अपनी ताकत पहचाने देश

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By - ??????? ???? |5 Aug 2014 6:30 PM
औद्योगिक क्रांति से पहले तक विश्व बाजार में भारत की हिस्सेदारी 25 फीसदी थी।
धर्म, दर्शन, कला, उद्योग, विज्ञान और व्यापार के क्षेत्र में भारत शताब्दियों तक विश्व के मानचित्र पर चमकता रहा है। औद्योगिक क्रांति से पहले तक विश्व बाजार में भारत की हिस्सेदारी 25 फीसदी थी। ब्रिटिश शासनकाल में यह घटकर 13 फीसदी हो गयी और आजादी के समय तीन फीसदी पर आ गयी। आज विश्व व्यापार में हमारी हिस्सेदारी एक फीसदी के आसपास है। अब अगर देश को समृद्घशाली और विकसित बनाना है तो उसे अपने घरेलू उद्योग धंधों को मजबूत बनाकर विश्व व्यापार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ानी होगी। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से दुनिया में एक बार फिर भारत की चर्चा होने लगी है। मोदी देश की ताकत को पहचानते हैं और विकास का उनका एक अपना नजरिया है। उन्होंने इसके लिए टैलेंट, टेक्नोलॉजी, ट्रेडिशन, ट्रेड और टूरिज्म (5टी) पर जोर दिया है। सचमुच भारत दुनिया का एक ऐसा देश है जिसके पास प्राकृतिक और मानवीय संसाधनों की कमी नहीं है। अपने उद्योग धंधों और कृषि का विज्ञान एवं तकनीक के जरिए आधुनिकीकरण करके विश्व बाजार का भारत एक बड़ा खिलाड़ी बन सकता है।
आर्थिक मोर्चे की जंग ने एक नये प्रकार के युद्घ का क्षेत्र तैयार किया है। यह युद्घ अपनी तकनीक और कौशल के द्वारा दुनिया के बाजार पर कब्जा करने के लिए लड़ा जा रहा है। इस युद्घ में चीन ने दुनिया के तमाम देशों को पीछे छोड़ दिया है। विज्ञान और तकनीक को विकास का हथियार बनाकर तरक्की करने वाला दूसरा देश जापान है। 1945-46 के परमाणु युद्घ में जापान लगभग बरबाद हो गया था और प्राकृतिक संसाधनों के मामले में भी उसके पास कोई खास चीज नहीं है। प्राकृतिक आपदाओं की मार भी वह झेलता रहा है, लेकिन विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में विकास करके उसने अपने उद्योग धंधों का जो कायाकल्प किया है उसकी मिसाल खोजनी मुश्किल है। चीन की आबादी भारत से अधिक है और उसके पास कृषि योग्य भूमि भी भारत से कम है। पचास-साठ साल पहले चीन के पास ऐसा कुछ नहीं था जिसका उदाहरण पेश जाए लेकिन उसके नेताओं खासकर माओत्से तुंग और उसके बाद जियाबाओ के नेतृत्व में चीन का आधुनिकीकरण हुआ और आज भी जारी है।
हमने आर्थिक सुधार की नीतियों को तो लागू कर दिया पर अपनी नौकरशाही को अभी तक सुधार नहीं सके हैं। वैश्वीकरण के इस युग में सरकार और उसके तंत्र की भूमिका उत्प्रेरक की हो गयी है। हमारे उद्यमी दुनिया के बाजार का अधिक से अधिक लाभ उठा सकें इसके लिए जरूरी है कि सरकार नियामक की नहीं बल्कि सहायक की भूमिका निभाये। जरा सोचिए- पिछली सदी में अपने नये प्रवर्तनों से इतिहास बनाने वाली नामी-गिरामी कंपनियों को भला आज कौन याद करता है? द्वितीय विश्व युद्घ के जमाने में फाचरून 500 ब्रांड सूची की 10 शीर्ष कंपनियों में से सात कंपनियां तो आज इस सूची में जगह तक नहीं पा सकी हैं। दूसरी ओर हम देखते हैं कि जीई या टाटा जैसी कंपनियां समय और जरूरत के साथ अपने को निरंतर बदलते हुए आज भी अग्रणी ब्रांड बनी हुई हैं। जैसे-जैसे वैश्वीकरण की प्रक्रिया गति पकड़ती जा रही है, नई चुनौतियां और अवसर भी उत्पन्न हो रहे हैं। नये बाजार, उत्पाद, मूल्य, कच्चे माल के नये स्रोत एवं वैविध्यपूर्ण प्रतिभाओं की खेप कुछ ऐसे नये अवसर हैं। इस पूरे परिदृश्य में सबसे बड़ी चुनौती उभरता हुए विश्व व्यवसाय वातावरण की जटिलता है। अनन्त संभावनाओं में से उचित समय पर उचित अवसर का पता लगाना और तीव्र गति से उचित निवेश के साथ क्रियान्वयन आज की सबसे बड़ी चुनौती है।
लगातार विकास और कुशल नेतृत्व का चोली दामन का साथ है। दोनों को टिकाए रखने के लिए भारत की मजबूत कंपनियों को चाहिए कि वे अपने घरेलू माहौल के सुरक्षित आंगन से बाहर निकलें। वैश्वीकरण अब अपने पसंद की बात नहीं रही, बल्कि व्यावसायिक मजबूरी बन चुकी है। भारतीय उद्योगों के सामने आज यह एक अद्वितीय चुनौती है। उद्योगों के लिए दो बातें अनिवार्य हैं। एक तो सभी मानदंडों पर खरा उतरना। दूसरी, निरंतर परिवर्तन एवं नवीनता की क्षमता हासिल करना। यहीं पर लोगों या कर्मचारियों का विशेष महत्व होता है। खासकर उस उद्योग में जिसकी सफलता उत्पाद प्रौद्योगिकी और आक्रामक विपणन टीम के सम्मिर्शण के साथ सहयोगी सेवाओं से तालमेल पर टिकी होती है।
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