समंदर के सिकंदर पर प्रधानमंत्री

समंदर के सिकंदर पर प्रधानमंत्री
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युद्घपोत पर तैनात 34 लड़ाकू हेलीकॉप्टर और विमान इस तरह हथियारबंद हैं कि दुश्मन के किसी भी लक्ष्य को ध्वस्त कर सकते हैं।
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एशिया के सबसे बड़े युद्घपोत ‘आईएनएस विक्रमादित्य’ को नौसेना को सर्मपित किया है। जिस युद्घपोत को स्वीकृति अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने दी थी, उसे भाजपा के ही मोदी ने प्रधानमंत्री के तौर पर देश को सर्मपित किया है। भारतीय नौसेना पड़ोसी देशों की तुलना में बेहद सक्षम और प्रहारक है, लिहाजा हमारा 5717 किलोमीटर का समुद्री तट सुरक्षित महसूस करता है। आईएनएस विक्रमादित्य के शामिल होने से नौसेना की मारक क्षमता व्यापक होगी और दुश्मन भारतीय सीमाओं की ओर आंख उठाने से पहले असंख्य बार सोचेगा। हमारे नये प्रधानमंत्री मोदी ने भी साफ किया है कि हम न तो किसी को आंख दिखाना चाहते हैं और न ही आंख झुकाएंगे। हम आंख से आंख मिला कर आगे बढ़ना चाहते हैं। प्रधानमंत्री के इस कथन को वैश्विक स्तर पर सामरिक समानता की सोच के तौर पर ग्रहण किया जाना चाहिए।

भारत के कूटनीतिक मित्र-राष्ट्र रूस ने विक्रमादित्य का निर्माण किया है, जिस पर करीब 15,000 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। करीब 20 मंजिला इमारत की ऊंचाई वाला और करीब 45,000 टन वजन वाला यह युद्घपोत एक ‘समुद्री किले’ की अनुभूति कराता है। युद्घपोत पर तैनात 34 लड़ाकू हेलीकॉप्टर और विमान इस तरह हथियारबंद हैं कि दुश्मन के किसी भी लक्ष्य को ध्वस्त कर सकते हैं। ‘विक्रमादित्य’ के जरिए हमारी नौसेना, बेशक, ‘समंदर के सिकंदर’ के तौर पर उभरी है, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के भीतर स्वदेशी रक्षा उत्पादन की एक कसक भी है। हमारी सैन्य तैयारियां वक्त से 10-15 साल पिछड़ी हुई हैं। कारण, हम विमानों, हेलीकॉप्टरों, तोपों और अन्य रक्षा उपकरणों के लिए विदेशों के मोहताज हैं। रक्षा सौदे किए जाते रहे हैं, लेकिन सालों तक सप्लाई नहीं की जाती। फ्रांस आज तक रफाल लड़ाकू विमानों की सप्लाई नहीं कर सका है। सप्लाई होने के अंतराल तक प्रौद्योगिकी पुरानी पड़ जाती है। नतीजतन युद्घ और सुरक्षा की हमारी तैयारी अधूरी और छेददार रहती है।
बेशक ‘समंदर के सिकंदर’ का जश्न मनाया जाना चाहिए। समंदर की लहरों की तरह सेना का मनोबल भी उछलना चाहिए लेकिन हमारी 10-15 साल पिछड़ी सैन्य शक्ति पर भी चिंता की जानी चाहिए। हालांकि यह मौका किसी को कोसने का नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का है कि हमारी सामरिक तैयारियां अद्यतन कैसे की जा सकती हैं? हम आज तक गोली-बंदूक तक बनाने में अक्षम क्यों हैं? हम सिर्फ पश्चिम या यूरोप की ओर ही मुंह क्यों ताकते रहे हैं? क्या रूस जैसे देश के सहयोग से हम अपने ही देश में रक्षा उत्पादन की पूरी तरह शुरुआत कर सकेंगे? यदि नौसेना की ही बात करें, तो फिलहाल 11,825 सैनिकों और 1561 अफसरों की कमी है। थलसेना में 9384 अफसर कम हैं, तो वायुसेना में 3674 सैनिकों और 659 अफसरों की तुरंत जरूरत है। इस कमी की भरपाई कैसे और कब तक होगी? जब युवाओं में सेना के प्रति जुनून ही बेहद कम है, तो भारत एक सक्षम सैन्य शक्ति कैसे बन सकता है? मोदी सरकार का लक्ष्य है कि देश में आईआईटी और आईआईएम खोले जाएं लेकिन उसके साथ ही ऐसे आयाम भी स्थापित किए जाने चाहिए कि हमारे युवा, होनहार इंजीनियर विदेश न भागें, बल्कि देश में रहते हुए अनुसंधान करें कि रक्षा उपकरण अपने ही देश में बनने लगें। हालात ऐसे बनें कि हम रक्षा उपकरणों का निर्यात करने लगें।
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बहरहाल अभी यह सपना-सा लगता है, लेकिन मोदी सरकार ने इच्छाशक्ति के स्तर पर चाहा, तो ऐसे अच्छे दिन भी आ सकते हैं। सवाल यह भी किया जा सकता है कि सेना को बीते सालों में तोपें मुहैया क्यों नहीं कराई गईं? बोफोर्स के बाद कोई भी तोप क्यों नहीं खरीदी गई? क्या सरकारें घोटालों और विवादों से डरती हैं? तो क्या इस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता किया जा सकता है? लिहाजा ‘समंदर के सिकंदर’ की खुशी तो अवर्णनीय है, लेकिन मोदी सरकार के सामने राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर सबसे बड़ी चुनौती भी यही है। वह आमूल परिवर्तन करे। इस बार 25 फीसदी ज्यादा रक्षा बजट की मांग की गई है। उस पर सरकार गंभीरता से विचार करे, क्योंकि चीन का रक्षा बजट हमसे तीन गुना है और नौसेना की दृष्टि से भी वह हमसे कई गुना आगे है। हालांकि हमारे पास लड़ाकू जलपोत 24 हैं, जबकि चीन के पास सिर्फ 9 ही हैं। लिहाजा सरकार को चाहिए कि वह रक्षा सौदों की प्रक्रिया को सरल बनाए।
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