उमेश चतुर्वेदी का लेख : असहमति का होगा सम्मान!
एंकर बहिष्कार से ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को आगामी लोकसभा चुनाव में मीडिया के जरिए ही जीत मिलेगी। अगर वे ऐसा सोचते हैं तो इससे साबित होता है कि विपक्षी नेताओं को न तो अपने शब्दों पर भरोसा है और न ही कार्यकर्ताओं पर। यह भी सच है कि सिर्फ मीडिया के जरिए ना तो चुनाव लड़े जा सकते हैं और न जीते जा सकते हैं। इसका विपक्षी दलों को कितना फायदा होगा, या नुकसान, यह तो बाद की बात है, लेकिन एक बात तय है कि इससे राजनीतिक दलों में पत्रकारों को डिक्टेट करने की प्रवृत्ति जरूर पैदा होगी। यह ना तो लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा, ना ही पत्रकारिता के लिए।

उमेश चतुर्वेदी
कांग्रेस के लंबे समय तक एक प्रवक्ता रहे विट्ठल नरहरि गाडगिल। राजनीति में आने से पहले फ्री प्रेस जर्नल के पत्रकार रहे गाडगिल की एक विशेषता थी। पार्टी की प्रेस ब्रीफिंग में अपनी बात तो वे कुशलता से कह लेते थे, लेकिन जब कांग्रेस और उनके नेताओं से जुड़े असहज सवाल पत्रकारों की ओर से उछाले जाते तो वे बहरे हो जाते थे। उनका एक ही जवाब होता था कि उन्होंने सुना नहीं..प्रश्न पूछने वाला पत्रकार दो-तीन बार अपना सवाल दोहराता और इतने में गाडगिल चाय की घोषणा कर देते। इसके जिक्र की जरूरत इंडिया गठबंधन की ओर से टेलीविजन चैनलों के चौदह एंकरों के कार्यक्रमों के बहिष्कार की घोषणा के बाद महसूस हो रही है।
कांग्रेस पार्टी को लेकर पत्रकारिता जगत में एक सोच रही है। सोच यह कि कठोर से कठोर सवाल पूछिए, उसका नेता संतुलित ही रहेगा। अपवाद हर जगह होते हैं, इसलिए उन्हें नियम और परंपरा के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसा नहीं कि पहली बार कांग्रेस विपक्ष में आई है। वाजपेयी के शासनकाल के दौरान भी कांग्रेस प्रवक्ताओं की ओर से कभी पत्रकारों के साथ ऐसा सलूक नहीं हुआ। कांग्रेस की ओर से पत्रकारों को संभालने की कमान तब कपिल सिब्बल, अजीत जोगी, मार्गरेट अल्वा या एस जयपाल रेड्डी संभालते रहे। हां, उस दौर में उसके मीडिया सेल में कार्यरत और अब भाजपा के केरल के नेता बन चुके टॉम वडक्कन राष्ट्रवादी पत्रकारों को अक्सर मीडिया ब्रीफिंग से निकाल बाहर करते रहे। कांग्रेस के प्रवक्ता तब असहज सवालों से बचने के लिए अपने खेमे के पत्रकारों को मुस्तैद रखा करते थे और बीच में ही वे अपने सहज सवाल लेकर लपक पड़ते थे। कुछ पत्रकार तो कांग्रेस के पक्ष में ऐसी लामबंदी करते रहे कि टेलीविजन चैनलों में उन्हें कांग्रेस प्रवक्ताओं की तरह बुलाया जाने लगा और यह प्रक्रिया आज भी जारी है। वैसे पुराने कांग्रेसी प्रवक्ताओं की तुलना में जरा आज के कांग्रेसी प्रवक्ताओं को देखिए। कुछ महीने पहले एक टीवी बहस में ऐसा आपा खो बैठे कि बहस में शामिल एक नेता पर पानी का गिलास फेंक दिया। उससे उस बहस की एंकरिंग कर रहे सज्जन का कोट भी भीग गया था। संयोग से वह सज्जन इंडिया की बहिष्कार लिस्ट में नहीं हैं। वामपंथी वर्चस्व के दौर में पश्चिम बंगाल में एक हद तक ऐसी प्रवृत्ति रही है। वामपंथी दलों को जब भी भाजपा पर हमला करना होता है तो वे खुद को कुछ ज्यादा ही लोकतांत्रिक साबित करने लगते हैं। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा के शासन के दौर में पत्रकारिता को सब कुछ अच्छा ही अच्छा दिखता रहा। सिंगूर आंदोलन इसका अपवाद रहा। इसका मतलब यह नहीं था कि वाममोर्चा के शासन काल में पश्चिम बंगाल स्वर्ग जैसा हो गया था। वाममोर्चे की राजनीतिक तानाशाही को शायद ही कोई पत्र या पत्रिका रिपोर्ट करती थी। आज का टेलीग्राफ प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ जिस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल करता है, वैसी शब्दावली आज भी वह न तो ममता के खिलाफ करता है और न ही अतीत में कभी वाममोर्चे के खिलाफ करता रहा। आशय यह है कि वाम वर्चस्व के दौर में पत्रकारों को भी बांटा गया। कुछ इसी अंदाज में कांग्रेस की अघोषित अगुआई वाले इंडिया ने एंकरों के बहिष्कार का ऐलान किया है।
