अशोक तंवर : जेएनयू से लेकर सिरसा तक की जीती जंग, पार्टी की गुटबाजी ने घनचक्कर बना दिया
भारतीय राजनीति की एक जो खास बात है यह है कि कभी भी सबकुछ एक जैसा नहीं होता। न ही किसी पार्टी के साथ और न की किसी नेता के साथ। दिन लगातार बदलते रहते हैं। कभी लगता है कि अब सबकुछ इन्हीं के हाथ है तो अगले ही पल लगता है कि नहीं...नहीं इनके हाथ में तो अब कुछ भी नहीं है। ऐसा ही कुछ हरियाणा कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर के साथ हुआ है..

12 फरवरी 1976 को दिल्ली के दिलबाग सिंह और कृष्णा राठी के यहां जन्मे अशोक तंवर (Ashok Tanwar) की शुरुआती पढ़ाई दिल्ली में ही हुई। इसके बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए विषय इतिहास और जगह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) चुनी। जेएनयू से अशोक ने एमए, एमफिल और इतिहास में ही पीएचडी कर ली।
अशोक तंवर ने जेएनयू में सिर्फ पढ़ाई नहीं की बल्कि कैंपस की हवा में घुली राजनीति को भी समझा और कांग्रेस (Congress) का खेमा चुनकर सियासत शुरू कर दी। पहले वह एनएसयूआई (NSUI) से जुड़े, उनकी राजनीतिक समझ, छात्रों को इकट्ठा करने की काबिलियत अच्छी थी। इसीलिए वह जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष पद पर चुनाव भी लड़ गए। हालाकि उन्हें जीत हासिल नहीं हुई पर ये उनके लिए काफी फायदेमंद रहा।
तंवर 1999 में एनएसयूआई के राष्ट्रीय सचिव बने और इसके 4 साल बाद उन्हें कांग्रेस के इस छात्र विंग का अध्यक्ष बना दिया गया है। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी शानदार ढंग से निभाते हुए जेएनयू में वामपंथी वर्चस्व को ध्वस्त करते हुए एनएसयूआई को लगातार दो बार जीत दिलाई। इस कारनामे के बाद एनएसयूआई का ग्राफ देश के कई और विश्व विद्यालयों में भी ऊपर उठा। पार्टी में अनुशासन बरतने पर विशेष जोर दिया गया।
अशोक तंवर के लिए 2005 कई मायनों में खास रहा, इसी साल कांग्रेस में उनका प्रमोशन हुआ और उन्हें युवा कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया। इसी साल के जून में वह ललित माकन की बेटी अवंतिका माकन (Avantika Maken) के साथ परिणय सूत्र में भी बंध गए। इस समय अशोक तंवर को एक बेटा और एक बेटी है। देश के पूर्व राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा (Shankar Dayal Sharma) अवंतिका के सगे नाना हैं।
यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए जाने के बाद अशोक तंवर ने पार्टी को आगे ले जाने के लिए खूब मेहनत की। साल 2009 में कांग्रेस के आलाकमान ने उन्हें हरियाणा के सिरसा लोकसभा सीट से बतौर प्रत्याशी उतारा। कांग्रेस ने ये फैसला तब किया जब चुनाव में महज 1 महीने का वक्त था।
तंवर ने चुनाव लड़ा और इंडियन नेशनल लोकदल के प्रत्याशी डॉ. सीताराम को 35,499 मतों के अंतर से हरा दिया। ये जीत इसलिए भी खास रही क्योंकि सिरसा प्रदेश के महत्वपूर्ण नेता ओम प्रकाश चौटाला का गृह जिला है और उन्हीं के गृह जिले में उनकी ही पार्टी को शिकस्त देना कोई छोटी बात नहीं थी।
2009 में लोकसभा चुनाव जीतने के बाद पार्टी में उनका कद बढ़ गया। राहुल गांधी के करीबी होने के कारण हरियाणा की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई। साल 2014 का हरियाणा विधानसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा गया। पर उनकी काबिलियत पर मोदी लहर भारी पड़ी और भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश में पहली बार अपनी सरकार बनाई।
2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में हार के बाद तो अशोक तंवर का विरोध नहीं हुआ पर इस साल लोकसभा चुनाव में प्रदेश की एक भी लोकसभा सीट न जीत पाने के कारण उनका खुला विरोध शुरू हो गया। प्रदेश कांग्रेस में दो गुट बन गए, एक गुट पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुड्डा के साथ चला गया तो दूसरा अशोक तंवर के साथ। कहा जाता है कि राहुल गांधी के खास होने के कारण वह कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष पर बने रहे।
लेकिन जैसे ही सोनिया गांधी ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कुर्सी संभाली उन्होंने अशोक तंवर को जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया। कुमारी शैलजा को प्रदेश की कमान मिली। अब उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव लड़ा जाना है। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या गुटबाजी का शिकार हुई कांग्रेस अब एक हो सकती है?
अशोक तंवर को सिरे से नहीं नकारा जा सकता। प्रदेश में जब इनेलो के दर्जनभर विधायक पार्टी छोड़कर सत्ताधारी दल में शामिल हो रहे थे तब उन्होंने कांग्रेस के 17 विधायकों को भरोसा देकर रखा, उन्हें कांग्रेस का ही बनाए रखा। फिलहाल राजनीति ऐसी ही होती है। कभी एक समान नहीं चलती। क्या पता आज जिसके हाथ में कमान है वह भी चमत्कार न कर पाए तो फिर से अशोक तंवर को ही कमान मिल जाए....
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