रवि शंकर का लेख : बाढ़ ने फिर मचाई तबाही
यह ठीक है कि पिछले सालों में बाढ़ के असर को कम करने के लिए अनेक काम हुए हैं। फिर भी स्वतंत्रता के सात दशकों के उपरांत भी हम इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं निकाल सके, जिससे बाढ़ से होने वाले नुकसान को अधिक से अधिक नियंत्रित किया जा सके। बाढ़ की रोकथाम सरकार का पूर्ण दायित्व है। इसे रोकने के लिए निरतंर प्रयास हो रहे हैं। इस दिशा में हमें आंशिक रूप से सफलता भी प्राप्त हुई है फिर भी अभी और प्रयास आवश्यक हैं।

रवि शंकर
देश के सात राज्यों में बाढ़ का कहर बना हुआ है। बिहार, असम, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड बाढ़ की चपेट में है, जिससे लाखों लोग बुरी तरह प्रभावित हुए हैं। सैकड़ों से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। असम के 33 में से 30 जिले बाढ़ के पानी में डूबे हुए हैं और करीब 50 लाख से ज्यादा लोग बाढ़ से प्रभावित है। ब्रह्मपुत्र नदी अब भी गरज रही है। वहीं बिहार के विभिन्न जिलों में भी बाढ़ का खतरा मंडरा रहा है। राहत और बचाव के लिए गंभीर प्रयास जारी हैं। इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार, असम, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्रियों से बात कर बाढ़ के चलते पैदा हुए हालात की जानकारी ली। प्रकृति ने जो इस बार कहर बरपाया है सब कुछ वैसा ही, जैसा दशकों से हो रहा है। हर साल वही कहानी दोहराई जाती है। बाढ़ आती है, हल्ला मचता है, दौरे होते हैं और राहत पैकेज की घोषणाएं होती हैं, लेकिन इस समस्या से निपटने के लिए पहले से कोई तैयारी नहीं की जाती। पहले भी बाढ़ आती थी, लेकिन वह इतना कहर नहीं ढाती थी। इसके लिए गांव वाले तैयार रहते थे। बल्कि इसका उन्हें इंतजार रहता था, लेकिन अब बढ़ता शहरीकरण और विकास कार्य ने इसे गंभीर बना दिया है। अब सवाल ये है कि क्या सरकारें इतने सालों में इन मौतों पर फुल स्टॉप लगाने का कोई रास्ता ढूंढ सकीं? चांद पर झंडा बुलंद करने वाले इस देश की सरकारें जमीन पर आने वाली इस प्रलय के लिए आखिर कोई मिशन क्यों नहीं बना सकीं? हर साल लोग क्यों नाकामी की बलि चढ़ते जा रहे हैं?
नदियों में प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ एक प्राकृतिक आपदा है जो विश्व के अनेक भागों में करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति को निगल जाती है। गांव के गांव पलक झपकते ही जल-समाधि ले लेते हैं। हरे-भरे खेत, लहलहाती फसलें, बाग, घर-मकान, देखते-देखते नदियों की तेज धारा के साथ बह जाते हैं। अनगिनत पेड़-पौधे एवं दुर्लभ वनस्पतियाँ पानी के तीव्र बहाव के साथ विलीन हो जाते हैं। हजारों व्यक्ति एवं लाखों पशु बाढ़ की भेंट चढ़ जाते हैं। खैर, भारत में बाढ़ आना कोई नई बात नहीं है। देश के हर भाग में हर साल छोटी-मोटी बाढ़ तो आती ही रहती है जिससे देश को करोड़ों रुपयों का अधिभार उठाना पड़ता है। बादल फटने से लेकर नदियों के मार्ग बदलने से नए-नए इलाकों में बाढ़ आती है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग के अनुसार देश का लगभग 400 लाख हेक्टेयर इलाका बाढ़ प्रभावित क्षेत्र के अर्न्तगत आता है। 76 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बाढ़ आती है। उसकी मात्रा में हर साल इज़ाफा हो रहा है। औसतन 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र की फसल नष्ट होती है। आशंका है कि आने वाले सालों में जलवायु परिवर्तन का असर उसकी विभीषिका तथा जानमाल की हानि के ग्राफ को बढ़ाएगा। भारत सरकार के आंकड़ों पर आधारित विश्व बैंक के एक अध्ययन में अंदेशा जताया गया है कि 2040 तक देश के ढाई करोड़ लोग भीषण बाढ़ की चपेट में होंगे। बाढ़ प्रभावित आबादी में ये छह गुना उछाल होगा।
