इराक की अनदेखी न करें

इराक की अनदेखी न करें
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हमें यह शिया-सुन्नी संग्राम लगता है। वहीं यह भी समझ में आता है कि राजनीतिक इस्लाम का वहाबी स्वरूप अंगड़ाई ले रहा है।

यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इराक में लड़ रहे लोग कल अफगानिस्तान तक आएंगे। पाक में बैठे जेहादी बयानों पर यकीन किया जाए तो वे इस युद्ध को भारत के कश्मीर तक लाना चाहते हैं। इसलिए भारत सरकार सावधान रहे और इराक के घटनाक्रम पर अपनी सूक्ष्म नजर गड़ाए रखे। इ राक में पिछले कुछ महीनों से हलचल है। कुछ महीनों क्या कुछ सालों से इराक और सीरिया की सीमा पर जबर्दस्त जद्दो-जहद चल रही है। इस खूंरेजी में अमेरिका, इजराइल, सऊदी अरब, तुर्की और इराक के साथ ईरान की भूमिका भी है। इसके अलावा अल-कायदा या उसके जैसी कट्टरपंथी ताकतों के उभरने का खतरा हो, जो अफ्रीका में बोको हराम या ऐसे ही कुछ दूसरे संगठनों की शक्ल में सामने आ रही है। इस पूरी समस्या के कई आयाम हैं।

हमने इसकी ओर अभी तक ध्यान नहीं दिया तो इसकी वजह सिर्फ इतनी थी कि इसमें हम सीधे नहीं लिपटे थे। पर अब बड़ी संख्या में भारतीयों के वहां फंस जाने के कारण हम उधर निगाहें फेर रहे हैं। गौर से देखें तो हमारे लिए यह समस्या केवल अपने लोगों के फंसे होने की नहीं है। इराक के संकट के जो खास पहलू हैं उनमें सबसे बड़ा यह है कि क्या यह इस्लामी जगत के भीतर का संग्राम है या पश्चिम एशिया में अमेरिकी हस्तक्षेप का दुष्परिणाम?

दूर से हमें यह शिया-सुन्नी संग्राम लगता है। वहीं यह भी समझ में आता है कि राजनीतिक इस्लाम का वहाबी स्वरूप अंगड़ाई ले रहा है। यह भी कि मध्य युग के इस्लामी राज्य खुरासान को पुनस्र्थापित करने की यह कोशिश है। इसका असर केवल इराक तक ही नहीं अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान तथा उज्बेकिस्तान जैसे पश्चिम एशियाई इलाकों तक पड़ेगा। ऐसा भी लगता है कि इस इलाके में तेल सम्पदा को लेकर स्वाथरें की टकराहट है। इसका एक पहलू अरब देशों में लोकतांत्रिक बयार से जुड़ा है, हालांकि इस समाज में लोकतांत्रिक परम्पराएं, खासतौर से पश्चिम जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं पहले से मौजूद नहीं है।

कई सवाल एक साथ हैं। अमेरिकी सेना इस साल अफगानिस्तान से हटने जा रही है। अब इराक के हालात देखते हुए यह समझना होगा कि आने वाले समय के हालात क्या होंगे। वास्तव में अमेरिका अब सीरिया और इराक में अपने पैर फंसाकर हाराकीरी नहीं करना चाहेगा। पर वह इस इलाके से भाग भी नहीं सकता। इसीलिए उसने अपने एक नौसैनिक बेड़े को खाड़ी की ओर रवाना कर दिया है। यों भी इस इलाके में अमेरिका अपनी फौजी उपस्थिति बनाकर रखता है। इराक चाहता है कि अमेरिकी वायुसेना आगे बढ़ रहे बागियों पर हमले करे, पर अमेरिका फूंककर कदम रख रहा है।
उसने अपने तीन सौ के आसपास सैनिक सलाहकार इराक भेजे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वह इस कार्रवाई में ईरान के साथ समन्वय के लिए तैयार है। हालांकि यह जोखिम भरा काम है। वह ईरान की खातिर सऊदी अरब के साथ रिश्ते भी खराब नहीं करना चाहेगा। पिछले साल जब सीरिया में रासायनिक हथियारों को लेकर दबाव बनाया जा रहा था, तब लगता था कि अमेरिका शिया और सुन्नियों के बीच झगड़ा बढ़ाकर अपनी रोटी सेंकना चाहता है। ऐसा भी लगता था कि उसने ईरान पर दबाव बनाने के लिए सलाफी इस्लाम के सर्मथकों से हाथ मिला लिया है, जिनका गढ़ पाकिस्तान है और जिसे सऊदी अरब से पैसा मिलता है। सीरिया में रूस की भूमिका भी है और हाल में अमेरिका और रूस के बीच यूक्रेन को लेकर सीधा टकराव है।
इराक से अमेरिका की सेना सन 2011 में हट गई थी। इराक में कई प्रकार की आबादी है। इनमें शिया और सुन्नी दोनों समुदाय हैं। प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी शिया समुदाय से आते हैं। जाने या अनजाने वे सुन्नियों के साथ अच्छा रिश्ता कायम नहीं कर पाए। या यह कहें कि सीरिया में बशर अल असद के खिलाफ लड़ रहे समूहों ने अपनी ताकत बढ़ा ली। इनमें सबसे महत्वपूर्ण समूह है अल-दावला-अल-इस्लामिया फिल इराक वा अल-शाम (इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया या आईसआईएस)। इस इलाके से अमेरिकी सेना के हटते वक्त इधर अल-कायदा की गतिविधियां कम हो गई थीं।
हां, इराक के नए निजाम का सुन्नियों के साथ टकराव शुरू हो गया। 2013 में इस इलाके में हुई हिंसा में तकरीबन आठ हजार नागरिक मरे थे। इराक और तुर्की की सीमा पर कुर्द भी स्वायत्त क्षेत्र के लिए लम्बे अरसे से संघर्ष कर रहे हैं। वे आईसआईएस के साथ नहीं हैं, पर अपने अधिकारों को लेकर इराक की सरकार के खिलाफ हैं। 2003 में इराक पर हमला करते वक्त अमेरिका ने दावा किया था कि इराक के पास रासायनिक हथियार हैं। उसने यह भी कहा कि सद्दाम हुसैन का अल-कायदा के साथ गठबंधन है। दोनों बातें गलत साबित हुईं। सद्दाम हुसैन की बाथ पार्टी इस इलाके में सेक्युलर संगठन था। वह कई प्रकार के समूहों को साथ लेकर चलता था।
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