प्रदीप डबास का लेख : भीतरी कलह से पार पाना होगा
कांग्रेसी भीतरी खींच-तान की इस अनुशासनहीन राजनीति को पार्टी के भीतर का लोकतंत्र कहते हैं। उन्हें भान ही नहीं रहता है कलेक्टिव रूप से ऐसा करने से पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचता है। कांग्रेस को अगर अपनी कमजोरियों से पार पाना है तो उसे दो कदम आगे सोचते हुए रणनीति बनानी होगी और उसके अनुरूप कदम भी उठाने होंगे। सवाल तो यह भी है कि सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के बावजूद जो कांग्रेस अपने भीतर की कलह को नहीं सुलझा पा रही है, वो कांग्रेस यूपीए को कैसे बचाकर रख पाएगी? कांग्रेस को अगर यूपीए को लीड करना है और 2024 की तैयारियों को भी देखना है तो भीतरी कलह से हर हाल में पार पानी होगी।

प्रदीप डबास
प्रदीप डबास
राजनीति में हर बयान और प्रत्येक उठाया गया कदम रणनीति के तहत ही होता है। यहां महत्वाकाक्षाएं ना हों तो नेता खत्म हो जाते हैं और अत्याधिक इच्छाएं तो हर किसी के लिए हानिकारक होती ही हैं। दोनों के बीच बेहद महीन लकीर है, जिसमें अंतर करने वाला ही लंबे वक्त तक टिका रहता है। तमाम विपरीत माहौल में जब खुद की पार्टी के लोग तृणमूल कांग्रेस को छोड़कर जा रहे थे, लंबा शासन होने की वजह से सत्ता विरोधी लहर की आशंका जताई जा रही थी, उस वक्त में बंगाल फतह करने के बाद अब ममता बनर्जी का आत्मविश्वास आसमान में है। उनकी पार्टी ने विस्तार का मन बना लिया है। गोवा चुनावों की तैयारियां हैं, मेघालय में कांग्रेस के 12 विधायक टीएमसी के हो गए। हरियाणा में संगठन तैयार करने की कोशिशें हैं। कहा जा सकता है कि ममता दीदी को लगने लगा है कि बंगाल के बाद देश के राजनीतिक दलों में कम से कम यह संदेश तो गया है कि भारतीय जनता पार्टी के विजय रथ पर ब्रेक लगाने के लिए दीदी का साथ जरूरी है।
यही आत्मविश्वास है कि दीदी ने कह दिया कि कैसा यूपीए (कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठगंधन), कोई यूपीए नहीं है। यह तो तय कि मामता ने यूपीए के अस्तित्व को खारिज कर दिया है, लेकिन वे पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से कांग्रेस पर हमलावर हैं वो सीधा संकेत करता है कि दीदी अब खुद को विपक्ष में कांग्रेस का विकल्प मानकर आगे बढ़ना चाहती हैं। उनकी आक्रामकता का अभी तो यही संदेश लगता है। जिस तरह कांशीराम कहते थे कि पहला चुनाव हारने के लिए, दूसरा हरवाने के लिए और तीसरा जीतने के लिए लड़ा जाता है। मतलब साफ है कि उन्हें मालूम है कि 2024 की लड़ाई में भले ही जो होना हो,लेकिन उसके बाद टीएमसी ही तमाम अन्य दलों की अगुवाई करेगी। सवाल यहीं से शुरू होते हैं। किसी भी राजनीतिक दल के विस्तार को लेकर कोई सवाल उठाए नहीं जा सकते, हर दल को यह अधिकार है, लेकिन राजनीति के गलियारों में सवाल यह तैर रहा है कि क्या दीदी जल्दबाजी में हैं? क्या बंगाल के बाहर दीदी अपनी स्वीकार्यता को साबित कर पाएंगी? निकट भविष्य में तो कम से कम इसे लेकर संशय की स्थिति बनी हुई है। विपक्ष की बात करें तो क्षेत्रीय दल अपने-अपने प्रदेशों में तो बेहतर कर पाने की स्थिति में आते जा रहे हैं, लेकिन इनमें कोई भी दल या किसी भी दल का नेता अभी भी उस स्थिति से बाहर है जिसमें भाजपा या नरेंद्र मोदी के करिश्मे को सीधी चुनौती दी जा सके। हां जिन शरद पवार से मुलाकात के दौरान दीदी ने कहा था कि कहां है यूपीए उन्हीं शरद पवार को यूपीए का नेतृत्व दिए जाने की आवाजें कुछ वक्त पहले से लगातार सुनाई दी जाती रही हैं। ममता खुद 2009 से 2012 तक यूपीए का हिस्सा रही हैं। फिर इसके अस्तित्व को खारिज करने जैसा आक्रामक रुख अपनाना अपने आप में बड़ा सकेत दे रहा है। दरअसल ममता दीदी यूपीए अस्तित्व पर सवाल खड़ा करके इसमें शामिल अन्य दलों को निशाना नहीं बना रही हैं, बल्कि उनके निशाने पर यहां भी कांग्रेस ही है और इसके लिए खुद कांग्रेस और उसे चलाने वाले नेता ही जिम्मेदार हैं। पार्टी इस वक्त जितने बुरे दौर से गुजर रही है लग ही नहीं रहा कि कांग्रेस कभी फिर से वापसी भी कर पाएगी। भीतरी गुटबाजी की शिकार कांग्रेस के आला नेता भी शायद अब इन धड़ेबंदियों से तंग आकर इस ओर ध्यान देना बंद कर चुके हैं। 