तो रेल राज्यमंत्री मनोज सिन्हा का बयान है कि यह प्राकृतिक प्रकोप है। हम सब इसके समक्ष बेबस हैं। निस्संदेह, मनुष्य चाहे प्रगति के जितने सोपान लांघ ले, प्रकृति को विजीत करने के दंभ पाल ले, एक सामान्य प्राकृतिक कहर भी उसकी विवशता एवं दुर्बलता को प्रमाणित कर देता है। हम इस समय सात राज्यों में बाढ़ से हुई तबाही देख रहे हैं। उसी बारिश ने संभवत: ऐसे रेल हादसे को अंजाम दे दिया जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। इस हादसे में कितने लोग मरे, कितने घायल हुए इसका हिसाब भी महत्व रखता है, पर देख लीजिए दो-दो रेल कुछ क्षणों ही हादसे के शिकार हो गए। न उनमें टक्कर हुई, न अपनी तीव्र गति के कारण पटरी से उतरे, न सिग्नल में कहीं गड़बड़ी। यानी रेल हादसा का मानवीय कारण यहां गौण है। भारी बारिश ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि पुल उसकी धार को सहन न कर सकी और दो दो रेलों की कई बोगियां नदी की उफनती धारा में समा गईं। तो इसे क्या कहेंगे?
आखिर कारण तो भारी बारिश और उससे पैदा बाढ़ सदृश स्थिति ही है। इस बात का इल्म किसे था कि किसी नदी का उफान ऐसा भयावह विनाश पैदा कर देगा। कोई सामान्यत: इसकी कल्पना कर ही नहीं सकता था। अभी तक की जानकारी से बिल्कुल साफ है कि लगातार बारिश के कारण माचक नदी में पानी उफनाया, पानी का स्तर ऊपर उठता गया और उस पर बना रेलवे पुल धंस गया। यह भी सच है कि भारी बारिश के कारण इस छोटे पुल के ऊपर भी उसकी सहन क्षमता से ज्यादा पानी आ गया। उससे रेलवे ट्रैक के नीचे की मिट्टी भी बह गई। यानी ट्रैक भी रेल के चलने की स्थिति में नहीं रह गई थी। तो नीचे पानी के बहाव और उठाव, ऊपर पानी के वजन से पुल के धंसने और रेलवे ट्रैक के परिचालन स्थिति में नहीं रहने के कारण ही मुंबई से वाराणसी जा रही कामायनी एक्सप्रेस और मुजफ्फरपुर से मुंबई जा रही जनता एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हो गई। यह उन यात्रियों का दुर्भाग्य ही तो था कि ठीक पुल धंसने के समय ही दोनों रेलें उस पर से गुजर रही थीं। कामायनी के 11 और जनता एक्सप्रेस के पांच डिब्बे व इंजन नदी में गिर गए। ध्यान रखिए इन बोगियों में चार सौ से अधिक यात्री सवार थे। इतने अधिक यात्री, वह भी रात का समय, अचानक अगर पूरा डिब्बा उफान मारती नदी की बहती धारा में गिर जाए तो फिर क्या हो सकता है! वही हुआ।
बहरहाल, इसके आधार पर कोई भी यह स्वीकार करेगा कि अगर इतनी ज्यादा वर्षा नहीं होती तो ये रेलें सुरक्षित निकल गई होतीं। खैर, भारत का आपदा राहत बल और सेना के पास अब इतनी क्षमता है कि ऐसे हादसों में वे बेहतर राहत और बचाव कर सकें। इसने किया भी। हम रेल मंत्री सुरेश प्रभु की रात की लगातार ट्विटों पर नजर रखें तो उनसे इसकी सूचनाएं मिल जाती हैं कि कब उन्होंने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से बातचीत की, कब राहत टीमें रवाना हुईं, वहां से क्या सूचनाएं आ रही हैं आदि, लेकिन ऐसे हादसों से निपटना जरा कठिन होता है। कारण, भारी वर्षा कई प्रकार का संकट और चुनौतियां भी लाती है। बोगी सीधे पानी में चली जाए, ऊपर से वर्षा हो रही हो तो राहत और बचाव की चुनौतियां बढ़ जाती हैं। फंसे लोग असहाय की अवस्था में होते हैं।
आसपास के लोगों के लिए भी आम मौसम की तरह सहायता करना कठिन होता है। वर्षा और रास्ते में पानी के कारण बचाव दल तक का पहुंचना कठिन होता है। यह वहां भी हुआ। एक ओर वर्षा दूसरी ओर अंधेरा इसमें न तो डूबते लोगों को बचने का रास्ता नजर आता है, न राहत दल को ही तेजी से उनके पास पहुंचने के उपाय। और इन सबसे हताहतों की संख्या बढ़ती है। कुल लोग तो जनता एक्सप्रेस की बोगी से निकलने के प्रयास में करंट लगने से मौत के मुंह में समा गए। अगर वर्षा का जल नहीं होता तो फिर करंट लगता ही नहीं।
ऐसा नहीं है कि नदी में रेलें पहली बार गिरी हैं। इसी वर्ष 23 मई को असम के कोकराझार में चंपावती नदी में सिफुंग पैसेंजर के कई डिब्बे गिर गए थे। हालांकि उसमें कोई मरा नहीं, पर करीब 40 लोग घायल हो गए। 29 जून, 2005 को सिकंदराबाद पैसेंजर के डिब्बे आंध्र प्रदेश के नलगोंडा में मूसी नदी में गिर पड़े थे जिससे 100 लोगों की मौत हो गई थी। 22 जून, 2001 को मंगलोर-चेन्नई मेल के चार डिब्बे कडालुंडी नदी में लुढ़क गए थे जिनसे 57 लाग मौत के मुंह में समा गए थे। 14 सितंबर, 1997 को बिलासपुर के पास अहमदबाद-हावड़ा एक्सप्रेस के डिब्बे नदी में गिरे थे।
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