ऐसा नहीं कि कांग्रेस पत्रकारिता के लिए स्वर्गीय माहौल ही उपलब्ध कराती रही है। लेकिन यह जरूर रहा कि उसने अगर किसी पत्रकार को कभी प्रभावित करने की कोशिश की तो वह सब पर्दे के पीछे से हुआ। आखिर कांग्रेस के रुख में ऐसा बदलाव क्यों आया। गंभीरता से विचार करें तो इसके पीछे कांग्रेस के मौजूदा नेतृत्व के सलाहकारों की राय ही नजर आती है। मल्लिकार्जुन खड़गे भले ही कांग्रेस के अध्यक्ष हों, लेकिन असल कमान अब भी राहुल और प्रियंका गांधी के ही हाथ है। उनके सलाहकारों को देखिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अतिवादी वामपंथी राजनीति करते रहे लोग हैं। उनकी सोच साफ है। अगर आप उनके मुताबिक बात करें तो आप पत्रकार हैं, अन्यथा आप सांप्रदायिक हैं, चरण चुंबक हैं। एंकरों के बहिष्कार से कांग्रेस एक गलत परिपाटी शुरू कर रही है। वह वामपंथी शासकों की तरह यह जता रही है कि या तो आप मेरे मनमुताबिक रिपोर्ट करो या फिर आप संघी हो, सांप्रदायिक हो या राष्ट्रवादी हो। कांग्रेस, उसके नेता और उसके समर्थक बौद्धिकों को जब भी भाजपा पर हमला करना होता है तो उसे सांप्रदायिक के साथ ही अलोकतांत्रिक बताते नहीं थकते। ऐसे में उन्हें नेहरू और उनकी लोकतांत्रिक सोच खूब याद आती है। वे अक्सर नेहरू द्वारा असहमति को सम्मान देने का उदाहरण देते रहते हैं। सवाल यह है कि एंकरों का बहिष्कार क्या असहमति को सम्मान देने का तरीका है। इंडिया में शामिल समाजवादी खेमा पत्रकारिता से सहज रिश्ता रखने वाला रहा है। नीतीश कुमार अपने खिलाफ लिखी या बोली चीजों को भुला नहीं पाते, लेकिन कुल मिलाकर अपने खिलाफ रिपोर्ट करने या बोलने वाले पत्रकार से मिलने पर कभी तीखा व्यवहार नहीं करते रहे। लालू यादव के शासनकाल की गड़बड़ियों को मीडिया ने ही उछाला। तब वे मीडिया पर बरसते थे, लेकिन पत्रकारों से अशोभन व्यवहार उनकी ओर से कम ही हुआ। बहरहाल सवाल यह है कि क्या एंकरों के बहिष्कार को लेकर समाजवादी भी उसी तरह का रुख बरकरार रख पाएंगे, जैसे कांग्रेस की ओर से किया जा रहा है। एंकर बहिष्कार की नीति एक तरह से पत्रकारिता को लेकर कांग्रेस के भावी रूख को भी सामने लाती है। साफ है कि अगर उसकी सत्ता रही तो वह अपने खिलाफ बोलने वाले लोगों को दंडित भी करेगी। दंडित करने का तरीका क्या होगा, उसे समझने के लिए राहुल गांधी की पेरिस में हाल ही में कही गई बात को ध्यान में रखना होगा। जिसका भाव यह रहा कि सत्ता में आने पर वे सबको देख लेंगे। कांग्रेस के बहिष्कार से ऐसा लगता है कि मीडिया के ही चलते उसकी दो चुनावों में हार हुई। मनमोहन सरकार पर लगे कोयला घोटाला के आरोप हों या राष्ट्रमंडल खेल घोटाले के आरोप या फिर टूजी घोटाले के आरोप, उन खबरों को तवज्जो तब मिली, जब सर्वोच्च न्यायालय में उनकी सुनवाई शुरू हुई और ज्यादातर याचिकाएं प्रशांत भूषण ने डाली थीं। जो आज मानसिक रूप से इंडिया के साथ हैं।
एंकर बहिष्कार से ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को आगामी लोकसभा चुनाव में मीडिया के जरिए ही जीत मिलेगी। अगर वे ऐसा सोचते हैं तो इससे साबित होता है कि विपक्षी नेताओं को न तो अपने शब्दों पर भरोसा है और न ही कार्यकर्ताओं पर। यह भी सच है कि सिर्फ मीडिया के जरिए ना तो चुनाव लड़े जा सकते हैं और न जीते जा सकते हैं। इसका विपक्षी दलों को कितना फायदा होगा, या नुकसान, यह तो बाद की बात है, लेकिन एक बात तय है कि इससे राजनीतिक दलों में पत्रकारों को डिक्टेट करने की प्रवृत्ति जरूर पैदा होगी। यह ना तो लोकतंत्र के लिए अच्छा होगा, ना ही पत्रकारिता के लिए।
(लेखक- उमेश चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके अपने विचार हैं।)

Ashwani Awasthi
अश्वनी अवस्थी मीडिया में 12 साल से हैं। पिछले 4 वर्षों से haribhoomi.com से जुडे हुए हैं। इससे पहले हरिभूमि में 6 वर्ष सब एडीटर के रूप कार्यरत रहे। श्री टाइम्स हिंदी दैनिक लखनऊ, दैनिक जागरण हिसार में सब एडीटर के रूप में सेवाएं दीं। साल 2010 में CSJM, University Kanpur से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया।