स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: भारतीय संस्कृति का मूल संदेश क्या है?

Jeevan Darshan: जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से 'जीवन दर्शन' में आज जानिए भारतीय संस्कृति का मूल सन्देश के बारे में।

Updated On 2025-05-19 08:11:00 IST

स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन

swami avadheshanand giri Jeevan Darshan: 'यह समस्त जगत एक ही ब्रह्म का विस्तार है। जैसे किरणें सूर्य से और आर्द्रता जल से पृथक नहीं होतीं, वैसे ही जीव और परमात्मा में तत्वतः कोई भेद नहीं है। हम उसी सर्वशक्तिमान की ही चेतन झलक हैं।' जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से 'जीवन दर्शन' में आज जानिए भारतीय संस्कृति का मूल संदेश के बारे में।

भारतीय संस्कृति का मूल संदेश है- 'सर्वत्र ब्रह्म ही है'। यह विचार न केवल आध्यात्मिकता का सार है, बल्कि मानव जीवन की दिशा और दृष्टि को भी निर्धारित करता है। इस संस्कृति की विशेषता यह है कि यह सम्पूर्ण सृष्टि में एक ही विराट, असीम और अनन्त सत्ता परमात्मा का दर्शन करती है। हम उसी दिव्य सत्ता का अविभाज्य अंश हैं।

शास्त्रों और सन्तों का कथन है कि अपने सनातन, नित्य और अविनाशी स्वरूप का बोध न होना, अर्थात् आत्म-विस्मृति ही हमारे समस्त दु:खों की जड़ है। जब तक हम स्वयं को केवल शरीर, नाम या भूमिका तक सीमित समझते हैं, तब तक हम भय, द्वेष, अहंकार और मोह जैसे बन्धनों में जकड़े रहते हैं। आत्मबोध ही इन बन्धनों से मुक्ति का द्वार है। इसलिए विवेक और विचार के द्वारा अपने शाश्वत आत्म-स्वरूप का बोध प्राप्त करना, हमारे जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

यह समस्त जगत एक ही ब्रह्म का विस्तार है। जैसे किरणें सूर्य से और आर्द्रता जल से पृथक नहीं होतीं, वैसे ही जीव और परमात्मा में तत्वतः कोई भेद नहीं है। हम उसी सर्वशक्तिमान की ही चेतन झलक हैं। यही कारण है कि हमारे भीतर भी वही दिव्यता, वही असीम शक्ति और वह अपार सम्भावनाएं निहित हैं। जैसे पुत्र को पिता की संपत्ति में सहज अधिकार होता है, वैसे ही हमें भी परमात्मा की विभूतियों और शक्तियों पर अधिकार है- बशर्ते हम अपने भीतर की चेतना को जाग्रत करें।

इस आत्मिक दृष्टिकोण से यह अत्यन्त आवश्यक हो जाता है कि यदि हम स्वयं के लिए सम्मान, सुख और शान्ति की कामना करते हैं, तो हमें दूसरों को भी वही सम्मान देना चाहिए। जब हर प्राणी में वही परमात्मा विद्यमान है, तो फिर किसी के प्रति तिरस्कार का कोई औचित्य नहीं रह जाता। हमारी संस्कृति परमार्थ और परोपकार की संस्कृति है- एक ऐसी संस्कृति जो दूसरों की रक्षा और कल्याण के लिए अपने सुखों का भी त्याग करने को तत्पर रहती है।

शास्त्रों ने ऐसे लोकोपकारी प्रयासों की बड़ी सराहना की है, जो दूसरों के सम्मान, स्वाभिमान और अभ्युत्थान के लिए किए जाते हैं। उन्होंने परोपकार को ‘यज्ञ’ की संज्ञा दी है- एक ऐसा यज्ञ जिसमें अपने अहंकार, स्वार्थ और सीमित दृष्टि को अर्पित किया जाता है। यही याज्ञिक भावना हमारी आत्मा को ऊंचाई देती है और हमें ईश्वरीय कृपा का पात्र बनाती है। वास्तव में, ईश्वर की अनुकंपा उन्हें ही प्राप्त होती है, जिनका हृदय करुणा, सम्मान और उदारता से परिपूर्ण होता है। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने सद्गुणों का विस्तार करें और प्रत्येक प्राणी में परमात्मा की झलक देखें। यही दृष्टि हमें आत्मबोध की ओर ले जाती है और जीवन को सार्थक बनाती है।

शास्त्रों ने कहा है कि यह मानव जीवन अत्यन्त दुर्लभ है। यद्यपि यह क्षणभंगुर है, परन्तु इसके भीतर जो आत्मा है वह नित्य, अविनाशी और शाश्वत है। भारत के ऋषियों और मनीषियों ने इस आत्मा की अमरता, उसकी व्यापकता और उसकी दिव्यता का बोध न केवल स्वयं किया, बल्कि उसे समस्त विश्व को भी सिखाया।

इसलिए, आइये ! हम आत्मबोध की ओर अग्रसर हों, अपने भीतर छुपे दिव्य सामर्थ्य को पहचानें और एक ऐसे जीवन की ओर बढ़ें, जो न केवल हमारे लिए, बल्कि समस्त सृष्टि के लिए मंगलकारी हो। यही भारतीय संस्कृति का सन्देश है और यही जीवन की सच्ची उपलब्धि भी है।

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