कांग्रेस की अंदरूनी कलह अब सतह पर
लोकसभा चुनावों में उसे मात्र 44 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। हालत यह है कि उसे लोकसभा में विपक्षी पार्टी का दर्जा तक नहीं मिल पाया

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नई दिल्ली. एक के बाद एक मिल रही पराजय ने कांग्रेस पार्टी को इस कदर संकटग्रस्त कर दिया हैकि वह अपनी दिशा भी तय नहीं कर पा रही है। शनिवार को पार्टी के महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा राहुल गांधी के अध्यक्ष बनाए जाने की वकालत करने के बाद कई कांग्रेसी उनके बयान के विरोध में सामने आ गये। इससे पहले पार्टी के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम इस बात की वकालत कर चुके हैं कि कांग्रेस का अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर भी कोई हो सकता है। इन बयानों से एक बात कही जा सकती है कि पार्टी के अंदरूनी मतभेद अब खुलकर सामने आने लगे हैं।
एक तरफ भाजपा के पास नरेंद्र मोदी के रूप में सशक्त नेतृत्व है, तो दूसरी तरफ कांग्रेस नेतृत्वविहीन दिख रही है। जिससे उसके नेताओं में भ्रम फैल गया है। एक धड़ा सोनिया व राहुल गांधी की चापलूसी में अपना हित देख रहा है। दूसरा किसी और को कमान देना चाहता है। क्योंकि दोनों का आभामंडल अब लोगों को आकर्षित नहीं कर रहा। वहीं कुछ उत्साहित कार्यकर्ता समय-समय पर प्रियंका गांधी को लाने की बात भी उठाते रहते हैं। दरअसल, कांग्रेस इन दिनों संकट के दौर से गुजर रही है। आजादी के बाद पहली बार उसके वजूद पर बन आई है।
लोकसभा चुनावों में उसे मात्र 44 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। हालत यह है कि उसे लोकसभा में विपक्षी पार्टी का दर्जा तक नहीं मिल पाया है। आपातकाल के दौरान भी उसकी ऐसी दुर्दशा नहीं हुई थी। कांग्रेस जिस तेजी से सिमटती जा रही है उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि वह अपने खोए हुए जनाधार को दोबारा हासिल कर पायेगी। जिन राज्यों में वह मजबूत स्थिति में थी वहां भी वह हाशिए पर पहुंच गई है। कहने को तो कांग्रेस अभी भी नौ राज्यों में सत्ता में है परंतु असम, कर्नाटक और केरल को छोड़ दें तो बाकी राज्य बहुत छोटे हैं और राजनीतिक दृष्टि से महत्वहीन हैं।
इन दिनों राहुल को कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बनाए जाने की भी बात हो रही है। फिलहाल वे उपाध्यक्ष हैं और देखा जाए तो एक तरह से पार्टी की कमान उन्हीं के हाथों में है। सारे फैसले उनकी अनुमति से ही लिए जाते हैं। यदि उनकी ताजपोशी होती भी हैतो यह कहना कठिन है कि पार्टी में कोई फर्क देखने को मिलेगा। मार्च 2012 से उन्होंने चुनावों में पार्टी की कमान संभाली। तब से अब तक ढाई साल में देश में लोकसभा और 16 राज्यों में चुनाव हुए। 11 राज्यों में कांग्रेस हार गई। यह सही है कि राजनीति में जीत-हार लगी रहती है, परंतु कांग्रेस की यह हार सामान्य नहीं है।
इसके जिम्मेदार एक तरह से राहुल गांधी ही हैं। उनके असफल प्रयोगों ने कार्यकर्ताओं को ओर भ्रम में डाल दिया है। उनके हावभाव से लगता है कि वे राजनीति के प्रति गंभीर नहीं हैं और उन पर जबरन नेतृत्व थोपा गया है। गंभीर मुद्दों पर उनकी चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। वे जिम्मेदारी से भागते दिखते हैं। दस साल कांग्रेस सत्ता में रही। उनके पास देश को अपनी प्रशासनिक क्षमता से परिचय कराने का मौका था, परंतु इसमें उन्होंने दिलचस्पी नहीं दिखाई।
उपाध्यक्ष बनने के बाद लगा था कि वे कांग्रेस को अपने तरीके से आगे ले जाएंगे, लेकिन कुछ भी नहीं बदला है। अब भी पार्टी में किसी तरह का बदलाव देखने को नहीं मिल रहा है। कांग्रेस को समझ लेना होगा कि सोनिया और राहुल गांधी का आभामंडल उसको उबारने में सक्षम नहीं है और मौजूदा तौर-तरीकों से कांग्रेस बहुत आगे नहीं जा सकती।
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