Sunday Special: जानें क्या है ओलंपिक में पदकों का इतिहास?, जिसे जीतना हर खिलाड़ी का होता है सपना

Sunday Special: जानें क्या है ओलंपिक में पदकों का इतिहास?, जिसे जीतना हर खिलाड़ी का होता है सपना
X
इस बार टोक्यो ओलंपिक की 339 स्पर्धाओं के पारंपरिक पदक समारोह के लिए कई बदलाव किए गए हैं। कोरोना महामारी के कारण इस बार खिलाड़ियों को पदक तो मिलेंगे लेकिन वो पदक उन्हें खुद ही पहनने होंगे।

Sunday Special: टोक्यो ओलंपिक (Tokyo Olympics) शुरु होने में महज कुछ ही दिन बचे हैं, खेलों के इस महाकुंभ में शामिल होने के लिए कई देशों के खिलाड़ी जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। ओलंपिक में हर खिलाड़ी की ख्वाहिश होती है कि वह अपने देश के लिए मेडल (Medals) जरूर जीते। लेकिन इस बार टोक्यो ओलंपिक की 339 स्पर्धाओं के पारंपरिक पदक समारोह के लिए कई बदलाव किए गए हैं। कोरोना महामारी (Coronavirus) के कारण इस बार खिलाड़ियों को पदक तो मिलेंगे लेकिन वो पदक उन्हें खुद ही पहनने होंगे। लेकिन क्या आपको पता है ये जिन मेडल्स के लिए खिलाड़ी दिन रात एक कर देते हैं, आखिर उनका इतिहास क्या है? आज हम आपको संडे स्पेशल में बताएंगे मेडल्स का दिलचस्प इतिहास...

मेडल्स का लंबा सफर

एक समय में ओलंपिक खेलों में जीतने वाले खिलाड़ियों को जैतून के फूलों का हार दिया जाता था इसके बाद टेक्नोलॉजी के दौर में पुराने मोबाइल फोन और इलेक्ट्रिक के सामान को गलाकर ओलंपिक के मेडल तैयार किए जाने लगे।

टोक्यो का मेडल

टोक्यो ओलंपिक के मेडल्स रीसाइकल्ड इलेक्ट्रिक सामानों से बने हैं, जो 8.5 सेंटीमीटर व्यास के होंगे। साथ ही इस पर यूनान की जीत की देवी नाइकी की तस्वीर बनी होगी। लेकिन पिछले कुछ सालों से मेडल्स को सोना, चांदी और कांसे से तैयार किया जा रहा है। जिसे जापान ने 79 हाजर टन से ज्यादा इस्तेमाल किए गए मोबाइल फोन और अन्य छोटे इलेक्ट्रिक सामानों से निकाला है। पुराने ओलंपिक खेलों के दौरान विजेता खिलाड़ियों को कोटिनोस या जैतून के फूलों का हार दिया जाता था जिसे ग्रीस में पवित्र पुरस्कार माना जाता था।

1896 में एथेंस में यूनान की खो चुकी पुरानी परंपरा ने ओलंपिक खेलों में फिर से जन्म लिया, जिसके चलते नई रीतियों ने जगह ले ली और फूलों की माल की बजाय पदक देने की परंपरा शुरु हो गई। वहीं विजेता खिलाड़ियों को रजत जबकि उपविजेता को तांबे या कांसे का पदक दिया जाता था। पदक पर देवताओं के पिता ज्यूस की तस्वीर बनी थी, जिन्होंने नाइक को पकड़ा हुआ था। ज्यूस के सम्मान में ही इन खेलों का आयोजन किया जाता था।

1904 से दिए गए तीनों पदक

1904 खेलों में पहली बार स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक का इस्तेमाल किया गया। वहीं ये पदक यूनान की पौराणिक कथाओं के शुरुआती तीन युगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन तीनों पदकों के भी अपने मायने हैं। तीनों पदकों को तीन युग के तौर पर माना जाता है, जैसे स्वर्ण का मतलब है 'स्वर्णिम युग' जहां इंसान देवताओं के साथ रहता था, रजत युग- जहां जवानी सौ साल की होती थी और कांस्य युग या नायकों का युग।


मेडल्स में आया बदलाव

ओलंपिक मेडल्स में हर एक सदी में इनके साइज, वजन, कॉम्बिनेश और इनमें बनी तस्वीर में बदलवा होता रहा है। इसके बाद आईओसी ने 1923 में ओलंपिक खेलों के पदक को डिजाइन करने के लिए शिल्पकारो की प्रतियोगिता शुरु की। जिसमें इटली के कलाकार ज्युसेपी केसियोली के डिजाइन को 1928 में विजेता चुना गया। वहीं फिर 1924 में पेरिस ओलंपिक आयोजित किए गए।

1972 म्यूनिख ओलंपिक से मेडल्स के पिछले हिस्से में बदलाव की इजाजत दी गई। हालांकि, अगले हिस्से में 2004 में एथेंस ओलंपिक के दौरान बदलाव हुआ। इसमें नाइकी की नई तस्वीर थी वो सबसे मजबूत, सबसे ऊंचे और सबसे तेज खिलाड़ी को जीत प्रदान करने 1896 पैनाथेनिक स्टेडियम में उड़ती हुई आ रहीं थी।

मेडल में रिबन नहीं होते थे

1960 से पहले तक विजेताओं की छाती पर पदक रिबन से नहीं बल्कि पिन से लगाए जाते थे लेकिन इन खेलों में पदक का डिजाइन नैकलेस की तरह बनाया गया और खिलाड़ी चेन की मदद से इन्हें अपने गले में पहन सकते थे। चार साल बाद इस चेन की जगह रंग-बिरंगे रिबन ने ली, जो आज तक कायम है।

गोल्ड मेडल नहीं होते सोने के

आपको जानकर हैरान होगी लेकिन गोल्ड मेडल्स को पूरी तरह से सोने का नहीं बना होता है, 1912 स्टॉकहोम ओलंपिक में आखिरी बार पूरी तरह सोने के बने तमगे दिए गए। लेकिन अब मेडल्स पर सिर्फ सोने का पानी चढ़ाया जाता है आईओसी के निर्देशों के अनुसार स्वर्ण पदक में कम से कम 6 ग्राम सोना चाहिए, लेकिन असल में उनमें चांदी का बड़ा हिस्सा होता है।

WhatsApp Button व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें WhatsApp Logo

Tags

Next Story