बाढ़ और सूखा ये ऐसी प्राकृतिक आपदा है जो हर साल देश को भारी आर्थिक क्षति पहुंचाती है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, अकेले भारत को पिछले दो दशकों में बाढ़ के कारण 79.5 बिलियन डॉलर यानी 547 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ। वहीं केंद्र सरकार की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार 1953 से 2017 के बीच बाढ़ की वजह से गुजरे 64 सालों में 1,07,487 लोगों की जान चली गई। यानी हर साल औसतन 1,654 लोगों के अलावा 92,763 पशुओं की मौत होती रही है। विभिन्न राज्यों में आने वाली बाढ़ से सालाना औसतन 1.680 करोड़ की फसलें नष्ट हो जाती हैं और 12.40 लाख मकान क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। सरकार के अनुसार 1976 से लेकर 2017 तक हर साल इस प्राकृतिक विपदा से मरने वालों की संख्या एक हजार से ज्यादा ही रही है। 1953 में सबसे कम 37 थी जबकि वर्ष 1977 में यह सबसे ज्यादा 11,316 थी। इंसानी जान के अलावा जल संबंधी आपदा से अगर फसलों, घरों और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान पर आकलन किया जाए तो बीते 64 सालों में3,65,860 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। आर्थिक नुकसान के आधार पर नजर डालें तो हर साल औसतन 5628.62 करोड़ भारी बारिश और बाढ़ की भेंट चढ़ जाती है। वही इंटरनल डिस्प्लेमेंट मॉनिटरिंग सेंटर की रिपोर्ट के अनुसार देश में हर साल औसतन बीस लाख लोग बाढ़ की वजह से बेघर हो जाते हैं, इसके बाद चक्रवाती तूफानों के कारण औसतन 2.50 लाख लोगों को हटाया जाता है। जाहिर है, भारत एक तरह से प्राकृतिक आपदाओं से घिरा देश है। इस साल भी विभिन्न राज्यों में बाढ़ का कहर जारी है।
गौर करने वाली बात यह है कि हर बार हम इस तरह के त्रासदी से तो निकल जाते है लेकिन बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, असम,मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में बाढ़ से तबाही की कहानी नहीं बदलती। आखिर, बाढ़ का पानी अपनी ताकत भर नुकसान करके उतर जाता है। कुछ लोग अपने घर-बार और रोजी-रोजगार से हमेशा के लिए उजड़ कर कहीं और पलायन कर जाते हैं, जबकि ज्यादातर लोग बिखरी हुई हिम्मत समेट कर फिर से जिंदगी की शुरुआत करने की कोशिश करते हैं। शासन के गलियारे से लेकर गांव के चौपाल तक यही मान लिया जाता है कि बाढ़ कुदरत का प्रकोप है और इससे बच पाना बहुत मुश्किल। यह भी मान लिया जाता है कि राज और समाज ऐसी विपत्ति में बस राहत और बचाव के ही काम कर सकते हैं, बाढ़ पर नियंत्रण नहीं। राहत-बचाव का मसला ही बाढ़ पर होने वाली सार्वजनिक चर्चा की धुरी बन जाता है। लोग अपने सूबे की सरकार को कोसते हैं और सूबे की सरकार केंद्र सरकार को उलाहना देती है। लेकिन, इस मूल बात पर चर्चा नहीं हो पाती है कि बाढ़ प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानव-निर्मित आपदा है। यह ठीक है कि पिछले साठ-सत्तर सालों में बाढ़ के असर को कम करने के लिए अनेक काम हुए हैं। फिर भी स्वतंत्रता के सात दशकों के उपरांत भी हम इस समस्या का कोई स्थायी हल नहीं निकाल सके जिससे बाढ़ के द्वारा होने वाले नुकसान को अधिक से अधिक नियंत्रित किया जा सके। बाढ़ की रोकथाम सरकार का पूर्ण दायित्व है। इसे रोकने हेतु निरतंर प्रयास हो रहे हैं। इस दिशा में हमें आंशिक रूप से सफलता भी प्राप्त हुई है फिर भी अभी और भी प्रयास आवश्यक हैं। हमें विश्वास है कि आने वाले वर्षों में हम इन आपदाओं से होने वाले नुकसान को पूर्णत नियंत्रित कर सकेंगे। इसके लिए दीर्घकालीन रणनीति पर अमल करना होगा तथा जिन क्षेत्रों में प्रतिवर्ष बाढ़ आता है वहां जलसंचय के वैकल्पिक उपाय करने होंगे।