गांधी जी को भी पहनना पड़ा काला चश्मा: तीन बंदरों के बाद अब 'कुछ मत देखो' की नई परंपरा
बलौदाबाजार जिले के महात्मा गांधी चौक पर लगी राष्ट्रपिता की प्रतिमा काले चश्मे में नजर आई।
गांधी जी की प्रतिमा पर काला चश्मा
कुश अग्रवाल- बलौदाबाजार। कहते हैं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पास तीन बंदर थे। एक बुरा मत देखो, दूसरा बुरा मत सुनो और तीसरा बुरा मत कहो। लेकिन बलौदा बाजार शहर की मौजूदा स्थिति को देखते हुए लगता है कि, अब गांधी जी को चौथा संदेश देना पड़ रहा है। जो दिख रहा है, उसे देखने से बचो। शहर के बीचों बीच सबसे व्यस्ततम मार्ग, महात्मा गांधी चौक पर स्थित राष्ट्रपिता की प्रतिमा बीते 4-5 दिनों से काले चश्मे में नजर आ रही है। यह चश्मा गांधी जी की पसंद है या किसी आसामाजिक तत्व की करतूत। यह अब तक रहस्य बना हुआ है, लेकिन शहर में इसकी चर्चा गर्म है।
गौरतलब है कि, गांधीवादी विचारधारा से जुड़े लोगों ने इसे राष्ट्रपिता का अपमान बताया है। उनका कहना है कि, गांधी जी सादगी और सत्य के प्रतीक हैं, उन्हें काले चश्मे में दिखाना उनकी विचारधारा के साथ मज़ाक है। वहीं दूसरी ओर, शहर के कुछ जागरूक नागरिकों का तर्क है कि, जब शहर में अपराध बढ़ रहे हों, सामाजिक तत्व बेलगाम हों और व्यवस्था आंख मूंदे बैठी हो, तो गांधी जी का काला चश्मा पहनना गलत भी नहीं लगता।
नगर सौंदर्यकरण या सौंदर्य का सत्यानाश?
गांधी जी के काले चश्मे का कारण अगर तलाशा जाए तो उसकी झलक नगर पालिका क्षेत्र में ही दिखाई देती है। शहर को सुंदर बनाने के नाम पर लगाए गए प्लास्टर ऑफ पेरिस और फाइबर की सजावटी प्रतिमाएं अब अपनी असलियत दिखाने लगी हैं। कहीं दरारें, कहीं टूट-फूट और कहीं गुणवत्ता की खुली पोल। पहले इसे असामाजिक तत्वों की करतूत बताया गया, नगर पालिका अध्यक्ष ने पुलिस अधीक्षक और कलेक्टर से शिकायत भी कर दी। लेकिन जब जांच हुई तो कहानी ने यू-टर्न ले लिया। जांच में घटिया निर्माण का सच सामने आया है।
काम कराने और काम करने वालों का दोष
पुलिस विभाग की फॉरेंसिक टीम और पीडब्ल्यूडी की संयुक्त जांच में साफ हुआ कि, यह कोई तोड़फोड़ नहीं, बल्कि निम्नस्तरीय निर्माण और घटिया गुणवत्ता का नतीजा है। यानि दोष किसी पत्थर फेंकने वाले का नहीं, बल्कि काम कराने वालों और काम करने वालों का है। तो फिर गांधी जी का काला चश्मा गलत कैसे?
कब तक हम गांधी जी से ही उम्मीद करेंगे?
जब नगर पालिका में ही इतने निचले स्तर का काम हो रहा हो। जब भ्रष्टाचार दरारों से बाहर झांक रहा हो और सफेद चश्मे से सच्चाई देखने में आंखें चुभने लगी हों, तो शायद गांधी जी का काला चश्मा पहनना एक प्रतीकात्मक विरोध ही है। अब सवाल यह नहीं कि, चश्मा किसने पहनाया। सवाल यह है कि, आखिर कब तक हम गांधी जी से ही उम्मीद करेंगे कि, वे सब कुछ देखें और हम सब कुछ अनदेखा करें।