भारत की अध्यात्मिक गुरु परम्परा में नानक देव

भारत की अध्यात्मिक गुरु परम्परा में नानक देव
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पिता नानक को एक व्यापारी बनाना चाहते थे, लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था।

नई दिल्ली. भारत की अध्यात्मिक गुरु परम्परा में नानक देव सच्ची गुरुता के सर्वोच्च प्रतीक हैं। उनके नाम के साथ जुड़कर ‘गुरु’ शब्द ने जितनी गरिमा पाई, उतनी किसी और नाम के साथ नहीं! जीवन व्यवहार में गुरु नानक की शिक्षा कालजयी हैं। सैकड़ों वर्षों के उपरांत आज भी वे सर्वथा प्रासंगिक और अनुकरणीय बनी हुई हैं। संत शिरोमणि गुरु नानक देव के करोड़ों अनुयायी देश और दुनिया में उनके संदेशों और शिक्षाओं को आत्मसात कर रहे हैं। सैकड़ों वर्षों से छाया पाखंड, फरेब और मक्कारी का अंधकार गुरु नानक देव की वाणी के सुमधुर प्रकाश में स्वत: ही विलीन होता हुआ प्रतीत होता है। प्रेम, बंधुत्व और समानता के संदेशवाहक गुरु नानक देव मानव धर्म के वास्तविक प्रणेता थे। उनके अनुयायियों में हिंदू और मुस्लिम दोनों ही थे, तभी तो उनके बारे में एक लोकोक्ति अत्यंत लोकप्रिय रही-

गुरु नानक एक शाह फकीर,
हिंदू का गुरु मुस्लिम का पीर।
रावी नदी के किनारे अवस्थित (तिलौंडा) तलवंडी ग्राम में कल्याण चंद मेहता (कालू मेहता) एवं तृप्ता देवी के घर संवत 1527 की कार्तिक पूर्णिमा (15 अप्रैल, 1469) को एक दिया प्रदीप्त हुआ। मेहता दंपत्ति की पहली संतान पुत्री नानकी थी। अत: दूसरे बच्चे का नाम रखा गया- ‘नानक’। वर्तमान में यह स्थान पाकिस्तान में है। अब इसका नाम ‘ननकाना साहिब’ है। यह लाहौर से दक्षिण पश्चिम में 65 किलोमीटर दूर है। कालू मेहता तलवंडी में पेशे से पटवारी थे।
पिता नानक को एक व्यापारी बनाना चाहते थे, लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था। 16 वर्ष की उम्र में गुरदासपुर जनपद के लाखौकी ग्राम के निवासी मूला की सुपुत्री सुलखनि देवी से नानक देव का परिणय संस्कार करा दिया गया। विवाह के सोलह वर्ष उपरांत जब नानक 32 वर्ष के थे उनके पहले पुत्र श्री चंद का जन्म हुआ। उसके चार वर्ष बाद दूसरे पुत्र लखमीदास का जन्म हुआ। वे अपनी पत्नी से बार-बार देश भ्रमण की बात करते। वे कहते-अपने लिए तो सभी जी रहे हैं मैं सभी के काम आना चाहता हूं। स्वाभाविक रूप से सुलखनि घबराती और उन्हें घर गृहस्थी में रमने की हिदायत देती रहती। नानक देव कहते प्रकृति का ऋण आप उसकी सेवा करके ही उतार सकते हो। सभी प्राणियों के प्रति सद्भाव और प्रेम उनके संदेशों का सार था। उनका गीत था-राम जी की चिड़िया, राम जी का खेत। खावों री चिड़ियों भर-भर पेट।
38 वर्ष की उम्र में एक दिन नानक देव ने अपनी पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण का भार अपने श्वसुर को सौंप, घर त्यागकर अपने साथियों मरदाना, बाला, लहना और रामदास के साथ देश-भ्रमण के लिए निकल पड़े। उन्होंने सब ओर घूम-घूम कर अपना वतन देखा। जब अपना वतन देखा तो हर तरफ घोर पतन देखा। पूरा भारत भेद-भाव, पाखण्ड और जात-पात के दुश्चक्र में फंसा हुआ था। विदेशी हमलावरों से देश जूझ रहा था। गरीब और निर्धन समुदाय पूंजीपतियों की दासता झेल रहे थे। सामाजिक ढकोसलों में जनता बुरी तरह त्रस्त थी। धर्म के नाम पर पाखंड का कारोबार था। अंधविश्वास की चक्की में भोली-भाली पीढ़ियां पिस रही थी। नानक देव ने अपनी यात्राओं और प्रवचनों के माध्यम से समाज को एक नयी दिशा देनी शुरू की। उन्होंने धर्म में व्याप्त बुराइयों पर प्रहार करने शुरू किये। उन्होंने लगभग 14 वर्षों तक लगातार यात्राएं कीं।
1522 तक उन्होंने अपनी यात्राओं के चार चक्र पूरे किये। उन्होंने भारत, अफगानिस्तान, अरब और फारस देशों के अनेक स्थानों की सक्रिय यात्राएं की। इन यात्राओं को पंजाबी में ‘उदासियां’ कहा जाता है। समूचा संसार ही उन्हें अपना घर लगता। वे हर किसी को अपना मित्र मानते। उनका कहना था-ना मैं हिंदू हूं और नहीं मुसलमान। वे मक्का-मदीना की यात्रा करने वाले पहले और अंतिम गैर इस्लामिक व्यक्ति थे। उनके बारे में एक घटना अत्यंत प्रचलित है। एक दिन काबा प्रवास में जब नानक देव पैर पसारे सो रहे थे तो वहां के एक मौलवी ने उन्हें आकर जगाया। उसने इस बात पर एतराज किया की नानक देव काबा की और पैर करके क्यों सो रहे हैं? इस पर नानक देव ने हंसकर उत्तर दिया-‘मुझे तो हर ओर काबा ही काबा नजर आता है। जिधर तुम्हें काबा ना दिखता हो मेरे पैर उस तरफ कर दो।’ शोर शराबा सुनकर वहां भीड़ इकट्ठा हो गई। दो मुस्लिमों ने आगे बढ़कर उनके पैर उठाये और विपरीत दिशा में घुमाने लगे, तभी एक चमत्कार हुआ जिस तरफ गुरु नानक देव के पैर घुमाये जाते काबा भी उधर ही घूम जाता। गुरु नानक मुस्कराकर कर बोले-खुदा तो इस दुनिया के जर्रे-जर्रे में है।
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