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अयोध्या विवाद / 20 मिनट में रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद मामले पर कोर्ट ने क्या कहा, जानें पूरा मामला
सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद मामले की 29 जनवरी को सुनवाई के लिये नयी संविधान पीठ गठित करने का बृहस्पतिवार को फैसला किया क्योंकि वर्तमान पीठ के एक सदस्य न्यायमूर्ति उदय यू ललित ने इसकी सुनवाई से खुद को अलग कर लिया।

टीम डिजिटल/हरिभूमि, दिल्ली10 Jan 2019 8:38 PM GMT
सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद मामले की 29 जनवरी को सुनवाई के लिये नयी संविधान पीठ गठित करने का बृहस्पतिवार को फैसला किया क्योंकि वर्तमान पीठ के एक सदस्य न्यायमूर्ति उदय यू ललित ने इसकी सुनवाई से खुद को अलग कर लिया।
प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति ललित ने इस मामले की सुनवाई में आगे भाग लेने के प्रति अनिच्छा व्यक्त की और उन्होंने इस मामले से हटने का निर्णय किया। शीर्ष अदालत ने कहा कि चूंकि न्यायमूर्ति ने इस मामले की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया है, इसलिए इस मामले के लिये अगली तारीख और सुनवाई का कार्यक्रम निर्धारित करने के लिये इसे स्थगित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
इससे पहले, सुबह जैसे ही संविधान इस मामले की सुनवाई के लिए एकत्र हुयी, एक मुस्लिम पक्षकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा कि न्यायमूर्ति ललित बतौर अधिवक्ता 1997 के आसपास एक संबंधित मामले में उप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की ओर से पेश हुये थे।
उन्होंने कहा कि सिंह, उप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में, अयोध्या में विवादित स्थल पर यथास्थिति बनाये रखने का आश्वासन पूरा करने में विफल हो गये थे। अयोध्या में विवादित ढांचा छह दिसंबर, 1992 को गिराया गया था। संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति एन वी रमण, न्यायमूर्ति उदय यू ललित और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चंद्रचूड़ शामिल थे।
पीठ ने करीब 20 मिनट तक मामले की सुनवाई की और अपने आदेश में इस तथ्य का जिक्र किया कि धवन ने कहा कि न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित द्वारा इस मामले की सुनवाई करने पर कोई आपत्ति नहीं है और इस बारे में अंतिम निर्णय तो न्यायाधीश को ही करना है। पीठ ने कहा कि इस तथ्य को उठाये जाने पर न्यायमूर्ति ललित ने इसकी सुनवाई में आगे हिस्सा लेने के प्रति अनिच्छा व्यक्त की है।
इसलिए, हमारे पास मामले की सुनवाई की तारीख और इसके समय आदि के बारे में निर्णय करने के लिये इसे किसी और तारीख के लिये स्थगित करने के अलावा कोई विकल्प ऩहीं है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 30 सितंबर, 2010 के फैसले के खिलाफ शीर्ष अदालत में 14 अपील दायर की गयी हैं। उच्च न्यायालय ने विवादित 2.77 एकड़ भूमि को सुन्नी वक्फ बार्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान के बीच समान रूप से विभाजित करने का आदेश दिया था।
हालांकि, शीर्ष अदालत ने मई, 2011 में उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाने के साथ ही अयोध्या में विवादित स्थल पर यथास्थिति बनाये रखने का आदेश दिया था। इससे पहले, एक वादी एम सिद्दीक (अब दिवंगत) के कानूनी वारिसों की ओर से पेश राजीव धवन ने शीर्ष अदालत के 27 सितंबर, 2018 के फैसले का जिक्र किया। इस फैसले में न्यायालय ने 1994 में इस्माइल फारूकी मामले में की गयी टिप्पणी पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपने से इंकार कर दिया था।
इस टिप्पणी में कहा गया था कि मस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है। उन्होंने पांच सदस्यीय संविधान पीठ गठित किये जाने को लेकर लगाई जा रही अटकलों की ओर न्यायालय का ध्यान आकर्षित किया जबकि 27 सितंबर, 2018 के फैसले में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा था कि यह मामला अब तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध होगा।
एक हिन्दू पक्षकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने कहा कि मैं समझ सकता हूं यदि किसी सांविधानिक सवाल का फैसला करना हो तो इसका फैसला पांच न्यायाधीशों से कम की पीठ को नहीं करना चाहिए। पीठ ने इस तरह के संदेहों को दूर करते हुये कहा कि इस मामले को पांच न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष पेश करने का निर्णय प्रधान न्यायाधीश ने उच्चतम न्यायालय के नियम, 2013 में प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुये प्रशासनिक पक्ष में लिया है।
इसमे प्रावधान है कि किसी प्रकरण, अपील या मामले की सुनवाई प्रधान न्यायाधीश द्वारा मनोनीत दो न्यायाधीशों की सदस्यता वाली पीठ नहीं करेगी। प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि इस तरह से पांच सदस्यीय पीठ का गठन किया गया तो किसी भी तरह से 27 सितंबर, 2018 के तीन न्यायाधीशों के फैसले और आदेश के विपरीत नहीं है। पीठ ने अपने आदेश में कहा कि शीर्ष अदालत की रजिस्ट्री के सेक्रेटरी जनरल ने प्रधान न्यायाधीश को सूचित किया है कि चार वादों में सुनवाई के लिये कुल 120 मुद्दे तैयार किये गये हैं और इसमें 88 गवाहों से पूछताछ की गयी थी। पीठ ने यह भी नोट किया कि गवाहों के बयान 13886 पन्नों में है और 257 दस्तावेज दिखाये गये हैं।
यह आदेश लिखाये जाने के दौरान ही धवन ने कहा कि इसमे दिखाये गये दस्तावेजों में पुरातत्व विभाग की तीन रिपोर्ट सहित 533 दस्तावेज हैं। पीठ ने यह भी नोट किया कि उच्च न्यायालय का फैसला 4304 मुद्रित पन्नों का है और रजिस्ट्री के अनुसार इसके टाइप पन्नों की संख्या 8533 है। पीठ ने अपने आदेश में कहा कि उसे सूचित किया गया है कि मूल रिकार्ड 15 सीलबंद बक्सों में एक कमरे में बंद है और कमरा भी सील है।
पीठ ने कहा कि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि फारसी, संस्कृत, अरबी, उर्दू, हिन्दी, और गुरमुखी आदि भाषाओं में दिये गये बयानों का अनुवाद हुआ है। पीठ ने कहा कि शीर्ष अदालत ने 10 अगस्त, 2015 को यह संकेत दिया था कि पक्षकारों के वकीलों ने साक्ष्यों के अनुदित रूप पेश करने का प्रयास किया था लेकिन इसके सही होने के बारे में कुछ विवाद था।
इन परिस्थितियों में न्यायालय की रजिस्ट्री को निर्देश दिया गया कि सीलबंद कर रखे गये रिकार्ड की व्यक्तिगत रूप से जांच करे और इस बात का आकलन करे कि यदि आधिकारिक अनुवादकों की सेवायें ली जायें तो इसमें कितना समय लगेगा तथा इससे न्यायालय को अवगत करायें। पीठ ने कहा कि रजिस्ट्री 29 जनवरी को उस समय यह रिपोर्ट पेश करेगी जब पुर्नगठित संविधान पीठ इस मामले में अगला आदेश सुनायेगी।
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