स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: नारी के तप, प्रेम और दृढ़ संकल्प की अमर गाथा- 'वट सावित्री' पर्व
swami avadheshanand giri on 'Vat Savitri': जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज के 'जीवन दर्शन' स्तम्भ में आज पढ़िए 'वट सावित्री' पर्व के महत्व बारे में।
स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन
swami avadheshanand giri on 'Vat Savitri': 'वट सावित्री' पर्व एक ऐसा दिव्य संगम है, जिसमें भारतीय संस्कृति का गहन आध्यात्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक पक्ष प्रकट होता है। जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज के 'जीवन दर्शन' स्तम्भ में आज पढ़िए 'वट सावित्री' पर्व के महत्व बारे में।
भारत की सनातन वैदिक संस्कृति, न केवल प्राचीनतम है, अपितु यह आज भी उतनी ही जीवन्त, कालजयी और मृत्युञ्जयी है। इसका कारण यह है कि यह संस्कृति प्रकृति के सूक्ष्मतम संवेगों से निरन्तर एकीकृत रही है। हमारे पर्व, व्रत, अनुष्ठान और परम्पराएं सभी इस बात की सजीव झलक प्रदान करते हैं कि हमारे ऋषियों ने मानव जीवन को प्रकृति के चिरन्तन नियमों से जोड़कर ही जीवन की व्यवस्था की है।
सनातन संस्कृति का यह मूल तत्व हमें बार-बार यह स्मरण कराता है कि जितना हम प्रकृति के निकट होंगे, उतना ही हमारा जीवन सामर्थ्यवान, संतुलित और समृद्ध होगा। 'वट सावित्री' का पर्व इस दृष्टि से एक अत्यन्त ही अर्थपूर्ण एवं गहन प्रतीकात्मक पर्व है जो वटवृक्ष और नारी की महत्ता को एक साथ स्थापित करता है।
वटवृक्ष (बड़ का पेड़) न केवल भारतीय संस्कृति में, अपितु आयुर्वेद एवं आधुनिक विज्ञान में भी एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसकी शाखाएं एवं प्रशाखाएं जीवन की निरन्तरता और वंश-विस्तार का प्रतीक हैं। वटवृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और अग्रभाग में शिव का वास माना गया है। यह त्रिदेवों का एक प्रतीक बनकर सम्पूर्ण सृष्टि के संचालन का बोध कराता है:-
“वटमूले स्थितो ब्रह्मा, वटमध्ये जनार्दनः।
वटाग्रे तु शिवो देवः, सावित्री वटसंश्रिता।।”
इस वृक्ष की एक और विशेषता यह है कि यह चौबीसों घंटे प्राणवायु (ऑक्सीजन) का उत्सर्जन करता है, जिससे यह पर्यावरण के संरक्षण में सहायक है। इसीलिए वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसकी पूजा तर्कसंगत और श्रेयस्कर मानी जाती है।
वट सावित्री व्रत उस दिव्य नारी शक्ति को स्मरण करता है, जिसने अपने पति सत्यवान को मृत्यु के मुख से वापस लाकर नारी के तप, प्रेम और दृढ़ संकल्प की अमर गाथा रच दी। यह पर्व भारतीय नारी के अखण्ड सौभाग्य, उसके साहस, निष्ठा और आत्मबल का प्रतीक बन चुका है। सावित्री केवल एक पात्र नहीं, वह एक चेतना है, जो यह सिद्ध करती है कि नारी मात्र सहचरी नहीं, वह जीवनदायिनी और रक्षक भी है।
ललिता सहस्रनाम में मां को 'मूलप्रकृतिर्व्यक्ता' कहा गया है, अर्थात् मां ही इस समस्त सृष्टि की मूल प्रकृति हैं। यह प्रतीकात्मक नहीं, अपितु आध्यात्मिक सत्य है कि नारी और प्रकृति में अद्भुत साम्यता है। दोनों ही पोषक, संरक्षक और सृजनकारी शक्तियाँ हैं। जिस प्रकार वटवृक्ष जीवन का आधार है, उसी प्रकार नारी भी जीवन की आधारशिला है।
आज के समय में जब पर्यावरण संकट और नारी सम्मान के विषय में वैश्विक विमर्श हो रहा है, ऐसे में "वट सावित्री" पर्व हमें यह सिखाता है कि इन दोनों मूल स्तम्भों- प्रकृति और नारी- का संरक्षण ही मानव जाति के सतत् विकास का एकमात्र मार्ग है। इस दिन व्रती स्त्रियां वटवृक्ष की पूजा करके यह संकल्प लेती हैं कि वे न केवल अपने परिवार की समृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहेंगी, बल्कि प्रकृति और समाज के हित में भी योगदान देंगी।
'वट सावित्री' पर्व एक ऐसा दिव्य संगम है, जिसमें भारतीय संस्कृति का गहन आध्यात्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक पक्ष प्रकट होता है। यह पर्व हमें प्रकृति के साथ एकात्म होने, नारी शक्ति के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने और जीवन के संतुलन को बनाए रखने की प्रेरणा देता है।
इस व्रत का भाव यही है कि-
'यथाशाखा-प्रशाखाभिर्वृद्धो सित्वं महीले,
तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मां सदा ।।'
अर्थात् जैसे वटवृक्ष अपनी शाखाओं से विस्तृत होता है, वैसे ही हमारा जीवन भी संतति, संस्कृति और संस्कारों के माध्यम से पुष्ट होता रहे। "वट सावित्री" केवल एक पर्व नहीं, भारतीय नारी और भारतीय संस्कृति के अमर मूल्यों का उत्सव है- कालजयी और मृत्युञ्जयी।