प्रेमचंद की प्रासंगिकता
प्रेमचंद के जन्मदिवस पर विशेष

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31 जुलाई, जन्मदिवस पर-
प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि राजनीति के आगे मशाल दिखाते हुए चलने वाली सच्चाई है। साहित्य का क्षेत्र संपूर्ण जीवन है। वह जीवन को उसकी समग्रता में ग्रहण करता है और एक सामाजिक इकाई के रूप में व्यक्ति के जीवन और सामाजिक यथार्थ के जटिल व बहुआयामी स्वरूप को उद्घाटित करता है। साहित्य जीवन की पुनर्रचना है और इस पुनर्रचना में उसकी आलोचना निहित होती है। यही कारण है कि प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की आलोचना बताया था।
प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य इस कसौटी पर खरा उतरता है। यही कारण है कि प्रेमचंद के साहित्य की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। आज भी प्रेमचंद का साहित्य सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है। देश ही नहीं, विदेशों में भी प्रेमचंद के पाठकों की कोई कमी नहीं है। प्रेमचंद के साहित्य की लोकप्रियता का प्रमाण है साल-दर-साल उनकी किताबों के नए संस्करणों का प्रकाशन।
प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं, बल्कि राजनीति के आगे मशाल दिखाते हुए चलने वाली सच्चाई है। साहित्य का क्षेत्र संपूर्ण जीवन है। वह जीवन को उसकी समग्रता में ग्रहण करता है और एक सामाजिक इकाई के रूप में व्यक्ति के जीवन और सामाजिक यथार्थ के जटिल व बहुआयामी स्वरूप को उद्घाटित करता है। साहित्य जीवन की पुनर्रचना है और इस पुनर्रचना में उसकी आलोचना निहित होती है। यही कारण है कि प्रेमचंद ने साहित्य को जीवन की आलोचना बताया था।
प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य इस कसौटी पर खरा उतरता है। यही कारण है कि प्रेमचंद के साहित्य की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। आज भी प्रेमचंद का साहित्य सबसे ज्यादा पढ़ा जाता है। देश ही नहीं, विदेशों में भी प्रेमचंद के पाठकों की कोई कमी नहीं है। प्रेमचंद के साहित्य की लोकप्रियता का प्रमाण है साल-दर-साल उनकी किताबों के नए संस्करणों का प्रकाशन।
अब तो प्रेमचंद की किताबों पर से कॉपीराइट समाप्त हो जाने से बहुतेरे प्रकाशक उनकी किताबों के सस्ते संस्करण प्रकाशित कर रहे हैं। यही नहीं, प्रेमचंद की रचनाओं के अनुवाद लगभग सभी भारतीय भाषाओं में होने से हर पढ़ा-लिखा भारतवासी उनके नाम से परिचित है। स्कूल-कॉलेजों के सिलेबस में उनकी रचनाएं लगी होने से देश का बच्चा-बच्चा उनका नाम जानता है। दुनिया की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में प्रेमचंद की कृतियों के अनुवाद उपलब्ध हैं।
प्रेमचंद आधुनिक भारत के प्रतिनिधि लेखक हैं। उनका लेखन बहुआयामी है। संक्षेप में कहें तो उनके लेखन में 'भारत की आत्मा' की अभिव्यक्ति हुई है। अपनी रचनाओं में प्रेमचंद अपने समय के मूलभूत सवालों से दो-चार होते हैं। युगीन यथार्थ को वे उसकी संपूर्णता में उद्घाटित करते हैं। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में समग्र और जटिल जीवन स्थितियों का चित्रण हुआ है। सभी पात्र वास्तविक और जीवंत हैं। कहीं भी कुछ आरोपित और गढ़ा हुआ नहीं है। फिर किस्सागोई की शैली ऐसी कि पाठक एक बार पढ़ना शुरू कर दे तो कहीं ऊब नहीं सकता। यह है प्रेमचंद की खासियत जो उन्हें विशिष्ट ही नहीं, कालजयी रचनाकार बनाती है।
