युवा दिवस: ऐसा है स्वामी विवेकानंद के सपनों का भारत, जानिए उनके गुरु ने उनसे क्या कहा

युवा दिवस: ऐसा है स्वामी विवेकानंद के सपनों का भारत, जानिए उनके गुरु ने उनसे क्या कहा
X
स्वामी विवेकानंद जयंती का दिन 12 जनवरी राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में देशभर में मनाया जाता है स्वामी विवेकानंद की जयंती पर जानिए सूर्य नमस्कार से लेकर कैसे भारत की कल्पना करते हैं स्वामी विवेकानंद।

स्वामी विवेकानंद जयंती का दिन 12 जनवरी राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में देशभर में मनाया जाता है। उनका जीवन और दर्शन युवकों के लिए ही नहीं बल्कि सभी के लिए प्रेरणास्रोत है। उनका धर्म था, ‘मानव की सेवा में ईश्वर का साक्षात्कार।’ देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बहुत पहले ही स्वामीजी के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा था कि- ‘मैं नहीं जानता हमारी युवा पीढ़ी में कितने लोग स्वामी विवेकानंद के भाषणों और लेखों को पढ़ते हैं, परंतु मैं उन्हें निश्चित बता सकता हूं कि मेरी पीढ़ी के बहुतेरे युवक उनके व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। मेरे विचार में, यदि वर्तमान पीढ़ी के लोग स्वामी विवेकानंद के भाषणों और लेखों को पढ़ें तो उन्हें बहुत बड़ा लाभ होगा और वे बहुत कुछ सीख पाएंगे।

वास्तव में स्वामी विवेकानंद वैदिक धर्म एवं संस्कृति के समस्त स्वरूपों के साक्षात प्रतीक थे। उनका विश्वास था कि भारत की महान नियति मानवता को उस मुकाम पर ले जाने की है, जहां वेद, कुरान और बाइबल सहस्वर और सुसंगत हो जाएं। स्वयं उनके शब्दों में-‘उस स्थान पर पहुंचकर आदमी जानेगा कि सब धर्म एक हैं और सब धर्मों की विविध और परिवर्तित अभिव्यक्तियां अभिन्नता की मंजिल पर पहुंचने के अलग-अलग मार्ग हैं और सबको अपना-अपना मनचाहा मार्ग चुनने की स्वतंत्रता है।

10 जून 1898 को मुहम्मद सरफराज हुसैन को लिखे एक पत्र में स्वामीजी ने लिखा था,‘हमारी मातृभूमि के लिए जो दो महान प्रणालियों (हिंदू धर्म और इस्लाम) का संगम है, वेदांत का मस्तिष्क और इस्लाम का शरीर ही एकमात्र आशा है...भविष्य और संपूर्ण आदर्श भारत का जन्म इसी अव्यवस्था और अनबन से होगा। उसी से जन्म होगा, एक ऐसे तेजस्वी और अजेय भारत का जिसका मस्तिष्क वेदांती और शरीर इस्लामी होगा।’ विवेकानन्द ब्रह्म समाज के सदस्य थे। यह संस्था बाल विवाह और निरक्षरता जैसी कुरीतियों को समूल नष्ट करने तथा महिलाओं और नीची जातियों के लोगों को शिक्षित बनाने के अभियान में लगी थी।

उनका विश्वास था कि ईश्वर को धार्मिक नाम दिए जाने में कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन उनकी रुचि हमारे आचरण में है। ईश्वर हमें उसी रूप में देखते हैं, जिसमें हम असल में हैं, न कि किस धर्म का लेबल हमने ऊपर लगा रखा है। स्वामी विवेकानंद के अनुसार-यही है वह भारत देश जिसमें एक काल में शाश्वत मूल्यों को सर्वोपरि माना जाता था। मेरा स्वप्न स्वतंत्र भारत को आध्यात्मिकता, नैतिकता, सज्जनता, मृदुता और प्रेम की मातृभूमि के रूप में देखने का है। स्वामीजी के संदेश का सार मर्म है- ‘स्वयं पूर्ण बनो और दूसरों को भी पूर्ण बनाओ। प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। वाह्य एवं अंतः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्म भाव को व्यक्त करना ही जीवन का परम लक्ष्य है।

कर्म उपासना, मन संयम अथवा ज्ञान इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है। मन अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मंदिर अथवा अन्य वाह्य क्रियाकलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।’ आज के वैज्ञानिक युग में मनुष्य के सम्मुख अनेक समस्याएं हैं- स्वामीजी इन सभी समस्याओं से परिचित थे तथा उन्हें यथार्थ रूप में समझ भी सके थे, इसलिए उन सबके लिए उन्होंने उपाय तथा मार्ग भी प्रदर्शित किए और ये सारे मार्ग उन चिंतन सत्यों पर आधारित हैंे जो वेदांत तथा विश्व के अन्य महान धर्मों में निहित है।

