आइए आपका परिचय करवाते हैं क्रांतिकारी बाघा जतिन से, जिनकी योजना सफल होती तो 1915 में ही भारत आजाद हो जाता
क्रांतिकारी बाघा जतिन फौलादी इरादों के क्रांतिकारी थे। भय को उन्होंने मां के कहने पर बचपन में ही अपने से दूर कर लिया था और अत्याचार के खिलाफ लडने को ही उन्होंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया था।

लेखक: एडवोकेट रघुबीर सिंह दहिया
विज्ञान के सहारे ब्रिटेन ने अपने साम्राज्य का विस्तार कर शोषण एवं लूट के लिए ताकत एवं छल से पांव पसारकर देश की आर्थिक व्यवस्था की जडों को काट दिया। जिससे आर्थिक तबाही ने नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के पतन का रास्ता भी खोल दिया। सामंतवाद की गर्दन में रस्सा डालकर जब जनता केा शोषण की चक्की में पीसना शुरू किया तो बर्बर जुल्मों के जख्मों से रिसता हुआ विरोध का जज्बा भी पैदा हुआ। भारत की बहादुर जनता ने ब्रिटिश शासन के दमन और शोषण के खिलाफ विद्रोह का सिलसिला शुरू कर दिया तो कुछ गददार, स्वार्थी, कृतघ्न और नुगरे अपने ही देश के खिलाफ अंग्रेजों की गुप्त रूप से मुखबिरी के काम में जुट गए।
आक्रोश की सुलगती हुई आग की आंच में झुलसे हुए कोमल हाथ फौलाद से भी मजबूत बन गए। अंग्रेज उनका नाम सुनकर थर-थर कांपते थे और मजलूम साहस से आजादी की हुंकार भरने लगे। जंगल में एक बेहद खूंखार बांघ को बीस मिनट के संघर्ष में मार गिराने वाले जतिंद्रनाथ मुखर्जी उर्फ बाघा जतिन के नाम से दुनिया में विख्यात हो गए। अपनी मां शरत शशि के महान आदर्श से प्रेरित जुगांतर के सर्वोच्च नेता बाघा जतिन शोषणमुक्त आजादी के लिए संघर्ष करते हुए दस सितंबर 1915 को शहीद हुए। जब देशबंधु चितरंजन दास को बाघा जतिन के शहीद होने की सूचना मिली तो वे फूट फूटकर रोने लगे। उनका आठवां शहादत दिवस पर उन्हें याद करते हुए लाहौर में भगत सिंह ने उनके एक फोटो की मांग की। नजरूल इस्लाम ने बालासोर युद्ध का गीत गाते हुए उनकी तुलना हल्दी घाटी के युद्ध से की। कलकत्ता में रविंद्रनाथ टैगोर ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को जननायक लीडर आफ द पीपल कहा और बाघा जतिन की महान विरासत के उत्तराधिकारी बनने की पेशकश की। यदि गद्दार सरकार को सूचना नहीं देते तो बाघा जतिन की योजना सफल भी हो जाती और देश 32 साल पहले ही 1915 में ही शोषण से मुक्त हो जाता और देश का विभाजन भी नहीं होता।