प्रेमचंद आधुनिक भारत के प्रतिनिधि लेखक हैं। उनका लेखन बहुआयामी है। संक्षेप में कहें तो उनके लेखन में 'भारत की आत्मा' की अभिव्यक्ति हुई है। अपनी रचनाओं में प्रेमचंद अपने समय के मूलभूत सवालों से दो-चार होते हैं। युगीन यथार्थ को वे उसकी संपूर्णता में उद्घाटित करते हैं। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में समग्र और जटिल जीवन स्थितियों का चित्रण हुआ है। सभी पात्र वास्तविक और जीवंत हैं। कहीं भी कुछ आरोपित और गढ़ा हुआ नहीं है। फिर किस्सागोई की शैली ऐसी कि पाठक एक बार पढ़ना शुरू कर दे तो कहीं ऊब नहीं सकता। यह है प्रेमचंद की खासियत जो उन्हें विशिष्ट ही नहीं, कालजयी रचनाकार बनाती है।
प्रेमचंद ने लेखन की शुरुआत ऊर्दू में की। उनकी कहानियां मुंशी दयाराय निगम की पत्रिका 'ज़माना' में प्रकाशित होती थीं। पर जब उनकी कहानियों का पहला संग्रह 'सोज़े वतन' के नाम से आया तो औपनिवेशिक सरकार को इससे खतरा महसूस हुआ। प्रेमचंद सरकारी नौकरी में थे। जिला के हाकिम ने उन्हें बुलाकर लिखना बंद करने को कहा। 'सोज़े वतन' की सारी उपलब्ध प्रतियां जला दी गईं। उस समय वे नवाब राय नाम से लिखते थे। यह उनका वास्तिवक नाम था। पर लेखन पर सरकारी पाबंदी लग जाने के बाद मुंशी दयाराय निगम की सलाह पर उन्होंने नया नाम प्रेमचंद अपनाया और लिखना जारी रखा।
'सोज़े वतन' यानी देश का दर्द में एक कहानी है 'दुनिया का अनमोल रतन'। इस कहानी का एक किरदार कहता है – 'ख़ून का वो आख़िरी क़तरा जो वतन की हिफ़ाजत में गिरे दुनिया का अनमोल रतन है।' इसी पंक्ति से अंग्रेजों को खतरे की बू आई थी। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं के माध्यम से देश और देशवासियों के दर्द को सामने लाना जारी रखा।
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उनके समग्र साहित्य में औपनिवेशिक और सामंती उत्पीड़न से त्रस्त ग्रामीण भारत का दुख-दर्द सामने आया है। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति 'गोदान' भारतीय किसान के त्रासदीपूर्ण जीवन की महागाथा है। कर्ज में डूबे जिस भारतीय किसान के जीवन की जैसी विडंबनाएं वे सामने लाते हैं, आजादी के इतने वर्ष गुजर जाने के बाद भी वे परिस्थितियां खत्म नहीं हुई हैं, बल्कि बदले हुए रूपों में और भी उग्र होकर सामने आई है। प्रेमचंद का किसान कर्ज में डूबा होने पर भी आखिरी दम तक संघर्ष करता रहता है, पर आज तो स्थितियां इतनी विकराल हो गई हैं कि किसान कर्ज में डूबकर आत्महत्या कर रहे हैं और वो भी लाखों की संख्या में। इसी तरह, अपने उपन्यास 'रंगभूमि' में प्रेमचंद ने उद्योग स्थापित करने के लिए किसानों की जमीन छीनने, उनके विस्थापन और इसके विरोध में एक मामूली आदमी सूरदास के संघर्ष की कहानी लिखी। सूरदास आखिरी दम तक अपनी जमीन से कब्जा नहीं छोड़ता और संघर्षरत रहता है। आज सरकार द्वारा किसानों की जमीन का अधिग्रहण राजनीति का बड़ा मुद्दा बना हुआ है।
समझा जा सकता है कि प्रेमचंद ने अपनी गहरी अंतर्दृष्टि से आने वाले समय को समझ लिया था। उनका एक और महत्वपूर्ण उपन्यास 'प्रेमाश्रम' भी किसानों की जिंदगी और व्यापक सामाजिक बदलाव से जुड़े सवालों को उठाता है। प्रेमचंद ने भारतीय समाज की जातिवादी व्यवस्था के घृणित रूप को भलीभांति समझा था। तभी उन्होंने 'कफन' और 'सद्गति' जैसी कालजयी कहानियां लिखीं।