2014 में मोदी की आंधी में सभी पार्टियां साफ हो गई थीं,लेकिन उसके बाद तो 2019 भी देश ने कांग्रेस का हाल देखा। ऐसा लग रहा था कि पार्टी चुनाव में है ही नहीं। विधानसभा चुनाव भी पार्टी लगातार हारती रही और जहां भाजपा से ज्यादा विधायक जीते तो भी वहां सरकार बनाने में नाकाम होने के चलते निश्चित ही कांग्रेस की राजनीतिक विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करता ही है।
वैसे कांग्रेस अभी सबसे बड़ा विपक्षी दल है, लेकिन इसके भीतर के लोग इसे बना रहने देंगे या नहीं अब पार्टी की लड़ाई इस बात को लेकर है। कहते हैं कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है। सत्ता में होने के बावजूद बीजेपी यहां पिछले करीब छह महीने से चुनावी मूड में है या यूं कहें कि चुनाव लड़ रही है, लेकिन कांग्रेस की ओर से सिर्फ एक चेहरा प्रियंका गांधी ही सक्रिय है। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति से आगे नहीं बढ़ पाई है। कांग्रेस नेताओं को विचार करने की जरूरत है कि राज्यों में पार्टी का संगठन नहीं होने या और देरी से बनाए जाने का नुकसान किसी और को नहीं होने वाला। यहां संगठन तैयार नहीं होने की बड़ी वजह हर राज्य में कांग्रेस के भीतर कई-कई धड़े होना भी माना जा सकता है। जिन राज्यों में पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष संगठन तैयार भी कर लेना चाहता है तो उसके विरोधी अपने समर्थकों को जगह नहीं दिए जाने की वजह से उसे बनने नहीं देते। अनोखी बात यह है कि कांग्रेसी भीतरी खींच-तान की इस अनुशासनहीन राजनीति को पार्टी के भीतर का लोकतंत्र कहते हैं। इन कांग्रेसियों को भान ही नहीं रहता है कलेक्टिव रूप से ऐसा करने से पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचता है। कांग्रेस को अगर अपनी कमजोरियों से पार पाना है तो उसे दो कदम आगे सोचते हुए रणनीति बनानी होगी और उसके अनुरूप कदम भी उठाने होंगे। सवाल तो यह भी है कि सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के बावजूद जो कांग्रेस अपने भीतर की कलह को नहीं सुलझा पा रही है और 2014 के चुनाव से पहले भ्रष्टाचार के जो दाग पार्टी पर लगे थे उन्हें अभी तक नहीं धो पाई है तो वो कांग्रेस यूपीए को कैसे बचाकर रख पाएगी? 2004 से 2014 के बीच भी मनमोहन सिंह सरकार में साझीदार रहे कई दल यूपीए छोड़ चुके हैं। 2006 में तेलंगाना राष्ट्र समिति यूपीए से अलग हुई, 2007 में वाईको और 2008 में भारत अमेरिका परमाणु समझौते का विरोध करते हुए वाम दलों ने भी यूपीए का साथ छोड़ दिया था। इन सभी के छोड़ने से पहले कांग्रेस और वाम दलों के अलावा यूपीए में 14 दल शामिल थे।
कांग्रेस के पास समय की बेहद कमी है, उसे अगर यूपीए को लीड करना है और 2024 की तैयारियों को भी देखना है तो भीतरी कलह से हर हाल में पार पानी होगी। कांग्रेस अगर नेतृत्व संकट में ही फंसी रहेगी, संगठन बनाने व मजबूत में देरी करती रहेगी, एक ठोस एजेंडे के साथ राजनीति नहीं करेगी और क्षेत्रीय दलों के लिए एक राष्ट्रीय छतरी की भूमिका में नहीं आएगी, अपने को विश्वसनीय नहीं बनाएगी और भाजपा के मुकाबले फाइटिंग स्िपरिट में नहीं आएगी तो भाजपा का सामना ही नहीं कर पाएगी। राहुल गांधी के नेतृत्व के खाते में विधानसभा व लोकसभा सहित 26 चुनावी हार हैं। देश की फिलहाल की राजनीति कहती है कि क्षेत्रीय दल अपने अपने राज्यों में तो बीजेपी को सीधी टक्कर दे सकते हैं, लेकिन यह टक्कर सिर्फ विधानसभा चुनावों तक ही सीमित है। लोकसभा चुनावों में बीजेपी फिलहाल इन छोटे दलों के काबू में आने वाली नहीं दिख रही। ममता जो कह रही हैं, उसमें बेशक बड़बोलापन हो, लेकिन कांग्रेस अपनी ताकत व यूपीए की प्रासंगिकता राजनीतिक रूप से साबित करनी ही होगी।
(लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)