जतिंद्रनाथ का जन्म सात दिसंबर 1879 को कलकत्ता के उत्तर पूर्व में 150 किलोमीटर दूर नादिया जिले के कोया गांव में हुआ था। वर्तमान में यह गांव बंगला देश के कुष्ठिया जिला में आता है। उनकी मां का नाम शरतशशि और पिता का नाम उमेश चंद्र था। जिस घर में जतिंद्रनाथ का जन्म हुआ, उसमें लगभग एक हजार अतिथियों का सम्मान किया जा सकता था। जतिंद्रनाथ के पिता उमेशचंद्र शिक्षा और ज्ञान के कारण जाने माने व्यक्ति थे। आसपास के नील बागानों के मालिक उनके महान चरित्र से बहुत प्रभावित थे और उनका पूरा आदर सम्मान करते थे। अक्समात 34 वर्ष की आयु में 1884 में उनकी मृत्यु से परिवार को असहनीय गहरी चोट पडी। शरत शशि अपने दोनों बच्चों की बिनोद बाला और जतिंद्रनाथ को लेकर अपने बडे भाई बसंत कुमार के पास चली गई, जो कृष्णानगर लॉ कॉलेज में प्रोफेसर थे। उस समय जतिंद्रनाथ की आयु पांच वर्ष थी। मामा प्रोफेसर बसंत कुमार ने जतिंद्रनाथ का दाखिला कृष्णानगर के एंग्लो वर्नाकुलर स्कूल में करवा दिया। पूरा परिवार ईश्चर चंद्र विद्यासागर के विचारों से बहुत प्रभावित था।
मां शरत शशि ने बच्चों की पढाई पर पूरा ध्यान दिया और बचपन में ही हेमंत चंद्र और बंकिम चंद्र के साहित्य से अवगत करवाया। वह स्वयं भी विद्वान व प्रवीण कवि थी। एक दिन जब वे खाना बना रही थी तो जतिंद्रनाथ घर के दरवाजे से भागकर मां के पास आ गया। बिनोदबाला ने मां को बताया कि कुत्ते को देखकर डरता हुआ भागकर आया है तो मां ने चूल्हे में से जल्दी हुई लकडी के लंबे डंडे को बेटे के हाथ में पकडाते हुए कहा कि जाकर उस कुत्ते को भगाकर आओ। मां की आज्ञा मानकर वह तुरंत वापस गया और उस कुत्ते को वहां से भागकर आ गया। मां ने उसके माथे को चूमकर कहा कि मुझे कायर और डरपोक बेटा नहीं चाहिए। बिनोद बाला ने कहा कि ये वो पहला और अंतिम क्षण था जब उसने अपने भाई को डरा हुआ देखा था। एक पडोस की महिला के शिकायत पर मां शरत शशि ने अपने पुत्र जतिंद्र नाथ को डांटते हुए कहा कि क्या तुम भूल गए हो कि किसके पुत्र हो? क्या तुम उस महान इंसान की याद को मिट्टी में मिला रहे हो? मां ने अपने बेटे को इंसानियत से प्यार करना सिखाया और जुल्म के खिलाफ प्रतिशोध की आवाज बुलंद करना भी सिखाया।
मैट्रिक के बाद 1995 में प्रवेश परीक्षा पासकर आगे की पढाई के लिए जतिंद्रनाथ अपनी बहन बिनोदबाला के साथ कृष्णानगर से कलकत्ता चले गए। उन्होंने सैंट्रल कॉलेज कलकत्ता में फाइन आर्ट्स में प्रवेश लिया। वर्तमान में उस कॉलेज का नाम शहीद खुदीराम बोस कॉलेज है। बिनोदबाला ने कलकत्ता के विक्टोरिया स्कूल में अंग्रेजी ऑनर्स में दाखिला लिया। दोनों अपने मामा डॉक्टर हेमंत कुमार के पास रहकर पढाते रहे। जतिंद्रनाथ ने बंकिम चंद्र के क्रांतिकारी उपन्यास आनंद मठ को पूरी गंभीरता से पढा और अपनी बहन को पढने के लिए प्रेरित करते किया। उन्होंने मेज्जिनी और गैरी बॉल्डी को भी पढा। अक्समात मां की बीमारी का पता लगा कि वो गरीब और बेसहारा लोगों की मदद करते हुए हैजा से संक्रमित हो गई हैं। दोनों बहन-भाई मामा के साथ तुरंत अपनी मां के पास चले आए। मां ने उन्हें जीवन में उच्च आदर्श स्थापित करने की अंतिम सीख दी और 1899 में दुनिया से विदा हो गईं।
