स्वामी अवधेशानंद गिरि- जीवन दर्शन: 'हिन्दू धर्म के उत्थान का मूलमंत्र बना आदि शंकराचार्य का समन्वयी दृष्टिकोण'

Jeevan Darshan: आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की उम्र में संपूर्ण भारत की यात्रा कर चार धाम (दक्षिण में शृंगेरी, पश्चिम में द्वारका, उत्तर में ज्योतिर्मठ और पूर्व में पुरी) स्थापित किए। 

Updated On 2025-05-02 11:27:00 IST
स्वामी अवधेशानंद जी गिरि- जीवन दर्शन: क्या बाह्य व्यथाओं के कारण हमारे भीतर का सुख, शांति और आनंद नष्ट हो जाता है?

Swami Avadheshanand Giri Jeevan Darshan: भारतीय आध्यात्मिक परंपरा में अद्वैत वेदान्त वह सर्वोच्च चिंतन धारा है, जो आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता की उद्घोषणा करती है। जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज से 'जीवन दर्शन' में जानिए आद्य शंकराचार्य के अद्वैत चिंतन की महिमा। समझिए कि हिन्दू धर्म के उत्थान में उनके जीवन की साधना कितनी कारगार साबित हुई।  

महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद जी ने बताया, आद्य शंकराचार्य जी ने न केवल उपनिषदों, ब्रह्मसूत्रों और भगवद्गीता पर भाष्य रचकर शास्त्रार्थ को पुनः जीवंत किया, बल्कि व्यावहारिक धरातल पर समन्वयकारी, लोकहितैषी और समष्टिगत चेतना का पुनरुद्धार भी किया। उनका प्रादुर्भाव ऐसे समय में हुआ, जब भारतीय समाज आंतरिक विघटन, रूढ़ियों और आक्रांताओं की काली छाया से ग्रसित था।

अद्वैत वेदान्त की मूल घोषणा है ' ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः' है। यानी केवल ब्रह्म ही परमसत्य है और संसार अज्ञानवश मिथ्या प्रतीत होता है। जीव वस्तुतः उसी ब्रह्म का अभिन्न अंश है। यह दर्शन आत्म-ज्ञान के जरिए मोक्ष का रास्ता प्रशस्त करता है। इसमें न भेदभाव की कोई भावना है और न संप्रदायिक संकीर्णता का स्थान। यही सार्वभौमिकता ही अद्वैत को संपूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी बनाती है।

32 वर्ष की उम्र में 4 धामों की स्थापना
शंकराचार्य जी ने महज 32 वर्ष की उम्र में संपूर्ण भारत की यात्रा कर चार धामों की स्थापना की थी। दक्षिण में शृंगेरी, पश्चिम में द्वारका, उत्तर में ज्योतिर्मठ और पूर्व में पुरी। ये मठ न केवल धार्मिक आस्था, बल्कि ज्ञान-तर्क, साधना और लोकसेवा के भी केन्द्र बने।

शंकराचार्य द्वारा रचित ग्रंथ 
शंकराचार्य ने प्रचालित मतों जैसे सांख्य, मीमांसा, बौद्ध, जैन के साथ शास्त्रार्थ कर अद्वैत वेदान्त की श्रेष्ठता सिद्ध की। शंकराचार्य के भाष्य आज भी वेदान्त के मूल आधार हैं। खासकर उनके द्वारा रचित ग्रंथ जैसे उपदेशसाहस्री, विवेकचूडामणि, अत्मबोध और वाक्यवृत्ति आत्मबोध व मोक्षमार्ग के अमूल्य साधन हैं।

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भक्ति, सेवा और साधना की त्रिवेणी 
शंकराचार्य जी का कार्य केवल तात्त्विक स्तर तक सीमित नहीं रहा। बल्कि उन्होंने भक्ति, सेवा और साधना की त्रिवेणी भी बहाई है। भज गोविन्दं, सौन्दर्यलहरी, शिवानंद लहरी जैसे स्तोत्रों के माध्यम से उन्होंने साधारण जन को भी श्रीविद्या 'ब्रह्मविद्या' की ओर उन्मुख किया। उनका यह दृष्टिकोण ज्ञान, भक्ति, कर्म और उपासना का संतुलन था। साथ ही हिन्दू धर्म के उत्थान का मूलमंत्र बना।

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