बच्चों की एबिलिटी पर मास्क के साइड-इफेक्ट्स
कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए बीते कई माह से हर उम्र के लोग मास्क पहन रहे हैं। लेकिन कुछ अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि इसका असर बच्चों की एबिलिटीज पर कई तरह से पड़ रहा है। वहीं कुछ शोध मास्क के दुष्प्रभाव को नकारते भी हैं।

बच्चों की एबिलिटी पर मास्क के साइड-इफेक्ट्स (फाइल फोटो)
अब तक कोविड-19 संक्रमण से बचाव की न कोई दवाई बनी है, न अभी वैक्सीन ही आई है। ऐसे में संक्रमण से खुद को बचाए रखना ही सुरक्षा का एकमात्र और बेहतर विकल्प है। विशेषज्ञों की राय है कि घर से बाहर निकलने पर मास्क लगाना इसके लिए बहुत कारगर है। लेकिन मास्क के इस्तेमाल को लेकर यह सवाल किया जा रहा है कि कहीं इससे बच्चों के विकास पर तो असर नहीं हो रहा है? कुछ वैज्ञानिकों ने यह चिंता व्यक्त की है कि मास्क के कारण बच्चों के बोलने (स्पीच), भाषा, सामाजिक मेल-मिलाप पर बुरा असर पड़ रहा है।
इंटरेक्शन में प्रॉब्लम
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में एप्लाइड साइकोलॉजी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट के प्रोफेसर कांग ली ने 'बच्चों में चेहरा पहचानने की क्षमता का विकास' अध्ययन करने के बाद तीन प्रमुख समस्याओं की ओर इशारा किया। एक, 12 साल तक के बच्चों को मास्क की वजह से लोगों को पहचानने में कठिनाई होगी, क्योंकि वे अकसर व्यक्ति के फीचर्स पर फोकस करते हैं। दो, हम अपनी भावनाओं को अधिकतर अपने चेहरे की मांस-पेशियों की हरकतों से व्यक्त करते हैं। ये भावनाएं और जानकारियां मास्क से छुप जाती हैं, जिससे बच्चों को भावनात्मक पहचान, सोशल इंटरेक्शन में प्रॉब्लम होगी। तीन, बच्चों को आवाज पहचानने में दिक्कत होगी।
हम सोचते हैं कि ध्वनि (साउंड) के जरिए ही स्पीच कम्युनिकेशन होता है, लेकिन तथ्य यह है कि ज्यादातर सूचना देखने से हासिल होती है। हस्किंस लैबोरेट्रीज और येल चाइल्ड स्टडी सेंटर के सीनियर साइंटिस्ट डेविड लियुकोविच ने शिशुओं में लिप-रीडिंग का अध्ययन किया है। वह कहते हैं कि शिशु जब 6 माह से 8 माह के बीच का होता है और बोलना शुरू करता है तो जो लोग उससे बोल रहे होते हैं, उन्हें देखने पर वह अंदाज बदल देता है। वह आंखों पर फोकस करने की बजाय अधिक समय व्यक्ति के मुंह को देखने में लगाता है। अपनी देशज भाषा को सीखने के लिए और इस तरह वह साउंड, विजुअल सिग्नल हासिल करता है। तीन साल का बच्चा चेहरे के हाव-भाव को प्राथमिकता देने लगता है और उम्र के साथ यह मजबूत होती जाती है। लेकिन जिन शिशुओं के पैरेंट्स के चेहरे पर मास्क लगा होता है, वे इन विजुअल्स को हासिल करने में चूक कर सकते हैं। यह संभव है कि बच्चे के लिए यह तय करना कठिन हो जाए कि कौन-सी आवाज किसकी है।
दुष्प्रभाव को नकारते अध्ययन
बच्चों पर मास्क के बुरे असर को एक अन्य स्टडी नकारती है। हांगकांग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में डेवलपमेंटल साइकोलॉजिस्ट ईवा चेन, अपने शोध में सामाजिक समूहों के संदर्भ में बच्चों का मानसिक विकास पर फोकस करती हैं। ईवा चेन, कांग ली और डेविड लियुकोविच के निष्कर्षों से सहमत नहीं हैं। वह 2012 के एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहती हैं कि मास्क लगे चेहरे के भावों को बच्चे उसी तरह से पढ़ लेते हैं, जैसे बिना मास्क वाले चेहरे के भावों को पढ़ते हैं। उनके अनुसार दिन में कुछ घंटे मास्क लगाने से बच्चों में सामाजिक अभिव्यक्ति की क्षमता कम नहीं होती है। आवाज, हाथ के इशारों और पूरी बॉडी लैंग्वेज का भी महत्व होता है। यह सही है कि बच्चे बोलते हुए व्यक्ति के मुंह पर फोकस करते हैं, लेकिन यह एकमात्र तरीका नहीं है, जिससे बच्चे कम्युनिकेट करते और सीखते हैं।
अभी इन विरोधी अध्ययनों के आधार पर किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। लेकिन फिलहाल हमें बच्चों को इस महामारी से होने वाले किसी भी तरह के बुरे असर से बचाने पर फोकस करना होगा।
बदला बच्चों का व्यवहार
कोरोना वायरस के कारण घर में बंद रहने से बच्चों के व्यवहार में कई परिवर्तन देखने को मिले। मसलन, स्पेन में जहां सख्त लॉकडाउन के दौरान पूरे छह सप्ताह तक बच्चों को घर से निकलने नहीं दिया गया। 90 प्रतिशत पैरेंट्स ने अपने बच्चों में भावनात्मक, व्यवहार परिवर्तन देखे, जिनमें एकाग्रता में कठिनाई, चिड़चिड़ापन, एंग्जायटी शामिल हैं। ऐसा न्यूयॉर्क टाइम्स के एक लेख में कहा गया है। लेकिन इटली में बच्चों को अपने घर के पास कम दूरी की चहलकदमी की अनुमति दी गई थी, वहां यह समस्या इतनी गंभीर नहीं रही।
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साइकोलॉजी टुडे की रिपोर्ट से कहा गया है कि चीन के सख्त लॉकडाउन में भी बच्चों पर स्पेन जैसा प्रभाव पड़ा। सर्वे में यह भी कहा गया है कि जिन बच्चों को क्वारंटाइन किया गया, उन पर यह खतरा सामान्य रूटीन रखने वाले बच्चों की तुलना में चार गुना अधिक था।