मां शरतशशि के जीवन से इंसानियत की सीख लेकर अन्याय के खिलाफ लडने कीि प्रेरणा में जिस उत्तर आदर्श को देखा वही मां का महान आदर्श जतिंद्रनाथ का पथ प्रदर्शक बना। बिनोदबाला ने भाई जतिंद्र को मां की अंतिम गुप्प इच्छा बताया और उसने भी बिना कुछ कहे इंदुबाला से विवाह कर लिया। समय के साथ इंदुबाला ने चार बच्चों को जन्म दिया, जिनके नाम आतिंद्रनाथ, आशालता, तेजेंद्रनाथ और विरेंद्रनाथ रखे गए। अतिंद्रनाथ की अकाल मृत्यु से परिवार को गहरी चोट पडी। जतिंद्रनाथ ने आशुलिपिक की नौकरी भी की और सिस्टर निवेदिता के साथ मिलकर प्लेग से संक्रमित लोगों की सेवा करने में भी कोई कसर नहीं छोडी। उनके काम से प्रभावित होकर 1900 में निवेदिता ने स्वामी विवेकानंद से उनकी मुलाकात करवाई थी। उसके बाद वे कई बार स्वामी विवेकानंद से मिले और समानता और पीडितों के लिए न्याय और खुशहाली के लिए दिन रात अनथक योद्धा की तरह काम किया। विवेकानंद ने भी उनके साहस की सराहना की और उन्हें राष्ट्रीयता और देशभक्ति की शिक्षा दी। वे स्वयं भी प्रभावित थे।
1902 में अनुशीलन समिति की स्थापना हुई और जतिंद्रनाथ उसके सदस्य बने। 1905 में बंगाल विभाजन का अनुशीलन समिति ने पूरी ताकत से विरोध किया। 10 अप्रैल 1906 को जतिंद्र अपनी बहन बिनोदबाला के साथ अपने गांव को जा रहे थे कि रास्ते में जंगल के पास राधापाडा गांव के एक गरीब किसान को रोते हुए देखा तो उसका कारण पूछा। किसान ने बताया कि उसकी गाय को एक बाघ उठाकर जंगल में ले गया। कुछ समय पहले उसने उसकी बकरी को अपना शिकार बनाया था। बाघ की तालश में जंगल की तरफ जाते हुए भाई का हाथ पकडकर बिनोदबाला ने उसे रोकने भी कोशिश की लेकिन जतिंद्र ने जल्द आने का वादा किया और जंगल की तरफ चला गया। थोडी सी ही तलाश के बाद उन्हें वो खूंखार बाघ दिखाई दे गया। बाघ उनपर और वो बाघ पर झपटे। दोनों के बीच 20 मिनट तक जिंदगी का कडा संघर्ष चला लेकिन जतिंद्र नाथ की भुजाओं में बाघ की गर्दन इस तरह फंसती चली गई कि वो उससे निकल नहीं सका। इसके बाद उन्होंने खुखरी से बाघ की गर्दन को अलग कर दिया। इसे बाद वो क्रांतिकारी जगत में बाघा जतिन के नाम से विख्यात हुए। उस समय की प्रेस में भी इसका विवरण छपा।
भारत के समझौताहीन संघर्ष के इतिहास में अनुशीलन और जुगांतर क्रांतिकारी गतिविधियों के केंद्र रहे हैं। अनुशीलन समिति ने अकेले ही पूर्वी बंगाल में 500 से अधिक शाखाएं खोली जिसका केंद्र ढाका था। अनुशीलन और जुगांतर युवकों को लाठी-व्यायाम, तलवार चलाना, बाढ और अकाल में लोगों की सहायता, शिक्षा का प्रचार-प्रसार के अलावा बंगाल के हर क्षेत्र में क्रांतिकारियों की सांगठनिक फौज तैयार हो रही थी। उन क्रांतिकारियों ने राजनीतिक परिवेश को अपने विवेक से समझा और आपसी विचार विमर्श से तर्क के रास्ते हल खोजने के काम को आगे बढाया था। जुगांतर ने ब्रिटिश साम्राज्य को आम जनता का दुश्मन माना और उस बर्बर साम्राज्य को उखाड फेंकने के लिए जन आंदोलन चलाया। आंदोलनकारियों ने एक एक शब्द में अंग्रेजों के लिए नफरत की आग झलकती थी।
