रवि शंकर का लेख : स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर बनानी हाेंगी
किसी भी देश की तरक्की तभी संभव है जब उसके नागरिक सेहतमंद हों। भारत जैसे देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च बढ़ाया जाना एक जरूरत बन चुकी है, जहां प्रति व्यक्ति कुल स्वास्थ्य खर्च बेहद कम है। स्वास्थ्य सेवा पर भारत का सार्वजनिक व्यय वित्त वर्ष 2023 में सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.1 प्रतिशत है, जबकि जापान, कनाडा और फ्रांस अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 10 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करते हैं। आर्थिक समीक्षा 2022-23 में कहा गया है कि सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा को सुलभ और सस्ती बनाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय बढ़ाकर 2025 तक जीडीपी के 2.5 फीसदी के बराबर करने की जरूरत है।

रवि शंकर
किसी भी देश की तरक्की तभी संभव है जब उसके नागरिक सेहतमंद हों, लेकिन भारत में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति बहुत सम्मानजनक नहीं है। यहां की सरकार को अपनी 143 करोड़ आबादी की सेहत का ख्याल रखने की बड़ी जिम्मेदारी है। सरकार इसके लिए हर साल स्वास्थ्य सेवाओं पर करोड़ों रुपये का बजट पेश करती हैं, मगर आज भी देश की स्वास्थ्य सेवाएं सवालों के घेरे में हैं। देश में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। महामारी ने नया नजरिया दिया है। इस लिहाज से स्वास्थ्य सेक्टर पर अधिक खर्च और अधिक बजट की उम्मीद भारत ही नहीं पूरी दुनिया में बढ़ रही है, मगर भारत जैसे देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में खर्च बढ़ाया जाना एक जरूरत बन चुकी है, जहां प्रति व्यक्ति कुल स्वास्थ्य खर्च बेहद कम है। स्वास्थ्य सेवा पर भारत का सार्वजनिक व्यय वित्त वर्ष 2023 में सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.1 प्रतिशत है, जबकि जापान, कनाडा और फ्रांस अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 10 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करते हैं। आर्थिक समीक्षा 2022-23 में कहा गया है कि सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा को सुलभ और सस्ती बनाने के लिए केंद्र व राज्यों का सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय धीरे- धीरे बढ़ाकर 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 फीसदी के बराबर करने की जरूरत है। मामूल हो, वित्त वर्ष 2023 के बजट अनुमान में स्वास्थ्य के लिए कुल वित्तीय आवंटन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 2.1 प्रतिशत रखा गया है। वित्त वर्ष 2022 के संशोधित अनुमान में 2.2 प्रतिशत था।
स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच और इनकी गुणवत्ता (एचएक्यू) मामले में भारत 145वें स्थान पर है। लैंसेट के अध्ययन के अनुसार,भारत 195 देशों की सूची में अपने पड़ोसी देश चीन,बांग्लादेश,श्रीलंका और भूटान से भी पीछे है। ‘ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज’ अध्ययन में हालांकि कहा गया है कि स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच और गुणवत्ता मामले में वर्ष 1990 के बाद से भारत की स्थिति में सुधार देखे गए हैं। भारत सूची में चीन (48), श्रीलंका (71), बांग्लादेश (133) और भूटान (134) से भी नीचे है, जबकि स्वास्थ्य सूची (हेल्थ इंडेक्स) में भारत का स्थान नेपाल (149), पाकिस्तान (154) और अफगानिस्तान (191) से बेहतर है। बहरहाल, सरकार के सामने देश की विशाल व विविधता भरी जनसंख्या को सस्ता और बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना एक बड़ी चुनौती रहती है, क्योंकि स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति का खर्चा दिन- प्रतिदिन बढ़ रहा है और बुनियादी ढांचों की कमी बहुत ज्यादा है। 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुल 18,99,228 अस्पताल के बिस्तर होने का अनुमान है और अगर देखा जाए तो प्रति 1,000 जनसंख्या पर लगभग 1.4 बिस्तर उपलब्ध हैं। दूसरे देशों की बात की जाए तो चीन में बेड का अनुपात 1000 पर चार से अधिक है। श्रीलंका, यूनाइटेड किंगडम और यूनाइटेड राज्यों में प्रति 1,000 पर लगभग तीन हैं और थाईलैंड और ब्राजील में अस्पताल के बिस्तर प्रति 1,000 पर दो से अधिक हैं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक ये आकंड़ा 1000 की जनसंख्या पर कम से कम 5 होना चाहिए।
