को केंद्रीय हुकूमत कर्मचारियों पर कार्रवाई करने का कोई कानूनी हक प्राप्त नहीं है।
एक मामले पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्रीय हुकूमत द्वारा जारी इस नॉटिफिकेशन को संदिग्ध करार दिया गया। केंद्रीय हुकूमत इस मामले में सुप्रीम कोर्ट गई तो फिर फैसला केंद्रीय हुकूमत के पक्ष में गया है। उच्च शिक्षा-दीक्षा प्राप्त अरविंद केजरीवाल बखूबी जानते हैंै कि दिल्ली प्रांत को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल नहीं है और इस व्यवस्था के क्या कानूनी पहलू हैं। किंतु राजहठ से सराबोर अरविंद केजरीवाल स्वयं को पूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री साबित करने की सोची-समझी गलती अंजाम देने पर आमादा हैं। केजरीवाल ने हुकूमत को दिल्ली के लोगों की भलाई करने के स्थान पर ले. गवर्नर नजीब जंग के विरुद्ध संघर्ष में उलझा दिया है।
सर्वविदित है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं है। इसके लिए संसद के दो तिहाई बहुमत द्वारा ही भारतीय संविधान में संशोधन किया जा सकता है। अरविंद केजरीवाल दिल्ली को पूर्ण राज्य के तौर पर निर्मित करने को संविधान संशोधन करने के लिए भाजपा सहित सभी प्रमुख राजनीतिक दलों से बातचीत करनी चाहिए थी और आवश्यक तालमेल बनाना चाहिए था। किंतु अरविंद केजरीवाल वस्तुत: क्या कर रहे हैं वह एक निरंकुश तानाशाह के तौर तरीके अपनाकर अपने ही तौर तरीकों से ले. गवर्नर के संविधान प्रदत्त कानूनी अधिकारों को छीनने का प्रयास कर रहे हैं। केंद्रीय हुकूमत के कानूनी अधिकारों को मनमाने तौर पर हड़पने की कोशिश कर रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र में संसद में विद्यमान जन-प्रतिनिधियों को संविधान के दायरे में कानूनों के निर्माण का हक प्रदान किया गया है। किंतु इसके पश्चात सभी को संसद द्वारा निर्मित कानूनों के तहत आचरण करना पड़ता है। कानून के शासन (रूल आॅफ लॉ) का अर्थ यही है कि कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो कानून से बड़ा कोई भी नहीं है। अरविंद केजरीवाल की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि वे जिस संविधान और कानून के तहत दिल्ली के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए हैं उसी संविधान की घोर अवहेलना करने पर उतारू हो गए हैं। वे किसी भी सूरत में अधिकारों को अपने हाथ में रखना चाहते हैं। इसके लिए वे अदालत तक जा पहुंचे हैं और आगे भी लड़ाई लड़ने का बकायदा ऐलान कर चके हैं।
भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को राजनीतिक शक्ल-ओ-सूरत देकर अरविंद केजरीवाल और उसके साथियों ने आम आदमी पार्टी की संरचना की थी और विस्मयकारी तौर पर दिल्ली विधानसभा कि 28 सीटों पर विजयी होकर कांग्रेस पार्टी की सहायता से राज्य में सरकार का निर्माण किया था, किंतु सरकार को कुछ दिन चलाकर ही भाग खड़े हुए। केजरीवाल को देश का प्रधानमंत्री बनाने की कवायद में आम आदमी पार्टी 2014 के लोकसभा चुनाव में बहुत जोरशोर से उतरी, किंतु 425 सीटों पर पार्टी के उम्मीदवारों की जमानत जब्त कराकर विश्व रिकॉर्ड बना दिया। किंतु दिल्ली विधानसभा चुनाव में 67 सीटों पर विजयी होकर इतिहास रचने वाले अरविंद केजरीवाल दिल्ली राज्य में सत्तासीन हुए तो फिर दिल्ली की जनता से किए गए अपने चुनावी वादों को पूरा करने के लिए अपनी हुकूमत को अत्यंत सक्रिय होने के स्थान पर अपनी पार्टी के प्रमुख साथियों के साथ संघर्ष में उलझ गए। नजीब जंग से लेकर नरेंद्र मोदी तक अब कौन सा ऐसा किरदार है, जिससे वो सत्ता संघर्ष में उलझे हुए नहीं हैं। दिल्ली प्रांत के राजनीतिक पटल पर एक धूमकेतू की तरह उभरे केजरीवाल अपने शीघ्र अस्त हो जाने की कहानी स्वयं ही लिख रहे हैं।
खुद को पूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री समझने वाले केजरीवाल उस इतिहास को दोहराने की गलती अंजाम दे रहे हैं, जैसा कि 1953 में जम्मू-कश्मीर रियासत के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला ने बिना किसी संवैधानिक प्रावधान के खुद को रियासत का प्रधानमंत्री समझना शुरू कर दिया था। देश का इतिहास जानता है कि इस गलती का नतीजा कितना विकट रहा। भ्रष्टाचार और जनलोकपाल के मुद्दों को विस्मृत करके अरविंद केजरीवाल दिल्ली के गरीब लोगों को पूने योग्य पानी उपलब्ध कराने के वादे भी भूल चुके हैं। दिल्ली में बाकायदा पानी माफिया राज चलता है और इनको कौन खत्म करेगा। सत्ता संघर्ष का जो रास्ता अरविेंद केजरीवाल ने राजहठ में अपनाया है उसका पटाक्षेप होने वाला है। जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट में 25 मई के दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय को एकदम उलटकर रख दिया है, इससे तो अरविंद केजरीवाल को अपनी कानूनी हैसियत का आभास हो चला है, किंतु अस्तांचल की ओर बढ़ते हुए हठी और जिद्दी केजरीवाल अपना धूमकेतू चरित्र कदापि परिवर्तित नहीं होने देंगे।
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