जब बाघा जतिन ने पंजाब में क्रांतिकारी संगठन खडा किया तो सरदार अजीत सिंह, भाई परमानंद, लालचंद फलक और सूफी अम्बा उनके निकट संपर्क में आए थे। वे शीघ्र ही जुगांतर के सुप्रीम नेताओं में से एक बन गए।
1907 में लेफ्टिनेंट गवर्नर की हत्या के सिलसिले में प्रफुल्ल चाकी बाघा जतिन से मिलने दार्जिलिंग पहुंचे। मानवेंद्रनाथ राय ने भी उसने मिलने का निर्णय लिया। अप्रैल 1908 में बाघा जतिन परिवार के साथ दार्जिलिंग जा रहे थे। रेल के कोच में ताप से कहराते हुए एक यात्री ने बाघा जतिन से पानी मांगा। बाघा जतिन सिलीगुडी स्टेशन पर जब नल से पानी लेने लगे तो एक फौजी अफसर ने उनकी पीठ पर चाबुक मार दिया। इसके बावजूद वो कुछ नहीं बोले और पानी अपनी पत्नी इंदुबाला को देकर वापस उसी जगह पर आ गए। उन्होंने एक झटके में अफसर के हाथ से चाबुक छीना और उनके मुंह पर इतने जोर से मारा कि वह जमीन सूंघने लगा। अपने अफसर को पीटता देख उसके तीन और साथी वहां पहुंचे और भिडंत शुरू हो गई। बिनोद बाला भी कोच से उतरकर अपने भाई के पास पहुंची तब तक बाघा जतिन चारों फौजी अफसरों को जमीन पर पसार चुके थे। बाघा जतिन को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन हालात को भांपकर फौजी अफसरों के लीगल सलाहकार ने केस ही वापस ले लिया। मजिस्टे्ट ने उन्हें रिहा करते हुए आगे से अच्छा व्यवहार करने की नसीहत दी लेकिन बाघा जतिन ने इस प्रकार का कोई वादा करने से साफ इंकार कर दिया।
कुछ समय बाद वे दार्जिलिंग से कलकता आ रहे थे तो ट्रेन में उन चार फौजी अफसरों में से एक अफसर इतेफाक से मिल गए और उन्होंने बाघा जतिन से पूछा कि आप एक साथ कितने लोगों से निपट सकते हो? बाघा जतिन ने उत्तर दिया कि इंसानियत रखने वाले एक भी व्यक्ति से नहीं निपट सकता हूं लेकिन झूठे, जाहिल, नुगरे और मक्कार किस्म के अनगिनत कितने ही हों, सबसे एक साथ निपट सकता हूं।
अगस्त 1908 में मुखबिर नरेन गोस्वामी को जेल में ही मार दिया गया। प्रफुल्ल चाकी को गिरफ्तार करवाने वाले नंदलाल बनर्जी को भी जुगांतर दल के सदस्यों ने गोली से उडा दिया। सरकारी वकील आशुतोष विश्वास को कोर्ट में ही गोलियों से भून दिया गया। पुलिस अधीक्षक शम्सुल अलाम को 24 जनवरी 1910 को कलकत्ता हाईकोर्ट के प्रांगण में ही मार दिया गया। बाघा जतिन गिरफ्तार हुए लेकिन सबूतों के अभाव में बरी हो गए।