एक रिपोर्ट के मुताबिक अस्पतालों के भारी भरकम बिल भरने की वजह से भारत में हर साल करीब छह करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। ऐसे लोग इलाज के लिए भारी कर्ज लेते हैं। इसका प्रमुख कारण भारत के लोगों की सस्ती, उच्च गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच नहीं होना है और इसका एकमात्र समाधान पर्याप्त संख्या में लोगों को स्वास्थ्य बीमा कवर मुहैया कराना है। देश के स्वास्थ्य बीमा के क्षेत्र में लगातार उदारीकरण के बावजूद, देश की कुल आबादी के पांचवें हिस्से से भी कम जनसंख्या स्वास्थ्य बीमा के दायरे में है। इसके कई कारण है। खैर,ऐसे में विश्व बैंक की उस रिपोर्ट पर विचार करने की जरूरत है, जिसमें कहा गया है कि 90 फीसदी बीमारियों की पहचान की जा सकती है और इसे ठीक भी किया जा सकता है। अफसोस है कि किसी ने इस सुझाव पर गंभीरता से विचार नहीं किया। अफसोस ये है कि कोई भी सरकार आए,तात्कालिक समस्याओं का समाधान खोजने में समय गंवा देती है। किसी भी देश का विकास योग्य और स्वस्थ मानव संसाधन पर निर्भर करता है। शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिससे मानव संसाधन को बेहतर बनाया जा सकता है। अमर्त्य सेन का कहना है कि उदारीकरण के लिए चाहे जितने भी सेक्टर खोल दें, शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिसे हर हाल में सरकारी क्षेत्र में ही होने चाहिए। कनाडा, डेनमार्क, स्वीडन, नॉर्वे, जर्मनी, यूके, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में दुनिया की सबसे अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की जा रहीं हैं, पर भारत जैसी बड़ी आबादी वाले देश में बिना अधिक पैसे खर्च किए आपको अच्छी स्वाथ्य सेवाएं नहीं मिल पाती हैं। भारत की मौजूदा स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली अनेक प्रकार की विसंगतियों एवं विषमताओं से परिपूर्ण है। यह विडंबना तब है जब भारत में इन समस्याओं से निपटने के लिए सभी जरूरी कार्यक्रम और नीतियां मौजूद हैं, लेकिन इन्हें सही तरह से लागू नहीं किया जा रहा है। हांलाकि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की घोषणा और क्रियान्वयन से यह आस जगी थी कि अस्वस्थ भारत की तस्वीर बदल जाएगी परंतु ऐसा नहीं हुआ।
भारत की करीब तीन ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था है, पर जानकर यह आश्चर्य होता है कि भारत अपनी कुल जीडीपी का केवल 2 फीसदी हिस्सा ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है, जो 143 करोड़ की आबादी वाले देश के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च का वैश्विक स्तर 6 फीसदी माना गया है, लेकिन नई स्वास्थ्य नीति 2017 के अनुसार भारत 2025 तक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च जीडीपी का 2.5 फीसदी करने का लक्ष्य रखा है। 6 फीसदी का आंकड़ा कब भारत हासिल करेगा कोई प्रस्तावित वर्ष नहीं बताया गया है। साफ है, स्वास्थ्य शायद भारत के राजनीतिक एजेंडा के में प्राथमिकता कभी नहीं रहा। यदि हम चीन और भारत के आर्थिक विकास की तुलना करें, तो चीन के आर्थिक विकास का कारण उसका स्वास्थ्य एवं शिक्षा में निवेश करना रहा है। भारत को भी नागरिकों को विश्व की स्पर्धा में आगे लाने के लिए उन्हें स्वास्थ्य-उपहार देना होगा।
2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने जब कार्यकाल संभाला तब उनको स्वास्थ्य क्षेत्र में भारत के निरंतर खराब प्रदर्शन से दो-चार होना पड़ा। उनको यह पहले ही पता था कि भारत की तरक्की तभी सुनिश्चित की जा सकती है जब स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर किया जाए। बहरहाल, दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकत बनने जा रहे भारत में हेल्थ सेक्टर की बुनियाद ही कमजोर है। ऐसे में सरकार को एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें स्वास्थ्य सेवाओं तक सबकी आसान पहुंच हो और कम खर्च में इलाज हो सके।
(ये लेखक- रवि शंकर के अपने विचार हैं।)