इस भारतीय ने बनाया था Facebook, मार्क जुकरबर्ग ने चुराया आइडिया- जानें पूरी कहानी

इस भारतीय ने बनाया था Facebook, मार्क जुकरबर्ग ने चुराया आइडिया- जानें पूरी कहानी
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अगर आपसे कहा जाए कि मार्क जुकरबर्ग नहीं बल्कि एक भारतीय फेसबुक का संस्थापक है, तो क्या आप इस बात पर भरोसा करेंगे। नहीं न, लेकिन ये सच है।

अगर आपसे कहा जाए कि फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग नहीं बल्कि एक भारतीय है, तो क्या आप इस बात पर भरोसा करेंगे। नहीं न, लेकिन ये सच है।

इस भारतीय शख्स का नाम है दिव्य नरेंद्र। नरेंद्र ने फेसबुक बनाया तो लेकिन उन्हें कभी भी इसका क्रेडिट नहीं मिला। नरेंद्र ने अपने दो अन्य साथियों के साथ मिलकर वो आइडिया डेवलप किया था, जिसे आज हम फेसबुक के नाम से जानते हैं। नरेंद्र ही वो पहले शख्स हैं, जिन्होंने जुकरबर्ग के खिलाफ विश्वासघात का मुकदमा किया था।

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कौन हैं नरेंद्र

नरेंद्र का जन्म 1984 में न्यूयार्क के ब्रांक्स में हुआ था। नरेंद्र भारत से अमेरिका शिफ्ट हुए डॉक्टर दंपत्ति के बड़े बेटे हैं। साल 2000 में उन्होंने हार्वर्ड में दाखिला लिया और साल 2004 में वो अप्लाइड मैथमेटिक्स में ग्रेजुएट हुए।

इसके बाद उन्होंने MBA और कानून की भी पढाई की। नरेंद्र हार्वर्ड कनेक्शन (बाद में नाम कनेक्टयू) के सह-संस्थापक थे, जिसे उन्होंने कैमरुन विंकलेवोस और टेलर विंकलेवोस के साथ मिलकर बनाई थी।

इस फार्मूला पर बना है फेसबुक

नरेंद्र ने हावर्ड के अपने दो क्लासमेट के साथ मिलकर हार्वर्ड कनेक्ट सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट 21 मई 2004 में लांच की। जिसका नाम बाद में बदलकर कनेक्टयू कर दिया।

इस प्रोजेक्ट की शुरुआत दिसंबर 2002 में की गई। इस प्रोजेक्ट का पूरा फॉरमेट और अवधारणा वही है, जिस पर फेसबुक शुरू हुआ। कनेक्टयू वेबसाइट लांच हुई, हार्वर्ड कम्युनिटी के तौर पर इस पर काम शुरू किया फिर ये बंद हो गई।

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ये थे पहले प्रोग्रामर

संजय मवींकुर्वे नाम के प्रोग्रामर के सबसे पहले हार्वर्ड कनेक्शन बनाने को कहा गया। संजय ने इस प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू किया लेकिन साल 2003 में उन्होंने इसे छोड़ दिया और गूगल चले गए।

संजय के प्रोजेक्ट बीच में छोड़ने के बाद नरेंद्र ने विंकलेवोस और हार्वर्ड के स्टूडेंट और अपने दोस्त प्रोग्रामर विक्टर गाओ को साथ काम करने का प्रस्ताव दिया।

विक्टर गाओ ने कहा कि वो इस प्रोजेक्ट का फुल पार्टनर बनने की बजाए पैसे पर काम करना चाहेंगे। इसके लिए नरेंद्र ने उन्हें 400 डॉलर दिए गए और उन्होंने वेबसाइट कोडिंग पर काम किया। लेकिन बाद में व्यक्तिगत कारणों से उन्होंने खुद को इस प्रोजेक्ट से अलग कर लिया।

नरेंद्र ने किया था मार्क जुकरबर्ग को एप्रोच

2003 में नवंबर में विक्टर के रिफरेंस पर विंकलेवोस और नरेंद्र ने मार्क जुकरबर्ग को एप्रोच किया कि वो उनके साथ काम करें। हालांकि जुकरबर्ग को काम के लिए एप्रोच करने से पहले ही नरेंद्र और विंकलेवोस इस पर काफी काम कर चुके थे।

नरेंद्र के मुताबिक, कुछ दिनों बाद हमने काफी हद तक वो वेबसाइट डेवलप कर ली लेकिन हमें इस बात का बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि जैसे ही हम उसे कैंपस में लोगों को दिखाएंगे, वो लोगों के बीच हलचल पैदा करेगी।