अरबिंदो तथा बरिंद्रनाथ ने जब जुगांतर पार्टी का नेतृत्व छोड दिया तब बाघा जतिन ने पार्टी की कमान संभाली। क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी के कारण सरकारी नौकरी से बर्खास्त कर दिया था। जुगांतर दल शस्त्र और गोला बारूद की खरीद के लिए व्यापक अंतरराष्ट्रीय एकता स्थापित करके देश में सशस्त्र विद्रोह करने की योजना पर अग्रसर था। कई पुलिस अधिकारियों को मारा गया और क्रांतिकारियों ने कई पुलिस मुखबिरों की हत्या भी की। 1912 में पूरे वर्ष लूटपाट एवं हत्याएं होती रही और बंगाल विभाजन को भी रद्द कर दिया गया लेकिन क्रांतिकारी अपने संघर्ष से पीछे नहीं हटे। बाघा जतिन विवेकी एवं दूरदर्शी क्रांतिकारी थे और उन्होंने झूठे, ठग और मक्कार शासकों के चेहरे से नकाब उतारकर आम जनता में आजादी की सही समझ पैदा कर अंग्रेजों के खिलाफ राजनीतिक विद्रोह के लिए प्रेरित किया। उसका चरित्र धर्मनिरपेक्ष और लडाकू था। मुश्किल और खतरे से भरी हुई राह पर चलते हुए उसने बेमिसाल साहस, दृढता, उत्साह और दिलेरी का सबूत देकर उच्च मिसाल कायम की जो इतिहास में हमेशा यादगार रहेगी। जब महाविप्लवी योद्धा रास बिहारी बोस द्वारा आयोजित पेशावर से बंगाल तक सशस्त्र विद्रोह की 21 फरवरी 1915 की योजना कृपाल सिंह जासूस के भेद खोलने से असफल हो गई तो बाघा जतिन ने दूसरे सशस्त्र विद्रोह की योजना पर काम शुरू किया।
जर्मनी का राजकुमार जब कलकत्ता यात्रा पर आया तो बाघा जतिन ने उसके साथ बैठक की और मदद का आश्वासन प्राप्त किया। प्रथम विश्वयुद्ध आरंभ होने के बाद जर्मन सरकार के सहयोग से बर्लिन कमेटी की स्थापना हुई और जर्मन सरकार ने भारतीय क्रांतिकारियों का स्वागत किया। समझौतानुसार जर्मन सरकार का राष्ट्र विभाग भारत के क्रांतिकारियों को अस्त्र शस्त्र, आर्थिक सहायता और सैनिक विशेषज्ञता उपलब्ध करवाना था। एक शर्त ये भी कि अगर भारत में सशस्त्र विद्रोह सफल हो जाता है तो समाजवादी जनतंत्र की स्थापना की जाएगी और जर्मनी सरकार उसमें कोई बाधा नहीं डालेगी। जर्मनी समझता था कि युद्ध में ब्रिटेन गुलाम भारत की विशाल जन शक्ति और संसाधनों का युद्ध में मनमर्जी से उपयोग करेगा यदि ऐसे समय में भारत में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह होता है तो ब्रिटेन की सैन्य शक्ति की कमर टूट जाएगी। समझौते में यह सहमति भी बनी कि जब भारत आजाद होगा तो राष्ट्रीय ऋण के रूप में इन हथियारों का मूल्य चुकाया जाएगा।
इसी दौरान एक डकैती में क्रांतिकारी अमृत सरकार बुरी तरह घायल हो गया। उसे घायल अवस्था में छोडकर भागना बाघा जतिन का मंजूर नहीं था। अमृत सरकार उनकी अवस्था को भांप गए थे और कहा कि तुम मेरा सिर काटकर अपने साथ ले जाओ लेकिन ये पैसा संगठन की जरूरत है इसके मत छोडो। अमृत सरकार के मन में ऐसी महान कुर्बानी की भावना देखकर बाघा जतिन को अपने साथियों पर बेहद गर्व हुआ। जतिन ने किसी की नहीं मानी और देखते ही देखते अपने घायल साथी को कंधे पर लेकर सुरक्षित वहां से निकल गया।
