"अनुपयोगी कोयला प्लांट्स के लिए 3 लाख करोड़ खर्च"
कोयला प्लांट्स बढ़ाने की योजना अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही खतरनाक है।

नई दिल्ली. हाल ही में भारत सरकार ने पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते को स्वीकार करने का संकेत दिया है, जबकि ग्रीनपीस इंडिया के एक विश्लेषण में यह सामने आया है कि भारत को कोयला प्लांट्स बढ़ाने की योजना पेरिस समझौते की प्रतिबद्धताओं और अर्थव्यवस्था खासकर, ऊर्जा और बैंकिंग सेक्टर के लिये बहुत ही खतरनाक है। स्वच्छ ऊर्जा के लिए प्रतिबद्धता को दर्शाते हुए भारत ने 175 गिगावॉट सोलर और वायु से हासिल करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है और इसके लिए अक्षय ऊर्जा सेक्टर में कई अरब डॉलर के निवेश को लाने की भी कोशिश कर रहा है। दूसरी तरफ ग्रीनपीस का विश्लेषण बताता है कि 3 लाख करोड़ रुपए अतिरिक्त 62 गिगावॉट पावर प्लांट्स बनाने में खर्च कर दिए गए। ये प्लांट्स अभी भी जरुरत से बहुत ज्यादा ऊर्जा होने की वजह से निष्क्रिय बने रहेंगे।
अतिरिक्त कोयला बिजली का खतरा तब है जब सेक्टर ने पहले ही प्लांट लोड फैक्टर्स (पीएलएफ) में वर्ष 2015-16 में 62 प्रतिशत का गिरावट देख चुका है और जुलाई 2016 में यह 54 प्रतिशत तक कम हो गया था, जिससे वित्तीय संकट उत्पन्न होने की पूरी संभावना है। कम से कम 31 गिगावॉट पावर प्लांट्स वर्तमान में निष्क्रिय है क्योंकि उनमें कोयले की आपूर्ति कम है या फिर राज्य से खरीद समझौता नहीं हो सका है।
ग्रीनपीस इंडिया के रिसर्च सलाहकार जय कृष्णा का कहना है, “ऊर्जा मांग में प्रतिवर्ष 6.7 प्रतिशत की बढ़त के सरकारी अनुमान से यह साफ है कि कम से कम वर्ष 2022 तक किसी भी अतिरिक्त कोयला ऊर्जा की जरुरत नहीं है। जबकि तथ्य यह है कि हम अभी 65 गिगावॉट के पावर प्लांट्स बना रहे हैं जो कभी उपयोग में ही नहीं लाए जायेंगे। इसके निर्माण में हमारा बेतहाशा पैसा खर्च हो रहा है। यह इस बात को दर्शाता है कि हम इंफ्रास्टक्चर (आधारभूत संरचना) सेक्टर में योजना बनाने में कितने खराब हैं। वास्तव में, 94 प्रतिशत निर्मित होने वाले कोयला पावर आने वाले दिनों में पूरी तरह निष्क्रिय हो जायेंगे”।
इसके साथ ही 65 गिगावॉट के कोयला पावर प्लांट्स निर्माणाधीन हैं, 178 गिगावॉट के कोयला पावर प्लांट्स अनुमति हासिल करने की प्रक्रिया के विभिन्न चरणों में पहुंच चुके हैं। अगर इसका एक हिस्सा भी बन जाता है तो इससे पावर सेक्टर में अधिक्षमता की समस्या बढ़ेगी। इसका असर बैंकिंग सेक्टर पर भी होगा और वह गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों के विकास के लिये जोखिम भरा होगा।
ऊर्जा अधिशेष या ऊर्जा गरीबी ?
हालांकि केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण ने इस साल भारत को ऊर्जा के क्षेत्र में सरप्लस घोषित किया है, जबकि देश की बड़ी आबादी अभी भी बिना बिजली का गुजर-बसर कर रही है। सबको सस्ती बिजली उपलब्ध करवाना प्राथमिकता में होनी चाहिए, वैसे भी यह स्पष्ट हो गया है कि बड़े पैमाने पर केंद्रीकृत ग्रिड की व्यवस्था ऊर्जा गरीबी को संबोधित करने में असफल हो चुकी है, क्योंकि वितरण कंपनियां अतिरिक्त बिजली खरीदने के लिये वित्तीय संकट से जूझ रही है और बिना बिजली के रहने वाली बड़ी आबादी की जरुरतों को अभी भी पूरा नहीं किया जा सका है। बहुत से छोटे-छोटे मॉडलों ने यह दिखाया है कि विकेन्द्रीकृत अक्षय ऊर्जा माइक्रोग्रिड के माध्यम से लोगों को सस्ती बिजली उपलब्ध करवाने में सफल है। ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने खुद कहा है कि भारत में सोलर थर्मल पावर प्लांट से कहीं सस्ता ऊर्जा माध्यम है।
जय कृष्णा कहते हैं, “अधिक्षमता (ओवरकैपिसिटी) के मुद्दे को तुरंत हल करने की जरुरत है”। ग्रीनपीस मांग करती है कि सरकार कोयला में आने वाले निवेश को हतोत्साहित करने के लिये कदम उठाए, जैसे सरकार की स्वामित्व वाली कंपनी एनटीपीसी 2032 तक 31 गिगावॉट अतिरिक्त कोयला पावर की योजना बना रही है, जिसे रोका जा सकता है। सरकार को पुराने पड़ चुके, अतिरिक्त प्रदूषण फैलाने और कम क्षमता वाले पावर प्लांट को बंद करने की गति को तेज करना होगा और एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिससे कोयला प्लांट में आने वाले निवेश को भारत के अक्षय ऊर्जा जरुरतों और लक्ष्यों को पाने के लिए इस्तेमाल किया जा सके।
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