उम्मीद पर खरा उतरने की चुनौती, मोदी अपने साथ लाए थे दो चीजें
साल 2014 की शुरुआत भारतीय जनता पार्टी के लिए उसके भाग्य में बदलाव का संकेत और संदेश दोनों लेकर आया।;

साल 2014 की शुरुआत भारतीय जनता पार्टी के लिए उसके भाग्य में बदलाव का संकेत और संदेश दोनों लेकर आया। साल शुरू होने से पहले ही मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सरकार वापस आई, राजस्थान में सत्ता में वापसी हुई और दिल्ली में पंद्रह साल बाद वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। आधा साल बीतते बीतते केंद्र में पहली बार पूर्ण बहुमत से उसकी सरकार बन गई। दो राज्य हरियाणा और महाराष्ट्र में उसकी सरकार बनी, जहां वह हमेशा तीसरे और चौथे नम्बर की पार्टी रही। यह सब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व का करिश्मा था। संगठन व्यक्तियों का मुस्तकबिल बदल देते हैं यह बात तो आम है। लेकिन कोई एक व्यक्ति संगठन की तकदीर बदल दे ऐसा कम ही होता है।
नरेन्द्र मोदी अपने साथ दो चीजें लेकर आए। एक उम्मीद। इस उम्मीद का नारा था सबका साथ सबका विकास। दूसरी चीज वह लाए थे गुजरात में अपने काम का तजुर्बा और उसकी ख्याति। इन दोनों मुद्दों पर मोदी के मुकाबले में खड़े लोग खाली हाथ थे।
भाजपा पिछले दस साल से लगातार निराशा और हताशा के दौर से गुजर रही थी। वह संसद में देश की प्रमुख विपक्षी दल होने के बावजूद मतदाताओं की नजर में सत्तारूढ़ दल का विकल्प नहीं बन पा रही थी। शीर्ष स्तर पर नेता पार्टी को बढ़ाने की बजाय एक दूसरे को गिराने में ज्यादा मेहनत कर रहे थे। कोई किसी को नेता मानने को तैयार नहीं था। पार्टी का पुराना नेतृत्व जगह खाली करने को तैयार नहीं था और नया नेतृत्व अपनी जड़ें जमाने में नाकाम। पार्टी भविष्य की ओर देखने की बजाय अतीत से निकलने को तैयार नहीं थी। बदलाव सब चाहते थे लेकिन कोई खुद बदलने को तैयार नहीं था। देश में निराशा का माहौल था। मतदाता कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार से छुटकारा चाहता था लेकिन लाएं किसे यह समझ में नहीं आ रहा था। सितम्बर 2013 में पार्टी को अपने कार्यकर्ताओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने स्वयंसेवकों के दबाव में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना पड़ा। नरेन्द्र मोदी के जितने विरोधी बाहर थे पार्टी में उससे कम नहीं थे।
नरेन्द्र मोदी अपने साथ दो चीजें लेकर आए। एक उम्मीद। उम्मीद जो सबके लिए थी। इस उम्मीद का नारा था सबका साथ सबका विकास। मोदी के व्यक्तित्व में नकारात्मकता खोजने वाले परेशान थे कि यह शख्स कोई नकारात्मक बात क्यों नहीं कर रहा। दूसरी चीज वह लाए थे गुजरात में अपने काम का तजुर्बा और उसकी ख्याति। इन दोनों मुद्दों पर मोदी के मुकाबले में खड़े लोग खाली हाथ थे। भाजपा के विरोध में हमेशा काम आने वाला धर्मनिरपेक्षता का नारा लोकसभा चुनाव में काम नहीं आया। लोगों ने भाजपा और खासतौर से नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के चश्मे से देखने से इनकार कर दिया। विकास की भूख और रोजगार की आस जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के मुद्दों पर भारी पड़ी। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भाजपा के लिए सब अच्छा ही अच्छा हो रहा है।