यथार्थ धर्म की शिक्षा देने के अतिरिक्त उन्होंने समग्र विश्व को जनता-जनार्दन की सेवा पूजा के भाव से करने का भी पाठ पढ़ाया है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि स्वामीजी ने हमें मानव निर्माणकारी धर्म एवं मानव निर्माणकारी दर्शन की शिक्षा दी जो हमारे राष्ट्र निर्माण के लिए अनुपम देन है। कहने की आवश्यकता नहीं, इन सब दृष्टिकोणों से स्वामी विवेकानंद का केवल भारत ही नहीं वरन विश्व के धार्मिक एवं सास्ंकृतिक इतिहास में बहुत उच्च स्थान है। उनके गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि ईश्वर साकार और निराकार दोनों ही हैैं।

ईश्वर वह भी है, जिसमें साकार और निराकार दोनों ही समाविष्ट है। यही वह वस्तु है जो उनके जीवन को सर्वोच्च महत्व प्रदान करती है, क्योंकि यहां वे पूर्व और पश्चिम के ही नहीं, भूत और भविष्य के भी संगम बिंदु बन जाते हैं। यदि एक और अनेक सचमुच एक ही सत्य है, तो केवल उपासना के ही विविध प्रकार नहीं, वरना सामान्य रूप से कर्म के भी सभी प्रकार, संघर्ष के सभी प्रकार, सर्जन के सभी प्रकार भी, सत्य-साक्षात्कार के मार्ग हैं। अतः लौकिक और धार्मिक में अब आगे कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना करना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग करना है।

स्वयं जीवन ही धर्म है। प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना उतना ही कठोर न्यास है, जितना कि त्याग करना और विमुख होना। स्वामी विवेकानंद की यही अनुभूति है, जिसने उन्हें उस कर्म का महान उपदेष्टा सिद्ध किया, जो ज्ञान-भक्ति से अलग नहीं, वरना उन्हें अभिव्यक्त करने वाला है। उनके लिए कारखाना, अध्ययन-कक्ष, खेत और क्रीड़ाभूमि आदि भगवान के साक्षात्कार के वैसे ही उत्तम और योग्य स्थान है, जैसे साधु की कुटी या मन्दिर का द्वार। उनके लिए मानव की सेवा और ईश्वर की पूजा पौरूष तथा श्रद्धा, सच्चे नैतिक बल और आध्यात्मिकता में कोई अंतर नहीं है।

एक दृष्टि से उनकी संपूर्ण वाणी को इसी केंद्रीय दृढ़ आस्था के भाष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है। एक बार उन्होंने कहा था, ‘कला, विज्ञान एवं धर्म एक ही सत्य की अभिव्यक्ति के त्रिविध माध्यम है, लेकिन इसे समझने के लिए निश्चय ही हमें अद्धैत का सिद्धांत चाहिए।’ उनके दर्शन का निर्माण करने वाले रचनात्मक प्रभाव को शायद त्रिगुणात्मक माना जा सकता है। पहले तो संस्कृत और अंग्रेजी में उनकी शिक्षा थी।

इस प्रकार दो जगत उनके सम्मुख उद्घाटित हुए एवं उनके वैषम्य ने उन पर एक ऐसी विशिष्ट अनुभूति का बलिष्ठ प्रभाव डाला, जो भारत के धर्म-ग्रंथों की विषय वस्तु है। यदि यह सत्य हो तो यह स्पष्ट है कि वह, जैसे कुछ अन्य लोगों को प्राप्त हो गया, उस प्रकार भारतीय ऋषियों को संयोगवश अप्रत्याशित रूप से नहीं प्राप्त हुआ था। वरना वह एक विज्ञान की वस्तु था, एक ऐसे तार्किक विश्लेषण का विषय था, जो सत्य की खोज में बड़े से बड़े बलिदान से पीछे हटने वाला नहीं था। विवेकानंद को प्राचीन धर्मग्रंथों का वह सत्यापन प्राप्त हुआ, जिसकी मांग उनका हृदय और बुद्धि करती रही थी।

और पढ़े: Haryana News | Chhattisgarh News | MP News | Aaj Ka Rashifal | Jokes | Haryana Video News | Haryana News App

WhatsApp Button व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ें WhatsApp Logo

Tags

Next Story