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आलोक यात्री का लेख : भुखमरी को खत्म करे सरकार

देश की सर्वोच्च अदालत फिक्रमंद है कि देश में एक भी व्यक्ति भूख से मरना नहीं चाहिए, जबकि इस बात की फिक्र लोक कल्याणकारी सिद्धांतों पर टिकी सरकार की होनी चाहिए। हैरानी की बात है कि जिस समस्या से लड़ना और उसे खत्म करना सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए, नाकामी के चलते उस सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से सवालों के कटघरे में खड़ा कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र एफएओ की रिपोर्ट के अनुसार भूख से बेहाल देशों में भारत बीते साल के मुकाबले और नीचे सरक पर 116 देशों की सूची में 101वें स्थान पर आ गया है। दुनिया में हर दिन भूखे पेट सोने वाले 70 करोड़ लोगों में भारत के 20 करोड़ लोग भी शामिल हैं।

आलोक यात्री का लेख : भुखमरी को खत्म करे सरकार
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आलोक यात्री

आलोक यात्री

भोजन और भूख के बीच का गणित लंबे समय से लड़खड़ा रहा है। भूख और खाद्यान्न का गणित लड़खड़ा कर गिर पड़ता इससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने इस असंतुलन पर नाराजगी प्रकट करते हुए भुखमरी से होने वाली मौतों की रोकथाम का निर्देश दिया है। देश की सर्वोच्च अदालत फिक्रमंद है कि देश में एक भी व्यक्ति भूख से मरना नहीं चाहिए, जबकि इस बात की फिक्र लोक कल्याणकारी सिद्धांतों पर टिकी सरकार की होनी चाहिए। हैरानी की बात है कि जिस समस्या से लड़ना और उसे खत्म करना सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए, नाकामी के चलते उस सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से सवालों के कटघरे में खड़ा कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र के फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) की रिपोर्ट भी भारत को भुखमरी से बदहाल देशों की सूची में शीर्ष पर खड़ा बता रही है। रिपोर्ट के अनुसार भूख से बेहाल देशों में भारत बीते साल के मुकाबले और नीचे सरक पर 116 देशों की सूची में 101वें स्थान पर आ गया है। रिपोर्ट यह भी बताती है कि दुनिया में हर दिन भूखे पेट सोने वाले 70 करोड़ लोगों में भारत के 20 करोड़ लोग भी शामिल हैं। यह आंकड़े इसलिए भी शर्मनाक हैं क्योंकि भुखमरी के मामले में भारत पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश से भी नीचे है। यह आंकड़ा इसलिए भी परेशान करता है कि भारत सरकार 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने का दावा करती है। दावे और हकीकत एक दूसरे को झुठला रहे हैं।

भूख पर सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेश ने अनुच्छेद-47 के साथ केंद्र और राज्य सरकारों को एक बार फिर चेताया है। नागरिकों की सेहत वह नब्ज है जो किसी देश के भविष्य की पड़ताल करती है। भूखी कोख सिर्फ भुखमरी को ही जन्म देगी। जिसके चलते भावी पीढ़ी विरासत में शारीरिक और मानसिक विकृतियां लेकर ही पैदा होंगी। कुपोषण और भुखमरी समाज में धीमे जहर की तरह काम करते हैं। हमारे देश में अधिकांश महिलाएं और बच्चे रक्त की कमी के शिकार हैं, जिसकी एक बड़ी वजह कुपोषण ही है। महिलाओं में खून की कमी ने बाल मृत्यु दर के आंकड़े भी बढ़ा दिए हैं। कुपोषण की वजह से बच्चों में भी मैरेस्मस, हाइपोग्लाइसिमिया, क्वाशीअकारा जैसी बीमारियां आम होती जा रही हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता अनुन धवन की याचिका में भुखमरी और कुपोषण से देश में लोगों की अकाल मौत का मामला उठाया गया था। याचिकाकर्ता ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और बिहार में हुई इस तरह की मौतों की जानकारी देते हुए सामुदायिक रसोई की स्थापना को जनहित में आवश्यक बताया था। कोर्ट ने याचिका में उठाए गए मुद्दों को गंभीर मानते हुए 27 अक्टूबर तक केंद्र को इस मसले पर सभी राज्यों से बात कर योजना तैयार करने के लिए कहा है। इस मसले पर शीर्ष कोर्ट का कथन भी गौर करने लायक है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, 'हमें संदेह है आपका योजना लागू करने का कोई इरादा है। भूख से मर रहे लोगों को भोजन मुहैया कराना सरकार की जिम्मेदारी है। यह आखिरी मौका है, राज्यों के साथ केंद्र आपात बैठक कर योजना तैयार करे।' सुनवाई के दौरान केंद्र पर नाराज़गी जताते हुए देश के मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमना ने कहा, 'हमें अंतरराष्ट्रीय कुपोषण सूचकांक जैसे मुद्दों से सरोकार नहीं है। इसका उद्देश्य तत्काल भूख के मुद्दों पर अंकुश लगाना, भूख से मरने वाले लोगों की रक्षा करना है। अगर आप भुखमरी से निपटना चाहते हैं तो कोई भी संविधान या कानून ना नहीं कहेगा। यह पहला सिद्धांत है। हर कल्याणकारी सरकार की पहली जिम्मेदारी है कि वह भूख से मर रहे लोगों को भोजन मुहैया कराए। आपका हलफनामा कहीं भी यह नहीं दर्शाता है कि आप ऐसी कोई योजना बनाने पर विचार कर रहे हैं। अभी तक आप सिर्फ राज्य सरकारों से जानकारी हासिल कर रहे हैं। आपको योजना के क्रियान्वयन पर सुझाव देने थे, न कि केवल पुलिस जैसी जानकारी एकत्र करनी थी।' सरकार की ओर से अटार्नी जनरल ने सर्वोच्च अदालत को यह आश्वासन दिया है कि राष्ट्रीय खाद सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत इस दिशा में काम किया जा सकता है। अदालत ने भी इस मत से सहमति जताई है कि योजना के लिए एक निर्धारित वैधानिक ढांचा होना चाहिए, ताकि नीति के बदलाव में इसे बंद न किया जा सके।

बहरहाल हमें देश में उपज और भुखमरी के गणित को भी समझना होगा। बीते कई वर्षों की तरह इस वर्ष भी देश का कुल खाद्यान्न उत्पादन 303 मिलियन टन रहा। यह निर्धारित लक्ष्य से अधिक है। खाद्यान्न निर्यात भी बीते वर्ष की तुलना में रुपये के लिहाज से 22.62 फ़ीसदी अधिक रहा। खाद्यान्न उत्पादन की तुलना भुखमरी के वैश्विक रिकार्डों से करने पर यह सवाल उठना लाजमी है कि अन्न के भंडार पर बैठा देश, भूख से बिलबिला क्यों रहा है? यूं तो सरकार ने 'शून्य भुखमरी' का लक्ष्य 2030 रखा है, लेकिन इस भयावह तस्वीर के चलते यह लक्ष्य हासिल करना थोड़ा मुश्किल प्रतीत होता है। अब जब देश की सर्वोच्च अदालत सख्त लहजे में यह कह चुकी है कि भूख से एक भी मौत न हो, यह सुनिश्चित करना एक लोक कल्याणकारी सरकार का दायित्व है। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी सरकार को असहज तो आम नागरिक को विचलित करने वाली है। सवाल यह भी है कि नागरिकों को भोजन का अधिकार देने वाले कानून के लंबे समय से लागू होने के बावजूद, आज भी देश में भूख से होने वाली मौतें चिंता का सबब क्यों नहीं बनी हुई हैं? यह समझना भी जरूरी है कि भूख से मौतों की वजह देश में अनाज संसाधनों की कमी के कारण है या फिर यह सरकारों की इच्छाशक्ति और दूरदर्शिता में कमी का परिणाम है? सरकार को यह भी सोचना होगा कि किन वजह से कुपोषण के मामलों में बदतर हालात में होने के साथ-साथ हम वैश्विक भुखमरी सूचकांक में 116 देशों की सूची में 101वें स्थान पर क्यों हैं?

यहां यह भी गौरतलब है कि अदालत ने केंद्र सरकार को अंतिम अवसर के रूप में तमाम राज्य सरकारों से विमर्श कर सामुदायिक रसोई पर अखिल भारतीय नीति तैयार करने के लिए तीन सप्ताह का समय दिया है। जाहिर है कि सामुदायिक रसोई जैसी व्यवस्था उन लोगों के लिए बड़ी राहत साबित होगी जो किसी वजह से अपना व परिवार का पेट भरने में नाकाम हैं। अदालत के निर्देश के बाद केंद्र और राज्य सरकारों को अपने गिरेबान में झांक कर यह देखना चाहिए कि अनेक अवसरों पर आनन-फानन में कुछ चिह्नित तबके के लिए अक्सर सीमित अवधि के मुफ्त अनाज वितरण कार्यक्रम घोषित कर, समस्या का अस्थाई हल निकालने की कोशिश की जाती है, जबकि भूख से लड़ने के लिए स्थाई रोजगार की दिशा में काम किया जाना सबसे अहम मुद्दा होना चाहिए। सरकार अगर सभी कथित कल्याणकारी योजनाओं को सम्मलित कर एकमेव रोजगार सृजन योजनाएं चलाएं तो एक दशक के अंदर देश से बेरोजगारी भी खत्म हो जाएगी और भुखमरी जैसी समस्या भी उत्पन्न नहीं होगी।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं। )

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