गर्मियों की न करें शिकायत, जानिए कैसे करें फुल एंजॉय
गर्मी का मतलब सिर्फ तपन नहीं है। यह तो अवसर है घूमने का, अपने गांव-देस आकर अपनी रिश्ते-नातों से जुड़ने का है।

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chhama sharmaCreated On: 19 May 2015 12:00 AM GMT
नई दिल्ली. गर्मी के दिन लंबे हो गए। देर तक रोशनी, उजाला, मगर तेज धूप, जिसमें जरा-सा बाहर निकले कि पसीने छूटे। जहां सारे पेड़ कुछ मुरझाए से, वहीं चटख लाल रंग के फूलों से भरा गुलमोहर। चारों तरफ हाय-पुकार भी, ओह कितनी गर्मी है! और देर से बिजली भी नहीं है। क्या करें पंखा, कूलर, एसी की हवा में भी चैन नहीं। चाहे जितना पानी पी लो मगर प्यास है कि बुझती ही नहीं। गर्मी के मौसम में इस तरह की शिकायतें आम होती हैं। मगर क्या गर्मी सिर्फ शिकायतों से भरी होती है, नहीं बिल्कुल नहीं।
गर्मी का मतलब सिर्फ तपन नहीं है। यह तो अवसर है घूमने का, अपने गांव-देस आकर अपनी रिश्ते-नातों से जुड़ने का है। मौसम के रूप को देखने-समझने और उसमें रमकर ऊर्जावान होने का। हां, गर्मी में भी हम भीनी-भीनी शीतलता पा सकते हैं, अहसासों के उन गलियारों से गुजर कर, जो हमारी जड़ों से जुड़े हैं।
खट्ठी-मीठी गर्मी
अगर गर्मी न हो तो रसीले तरबूज, खरबूजा, ककड़ी, खीरे, तरह-तरह के शरबत और मीठे आम का आनंद कैसे मिले। मेंगो शेक कैसे पिएं। कैसे दादी या नानी भर-भर के र्मतबान अचार डालें। इस इंतजार में कि जब उनके बच्चे, नाती-पोते घर आएंगे तो परांठे, पूरी, दाल-चावल के साथ अचार मांगेंगे। और अचार भी कितनी तरह के- मीठा, नमकीन, अमिया-मिर्च की कांजी, बिना तेल का अचार, खट्टा-मीठा जैम, तरह-तरह की चाट-पकौड़ी, चटनी, नमक पारे। घर के सब लोग न सिर्फ खाएंगे, बल्कि लौटते वक्त हमारे घरों की ये बूढ़ी अम्माएं साथ में ढेर सा-बांध भी देंगी, अगली गर्मियों तक के लिए।
लौटना अपनी जड़ों में
गर्मी की छुट्टियां, मतलब अपने उन नाते-रिश्तेदारों से मिलने का मौका, जिनसे साल भर मुलाकात नहीं होती। कभी बुआ के घर, तो कभी मौसी के तो कभी चाचा के। खूब हंसी-मजाक। कभी किसी के यहां नाश्ता तो किसी के यहां दोपहर का भोजन। आज जब यह सुनाई देता है कि इन दिनों गाड़ियों में टिकट नहीं मिल रहा है। रेलवे विशेष गाड़ियां चला रही हैं। भारी भीड़ है क्योंकि गर्मियों में सबको अपने देस, अपनी जड़ों की तरफ लौटना है। तो अपना बचपन भी याद आ जाता है। जिसमें सफर में चाहे खड़े-खड़े जाना पड़ता था, चाहे जितनी परेशानी होती थी, फिर भी अपनों के पास पहुंचने की जल्दी पड़ी रहती थी। आज भी जब बसों, गाड़ियों जहाजों में लोग घर लौटते हैं तो शायद यही उत्साह तो होता होगा, वरना कोई क्यों आएगा।जहां बचपन बीता, वे यादें पूरी उम्र पीछा करती हैं और हर बार हम अपने घोंसले की तरफ उड़ना चाहते हैं। पुराने जमाने की कविता की एक पंक्तियाद आती है जैसे उड़े जहाज को पंछी फिर जहाज पे आवे। जब भी हम लौटते हैं, अपने उन मित्रों से मिलते हैं, जो अब उस शहर और गांव में बचे हैं।
सिर्फ घर तक सीमित नहीं होते रिश्ते
कोई रिश्ता सिर्फ घर के लोगों से ही नहीं होता। हमारे मित्र, उनके घर वाले, अध्यापक, पड़ोस वाले चाचा, दुकान वाली ताई, झाड़ू वाली बुआ, दूधिया भाईसाब आदि न जाने कितने रिश्ते ऐसे होते हैं, जो पूरी उम्र के लिए बन जाते हैं। धरती, जल, जंगल, जमीन, घर के आंगन का नीम, घर की गाय, अपने खेत की पोखर, उसके किनारे लगा बबूल, करोंदे का पेड़, तोड़कर नमक लगाकर खाई गई अमियां, कैथा, बेल का शरबत, मोगरे के फूल का झाड़, गुलाबबाड़ी या बचपन में की गई कोई शरारत, कोई गलती, सावन के झूले, गीत, तीज, रक्षाबंधन भी। इसके साथ और न जाने क्या-क्या।
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