मार्क जुकरबर्ग ने जब हार्वर्ड कनेक्शन टीम से बात की तो टीम को वो काफी इंट्रेस्टेड लगे। जुकरबर्ग को वेबसाइट के बारे में बताया गया कि वे कैसे उसका किस तरह विस्तार करेंगे, कैसे उसे दूसरे स्कूलों और अन्य कैंपस तक ले जाएंगे। हालांकि, ये सारी जानकारियां गोपनीय थी, लेकिन मीटिंग में बताना जरूरी था।

पार्टनर बनने के बाद दिया धोखा

नरेंद्र के मुताबिक, मौखिक बातचीत के जरिए ही जुकरबर्ग उनके पार्टनर बन गए। इसके बाद जुकरबर्ग को प्राइवेट सर्वर लोकेशन और पासवर्ड के बारे में बताया गया, जिससे वेबसाइट का बचा काम और कोडिंग पूरी की जा सके।

जुकरबर्ग के टीम में शामिल होने के बाद माना गया कि वो जल्द ही प्रोग्रामिंग के काम को पूरा कर देंगे और वेबसाइट लांच कर दी जाएगी। इन सारे कामों के समझने के कुछ ही दिन बाद जुकरबर्ग ने कैमरुन विंकलेवोस को ईमेल भेजा, जिसमें कहा गया था कि उन्हें नहीं लगता कि प्रोजेक्ट को पूरा करना कोई मुश्किल होगा।

जुकरबर्ग ने लिखा था कि मैने वो सारी चीजें पढ़ ली हैं, जो मुझको भेजी गई हैं और मुझे इन्हें लागू करने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। इसके बाद अगले दिन जुकरबर्ग ने एक और ईमेल भेजा, जिसमें लिखा था कि मैने सब कर लिया है और वेबसाइट जल्द ही शुरू हो जाएगी। लेकिन इसी के बाद से जुकरबर्ग धोखा देने लगे।

जुकरबर्ग ने फोन कॉल्स किए इग्नोर

जुकरबर्ग ने धीरे-धीरे करके हार्वर्ड कनेक्ट टीम के फोन उठाने बंद कर दिए। न ही वो टीम के मेल के जवाब दे रहे थे। जुकरबर्ग ने ये जताना शुरू कर दिया कि वो किसी ऐसे काम में बिजी हो गए हैं कि उनके पास ज्यादा समय नहीं है।

इसके बाद 4 दिसंबर 2003 को जुकरबर्ग ने मे किया और लिखा कि सॉरी मैं आप लोगों के कॉल के जवाब नहीं दे सका, मैं बहुत बिजी हूं। इसके बाद वो हर मेल में ऐसी ही बातें कहने लगे।

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चुपके से लॉन्च किया फेसबुक

धीरे-धीरे जुकरबर्ग ने हावर्ड टीम के साथ मतभेद पैदा किए और अलग हो गए। इसी के बाद उन्होंने द फेसबुक डॉट कॉम के नाम से 4 फरवरी 2004 को नई वेबसाइट लांच कर दी।

इस वेबसाइट में सबकुछ वही था, जो हार्वर्ड कनेक्ट के लिए डेवलप किया जा रहा था। ये सोशल नेटवर्क साइट भी हार्वर्ड स्टूडेंट्स के लिए ही थी, जिसका विस्तार बाद में देश के अन्य स्कूलों तक करना था। विंकलेवोस और नरेंद्र को इस बात का देरी से पता चला।

जब उन्हें इस बात का पता चला तो नरेंद्र और उनके सहयोगियों की जुकरबर्ग से तीखी नोकझोंक हुई। यूनिवर्सिटी मैनेजमेंट ने इस मामले में हस्तक्षेप करते हुए नरेंद्र को कोर्ट जाने की सलाह दी।

कोर्ट ने माना आइडिया नरेंद्र का था

यूनिवर्सिटी की सलाह मानकर नरेंद्र और विंकलेवोस कोर्ट में पहुंचे। साल 2008 में जुकरबर्ग ने इनसे समझौता किया और 650 लाख डॉलर की रकम दी। हालांकि, नरेंद्र इस समझौते से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि उनका तर्क था कि उस समय फेसबुक के शेयरों की जो बाजार में कीमत थी, उन्हें उसके हिसाब से हर्जाना नहीं दिया गया।
लेकिन अमेरिकी कोर्ट के फैसले से इस बात को तो खुलासा हो गया था कि दुनिया की सबसे बड़ी सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक का आइडिया दिव्य नरेंद्र का था।

नरेंद्र चलाते हैं समजीरो नाम की कंपनी

नरेंद्र अब अपनी कंपनी चलाते हैं, जिसका नाम समजीरो है। इस कंपनी को उन्होंने और हावर्ड के क्लामेट अलाप ने शुरू किया। ये कंपनी प्रोफेशनल निवेशक फंड, म्युचुअल फंड और प्राइवेट इक्विटी फंड पर काम करती है। नरेंद्र ने एक साल पहले एक अमेरिकन एनालिस्ट फोबे व्हाइट से शादी रचाई।

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