Year Ender 2021 : नफरत की सियासत हावी रही
राजनीति इस साल भी धर्म और सांप्रदायिक अलाप में फंसी रही। सियासत पूरी तरह हिन्दू-मुसलमान की विभाजनकारी स्थिति में है। कुछ साधु-सन्तों ने हरिद्वार मेें ‘धर्म-संसद’ का आयोजन किया था। यहां से विभाजनकारी आह्वान राजनीति को और दागदार बनाएगा। इसकी आंच भाजपा को ही झुलसाएगी। ये तमाम सांप्रदायिक और नफरत भरी हरकतें प्रधानमंत्री और भाजपा की जानकारी में न हों, ऐसा मानना संभव नहीं है।

सुशील राजेश
सुशील राजेश
वर्ष 2021 बेहद तकलीफदेह और शोकाकुल साल रहा। यह कालखंड भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम रहा। उसकी वजह है कि उनके राजनीतिक विरोधी, नफरत की हद तक, प्रत्येक मुद्दे पर, उनका जबरदस्त विरोध करते रहे और उनके समर्थक कट्टर और प्रतिबद्ध रहे। प्रधानमंत्री पर आरोप मढ़े जाते रहे कि उन्होंने देश को तबाह कर दिया। लोकतंत्र की हत्या की जा रही है। संविधान को बदलने की साजिशें जारी हैं। सार्वजनिक संपत्तियां बेची जा रही हैं। ये तमाम आरोप आधारहीन हैं, क्योंकि आरोप लगाने वाले आज भी लोकतंत्र में सांसद हैं। वे ज्ञापन देने राष्ट्रपति के पास जाते रहे हैं अथवा अदालत की चैखट भी खटखटाई है। दरअसल भारत सरीखे लोकतंत्र में कोई भी प्रधानमंत्री इतना दुस्साहस नहीं कर सकता। हालांकि पीएम मोदी ने भी देश की राजनीति में कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं किए हैं, लेकिन सभी सर्वेक्षणों का औसत निष्कर्ष यह रहा है कि साढ़े सात साल की लगातार सत्ता के बावजूद वह आज भी देश के 40-49 फीसदी लोगों की पहली पसंद हैं। भाजपा के हिस्से चुनावी पराजय भी आई है। पश्चिम बंगाल का चुनाव महत्वपूर्ण उदाहरण है। भाजपा ताकत झोंकने के बावजूद ममता बनर्जी को लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने से नहीं रोक सकी। हालांकि भाजपा 3 से 75 विधायकों वाली पार्टी जरूर बन गई। बंगाल में नफरत की सियासत दिखी।
बंगाल के अलावा, तमिलनाडु और केरल में भाजपा एक बार फिर विधानसभा में अपना खाता नहीं खोल सकी। पुडुचेरी में भाजपा-एनडीए ने पहली बार सरकार बनाई। तमिलनाडु में मुख्यमंत्री के तौर पर द्रमुक नेता स्टालिन युग का आगाज़ हुआ। केरल में वाममोर्चा ने अपनी सरकार बरकरार रखी। ऐसा भी पहली बार हुआ है कि केरल में सत्ता-परिवर्तन नहीं हुआ और पी.विजयन ही मुख्यमंत्री हैं। असम में एक बार फिर भाजपा को दो-तिहाई बहुमत हासिल हुआ। असम में सर्बानंद सोनोवाल की जगह हिमंता बिस्वा सरमा को सीएम बनाया गया।
कर्नाटक में तीन बार मुख्यमंत्री रहे येदियुरप्पा के युग का अंत हुआ, भाजपा ने बसवराज बोम्मई का सीएम बनाया। आज पूर्वोत्तर के लगभग सभी राज्य भाजपा-एनडीए शासित हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में जिन राज्यों ने प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर लबालब जनादेश दिए थे, वे कमोबेश आज भी बरकरार हैं।
नये साल 2022 में पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, जिसमें भाजपा की साख दांव पर होगी। प्रधानमंत्री और भाजपा का पूरा फोकस उप्र पर है। पंजाब में एक महत्वपूर्ण गठबंधन हुआ है। भाजपा और उसके दशकों तक विरोधी रहे पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह आने वाला चुनाव मिलकर लड़ेंगे। यह अजूबा भी प्रधानमंत्री ने ही किया है।
राजनीति इस साल भी धर्म और सांप्रदायिक अलाप में फंसी रही। सियासत पूरी तरह हिन्दू-मुसलमान की विभाजनकारी स्थिति में है। कुछ साधु-सन्तों ने हरिद्वार मेें 'धर्म-संसद' का आयोजन किया था। यहां से विभाजनकारी आह्वान राजनीति को और दागदार बनाएगा। इसकी आंच भाजपा को ही झुलसाएगी। ये तमाम सांप्रदायिक और नफरत भरी हरकतें प्रधानमंत्री और भाजपा की जानकारी में न हों, ऐसा मानना संभव नहीं है। पलटवार में ओवैसी ने मोदी-योगी को लेकर औरंगज़ेब और जिन्ना की भाषा में हिन्दुओं को सार्वजनिक तौर पर धमकियां दीं। यह कैसी राजनीति है? हैरानी की बात है क्या राजनीति सांप्रदायिकता और नरसंहारों की हुंकारों पर होगी! विडंबना है कि बेरोज़गारी, महंगाई, कृषि सुधार, अर्थव्यवस्था और कोरोना सरीखे मुद्दों पर कोई सार्थक राजनीति दिखाई नहीं दी।
साल बीतने को है, लेकिन विपक्ष के महागठबंधन की झलक तक देश के सामने नहीं है। ममता राहुल गांधी को नेता मानने को तैयार नहीं है। बंगाल की ऐतिहासिक जीत के बाद ममता 2024 में देश की प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगी है। कांग्रेस कैसे बर्दाश्त कर सकती है? लिहाजा दोनों पक्ष के नेता एक-दूसरे की बैठक तक में नहीं जाते, बल्कि ममता तो कुछ राज्यों में कांग्रेस को ही तोड़ने में जुटी हैं। विपक्ष ने किसान आंदोलन को अपनी तरह से भुनाने की राजनीति की, लेकिन प्रधानमंत्री ने कानून खारिज कर आंदोलन ही निपटा दिया। क्या नये साल की राजनीति में किसी सुधार की उम्मीद की जा सकती है? यह यक्ष प्रश्न है।