नए भौगोलिक क्षेत्रों में विस्तार की भाजपा की पांच छह दशकों की कोशिश अचानक रंग लाने लगी है। हरियाणा जैसा प्रदेश जहां भाजपा हमेशा हाशिए की पार्टी रही आज अकेले दम पर सत्ता में है। यही हाल महाराष्ट्र में हुआ। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले शिवसेना से पच्चीस साल पुराना रिश्ता तोड़कर भाजपा राज्य में चौथे से पहले नम्बर की पार्टी बन गई। शिवसेना को सरकार में शामिल होने के लिए भाजपा की शर्तों पर साथ आना पड़ा। जम्मू-कश्मीर में भाजपा जम्मू क्षेत्र की छोटी मोटी राजनीतिक शक्ति थी। राज्य में चुनाव हो रहे हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद से नरेन्द्र मोदी हर महीने कश्मीर गए। उन्होंने लोगों में एक उम्मीद जगाई है। राज्य के युवाओं को लग रहा है कि उन्हें भी रोजगार मिल सकता है। इन चुनावों को राज्य का सबसे स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव माना जा रहा है। जम्मू-कश्मीर के चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा भाजपा बन गई है। कोई उसे सत्ता में लाने के लिए मैदान में है तो कोई उसे रोकने के लिए। आज भाजपा के सत्ता में आने की बात हो रही है। उसके सबसे बड़े प्रतिद्वन्द्वी पीडीपी के मुफ्ती मोहम्मद सईद प्रधानमंत्री का गुणगान कर रहे हैं। झारखंड को राज्य बने चौदह साल हो गए। इनमें से बारह साल वहां भाजपा सत्ता में रही। बाबू लाल मरांडी को छोड़कर उसकी सभी सरकारें भ्रष्टाचार के लिए जानी जाती हैं। इसके बावजूद लोग नरेन्द्र मोदी की अपील को मानते नजर आ रहे हैं।
लोकसभा चुनाव के बाद से बल्कि कहना चाहिए कि 2014 की शुरुआत से ही भाजपा में रुख बदलाव नजर आने लगा है। भौगोलिक विस्तार के प्रयासों के साथ ही वह ज्यादा समावेशी होती जा रही है। पश्चिम बंगाल में अब तक भाजपा की उपस्थिति नाम मात्र की रही है। लेकिन साल की शुरुआत से जो अभियान चला उसने साल बीतते बीतते भाजपा को विधानसभा के बाहर राज्य की मुख्य विपक्षी राजनीतिक ताकत बना दिया है। राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को वाम दलों से नहीं भाजपा से खतरा नजर आ रहा है। इसी तरह तमिलनाडु में भी पार्टी पैर पसार रही है। भाजपा का अगला लक्ष्य पूर्वोत्तर के राज्यों में सगठन को बढ़ाना है। असम में वह अगले विधानसभ चुनाव में सरकार बनाने के इरादे से मैदान में उतरना चाहती है। ऐसा नहीं है कि भाजपा में जो कुछ हो रहा है वह सब अच्छा ही अच्छा हो। पार्टी के काम काज की शैली में एक बदलाव साफ नजर आ रहा है। सरकार की ही तरह पार्टी में भी केंद्रीयकरण बढ़ रहा है। पार्टी के फैसले कहने को सबसे सलाह मशिवरे के बाद ही लिए जाते हैं। लेकिन आखिरी फैसला मोदी-अमित शाह की जोड़ी लेती है। मोदी को अघोषित रूप से वीटो का अधिकार है। ऐसी व्यवस्था तब बहुत अच्छी लगती है और अच्छी तरह चलती है जब तक सब ठीक ठाक चल रहा हो। लेकिन जैसे ही कोई बड़ा संकट आता है या गलती होती है पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। भाजपा अभी इस खतरे को देखना नहीं चाहती। पार्टी की दूसरी समस्या सरकार को लेकर हो सकती है। उम्मीद जगाना जितना आसान है खरा उतरना उतना ही कठिन।
खबरों की अपडेट पाने के लिए लाइक करें हमारे इस फेसबुक पेज को फेसबुक हरिभूमि, हमें फॉलो करें ट्विटर और पिंटरेस्ट पर-
और पढ़े: Haryana News | Chhattisgarh News | MP News | Aaj Ka Rashifal | Jokes | Haryana Video News | Haryana News App