प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य उस दौर में लिखा गया जब औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के लिए देश में व्यापक संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष से प्रेमचंद इस हद तक जुड़े थे कि महात्मा गांधी ने जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो उनके आह्वान पर उन्होंने अंग्रेजी सरकार की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने 'हंस' मासिक और 'जागरण' पाक्षिक का प्रकाशन शुरू किया। प्रेमचंद यह बात समझ चुके थे कि अंग्रेजों के भारत छोड़कर चले जाने से देश की समस्याएं नहीं सुलझेंगी। उन्होंने समाज व्यवस्था के सवाल को उठाया था। उनका मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता से कुछ नहीं हो सकता, जब तक सामाजिक और आर्थिक स्वाधीनता की स्थापना नहीं होती। उन्होंने साफ कहा था कि केवल जॉन की जगह गोविंद को बिठा देने से कुछ नहीं होने वाला, जब तक शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में मूलभूत बदलाव नहीं होता।
प्रेमचंद का संपूर्ण साहित्य उस दौर में लिखा गया जब औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के लिए देश में व्यापक संघर्ष चल रहा था। इस संघर्ष से प्रेमचंद इस हद तक जुड़े थे कि महात्मा गांधी ने जब असहयोग आंदोलन शुरू किया तो उनके आह्वान पर उन्होंने अंग्रेजी सरकार की नौकरी छोड़ दी। उन्होंने 'हंस' मासिक और 'जागरण' पाक्षिक का प्रकाशन शुरू किया। प्रेमचंद यह बात समझ चुके थे कि अंग्रेजों के भारत छोड़कर चले जाने से देश की समस्याएं नहीं सुलझेंगी। उन्होंने समाज व्यवस्था के सवाल को उठाया था। उनका मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता से कुछ नहीं हो सकता, जब तक सामाजिक और आर्थिक स्वाधीनता की स्थापना नहीं होती। उन्होंने साफ कहा था कि केवल जॉन की जगह गोविंद को बिठा देने से कुछ नहीं होने वाला, जब तक शोषण पर आधारित सामाजिक व्यवस्था में मूलभूत बदलाव नहीं होता।
उनके लिए सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में बदलाव का सवाल सबसे महत्वपूर्ण था। ठीक यही बात भगत सिंह ने भी कही थी कि गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों के सत्ता में आ जाने से कुछ होने वाला नहीं। प्रेमचंद खुद को कलम का मजदूर मानते थे। उनका कहना था कि जिस दिन वे न लिखें, उन्हें रोटी खाने का अधिकार नहीं है। प्रेमचंद अपने जीवन के आखिरी दिन तक लिखते रहे।
1936 में जब प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई तो उन्हें उसकी अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया। उस सम्मेलन में प्रेमचंद ने जो भाषण दिया, वह आधुनिक साहित्य का घोषणापत्र बन गया।
उन्होंने कहा, ''साहित्य का काम केवल मन बहलाव का सामान जुटाना नहीं है। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।"
1936 में जब प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई तो उन्हें उसकी अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया। उस सम्मेलन में प्रेमचंद ने जो भाषण दिया, वह आधुनिक साहित्य का घोषणापत्र बन गया।
उन्होंने कहा, ''साहित्य का काम केवल मन बहलाव का सामान जुटाना नहीं है। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो, जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।"
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