गार्डन रीच और राडा कंपनी की एक हथियारों की गाडी भी उन्होंने लूटी। जिसमें उन्हें बहुत बडी रकम, साठ पिस्तौल और पचास हजार गोलियां हासिल हुई। ये क्रांतिकारियों के लिए एक बडी मदद थी और तत्काल इसे साथियों के बीच बंटवा दिया गया। उसी समय जर्मनी से भी अस्त्र शस्त्र भेजे जानी की सूचना प्राप्त हुई। बर्लिन कमेटी ने पहले कराची के रास्ते से ये सप्लाई देनी थी लेकिन वहां कोई सुसंगठित संगठन नहीं था जो हथियारों को लेकर सुरक्षित जगह पर पहुंचा सके। हथियार बंगाल में जुगांतर के पास जाने थे। आखिर में एम एन राय ने व्यवस्था दी कि बालासोर के तट पर अस्त्र शस्त्र उतारे जाएं और क्रांतिकारी जुगान्तर दल के सर्वोच्च नेता बाघा जतिन वहां उन्हें ले लें। बाघा जतिन वहां गए और काप्तीपादा में बालासोर के पास गुप्त रूप से रहने लगे।
1857 के विद्रोह के उपरांत भारत में सशस्त्र विद्रोह का ऐसा आयोजन नहीं हुआ था लेकिन विश्वासघात ने इस पूरी योजना पर पानी फेर दिया। मैवरिक और हैनरी द्वारा हथियार भेजे जाने की योजना विफल हो गया लेकिन बाघा जतिन और उनके साथी क्रांतिकारी विचलित नहीं हुए और नई योजना में जुट गए। कलकत्ता के पुलिस अधिकारी सात सितंबर 1915 को सेना की टुकडी लेकर बालासोर पहुंचे और स्थिति का जायजा लेकर 9 सितंबर 1915 को सेना ने बाघा जतिन का गुप्त स्थान काप्तीपादा ढूंढ लिया गया और 68 सैनिक घटनास्थल पर पहुंच गए। दोनों और से गोलियां चलने लगी। एक तरफ पांच क्रांतिकारी बाघा जतिन, चितप्रिय, मनोरंजन सेन गुप्ता, नरेंद्र दास गुप्ता और ज्योतिष चंद्र पाल और दूसरी तरफ 80 सैनिक। करीब 75 मिनट तक दोनों तरफ से गोलीबारी होती रही। अनेक सैनिक मारे गए। एक गोली से चितप्रिय भी शहीद हो गए और क्रांतिकारियों की गोलियां भी खत्म हो गई। बाघा जतिन भी गंभीर रूप से घायल हो चुके थे। पुलिस उनको अस्पताल में ले गई और उनके शरीर से अनेक गोलियां निकाली गई। दस सितंबर 1915 को प्रात पांच बजे उस महान योद्धा की शहादत हो गई। मनोरंजन सेन गुप्ता और नरेन्द्र दास गुप्ता को फांसी की सजा हुई। ज्योतिष को आजीवन काला पानी भेजा गया। देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए न जाने कितने ही युवकों ने अपना जीवन बलिदान कर दिया, जिनके बारे में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है और वे विस्मृति के गर्त में चले गए। उनकी बेमिसाल शहादतों से देश तो आजाद हो गया लेकिन शोषणमुक्त आजादी अधर में लटक गई। बर्बर शाेषण ने आम जनता की तबाही का प्रबंध कर दिया। आज भी बाघा जतिन के जीवन संघर्ष से सीख लेकर शोषण मुक्त आजादी का सपना पूरा किया जा सकता है।
क्रांतिकारी बाघा जतिन: 7 दिसंबर 1879 - 10 सितंबर 1915